Tuesday, 14 February 2012
Sunday, 5 February 2012
जानें, समझें, फिर लें एडमिशन
Think And Take Admission in MBA |
एमबीए का क्रेज युवाओं के सिर चढकर बोल रहा है। इस कारण सभी स्टूडेंट्स एमबीए की डिग्री लेना चाहते हैं। हम सभी जानते हैं कि क्वालिटी एजुकेशन कुछ अच्छे संस्थानों में ही उपलब्ध रहती है। लेकिन इस समय सभी जगह बिजनेस स्कूलों की बाढ आ गई है। समस्या यह है कि स्टूडेंट्स संस्थान चयन को लेकर काफी परेशान रहते हैं और उचित मार्गदर्शन के अभाव में बेहतर संस्थान में एडमिशन लेने से वंचित रह जाते हैं। अगर आप भी एमबीए करना चाहते हैं, तो आपके लिए जरूरी है कि आप इन बातों को पहले ही गांठ बांध लें और उसी के अनुरूप संस्थान का चयन करें।
संस्थान चयन में खुद को तौलें
स्टूडेंट को स्वयं को परखना चाहिए कि वह कहां खडा है। उसकी पढाई का क्या बैक ग्राउंड है। कहने का आशय यह है कि पढाई का क्या परिवेश रहा है। इसके लिए संस्थानों की वेबसाइट देखकर एडमिशन का विवरण समझ लें। फिर स्वयं संस्थान में जाकर पडताल करें। प्रत्येक संस्थान के एडमिशन का क्राइटेरिया अलग-अलग है। उसी आधार पर स्वयं का आकलन कर संस्थान का चयन करें। आप किसी भी स्ट्रीम से हों या फिर सिम्पल ग्रेजुएशन या टेक्निकल कोर्स करने जा रहे हों। संस्थान चयन में यह सतर्कता आपकी राह आसान करेगा।
चयन का फार्मूला
किसी भी संस्थान में प्रवेश लेने से पूर्व संस्थान की संबद्धता, मान्यता, मैनेजमेंट, फैकल्टी और पढ रहे स्टूडेंट्स से मिलकर वहां के नियम कानून को जानना होगा। संस्थान चयन में विज्ञापन के मायाजाल से बचने के लिए स्वयं वहां जाकर स्कूल की गुणवत्ता को परखें और विशेषज्ञ से सलाह-मशविरा जरूर करें। अगर आप इस तरह की जांच पडताल करते हैं, तो आप बेहतर संस्थान के काफी करीब पहुंच सकते हैं।
जानें मान्यता
आप जिस भी संस्थान में पढाई करने का निर्णय करने जा रहे हैं, उससे पहले बेहतर होगा कि आप जान लें कि उस संस्थान की मान्यता है भी कि नहीं? अगर है तो संस्थान की संबद्धता किस आधार पर है। जिस आधार पर मान्यता मिली है, उसकी कसौटी पर वह कितना खरा है। यदि आप ऐसा करते हैं तो गुमराह होने के चांसेज कम हो सकते हैं।
फैकल्टी है अहम
किसी भी संस्थान की फैकल्टी का रोल अहम होता है। यदि फैकल्टी अच्छी है तो भविष्य भी बेहतर होने के चांसेज बढ जाते हैं। इसलिए फैकल्टी को पहली प्राथमिकता देते हुए संस्थान को वरीयता क्रम में फर्स्ट च्वाइस मे रखें। कॅ रियर की दृष्टि से यह जानना महत्वपूर्ण है। टीचर का बैक ग्राउंड क्या है अर्थात वह किस संस्थान से पास आउट है। यह सब जानकारी उस संस्थान में पढ रहे सीनियर्स से बेहतर और कोई नहीं दे पाएगा।
महत्वपूर्ण टिप्स
संस्थान चयन में खुद को परखना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना संस्थान खोजना और फिर प्रवेश लेना।
एजूकेशन मीडियम को ध्यान में रखकर संस्थान का चयन करें।
बेहतर संस्थान के लिए होम सिकनेस से बचें।
स्कूल से जुडी फैकल्टी को जरूर जानें।
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बेलगाम रफ्तार के लिए मां-बाप को जिम्मेदार
Bike accident with unsafe driving Chiragan |
दिल्ली की एक अदालत ने एक मामले में बेलगाम रफ्तार के लिए मां-बाप को भी जिम्मेदार ठहराया है। अदालत की टिप्पणी निश्चित ही समाज के एक ऐसे सत्य को उजागर करती है, जो बेहद खतरनाक है और सड़क पर चलने वालों के लिए जानलेवा बना हुआ है। चिड़ियाघर के पास एक ट्रैफिक कांस्टेबल को टक्कर मार कर कार के साथ घसीटने के मामले में साकेत कोर्ट में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने अपने फैसले में दो अभियुक्तों की रहम की अपील को स्वीकार करते हुए उनके द्वारा जेल में बिताए गए समय को ही पर्याप्त सजा माना और उनपर जुर्माना लगा दिया। इस मामले में अदालत ने कहा कि माता-पिता अक्सर बच्चों को सहूलियत के नाम पर बिना ड्राइविंग लाइसेंस के वाहन तो थमा देते हैं, मगर भूल जाते हैं कि उसका परिणाम कितना भयंकर हो सकता है। इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि बिना ड्राइविंग लाइसेंस के या यातायात नियमों की जानकारी हासिल किए वाहन चलाने से दुर्घटना की आशंका हमेशा बनी रहती है। अदालत की यह टिप्पणी यकीनन एक गंभीर समस्या की ओर इंगित करती है, जिसपर गौर करना सभी के लिए अत्यंत आवश्यक है। खासकर उन माता-पिता के लिए जिन्होंने अपने बच्चों को हाल ही में वाहन चलाने की अनुमति दी है या निकट भविष्य में देने वाले हैं।
वास्तव में इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि माता-पिता को अपने बच्चों को वाहन चलाने देने से पहले उन्हें न सिर्फ ड्राइविंग लाइसेंस दिलवाना चाहिए, अपितु उन्हें यह भी बताना चाहिए कि वे वाहन चलाते समय क्या सावधानियां बरतें। इसके साथ ही समय-समय पर उनके साथ वाहन में बैठकर उनके चलाने के तरीके को भी देखना चाहिए ताकि उसमें कहीं से भी कोई खामी नजर आने पर उन्हें समय रहते सुधार के लिए प्रेरित किया जा सके। उन्हें यह समझना चाहिए कि कोई जानलेवा सड़क हादसा होने की स्थिति में न सिर्फ किसी व्यक्ति की मौत होती है, अपितु यदि वह व्यक्ति घर में एकलौता कमाने वाला होता है तो पूरा परिवार ही बर्बाद हो जाता है। यह एक ऐसा पहलू है, जिसपर तेज रफ्तार से वाहन चलाने वाले गौर नहीं करते। राजधानी सड़क हादसों के लिए कुख्यात है। ऐसे में दिल्लीवासियों को खुद यातायात नियमों का पालन करने के साथ अपने बच्चों को भी पूरी जानकारी देनी चाहिए, ताकि उनका जीवन तो सुरक्षित रहे ही, किसी और को भी उनकी लापरवाही का खामियाजा न भुगतना पड़े।
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Friday, 3 February 2012
लावारिस बच्चे Lavarish Bachchhe
दिल्ली के सार्वजनिक शौचालयों, कचराघरों, अस्पताल, बाजार जैसे भीड़भाड़ वाले स्थानों के एकांत कोनों में नवजात शिशुओं को लावारिस छोड़ देने की घटनाएं बढ़ती गई हैं। पुलिस का कहना है कि हर दिन औसतन तीन बच्चे जीवित या मृत अवस्था में लावारिस पाए जाते हैं। ऐसे बच्चों का संरक्षण और पालन-पोषण एक चुनौतीपूर्ण काम है। यह भी गौरतलब है कि इनमें करीब सत्तर फीसद बच्चियां होती हैं। यह तथ्य बच्चियों को अवांछित मानने की रुग्ण मानसिकता की ही पुष्टि करता है। विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि अपने नवजात शिशुओं को लावारिस छोड़ने वालों में ज्यादातर गरीब परिवारों के लोग होते हैं, जिनके लिए बच्चों के पालन-पोषण का खर्च जुटाना कठिन होता है। इसके अलावा वे महिलाएं भी ऐसा कदम उठाती हैं, जो अपने पति से अलग हो चुकी होती हैं और दूसरा विवाह करना चाहती हैं। फिर कोई-कोई अविवाहित स्त्री भी अपने अनचाहे शिशु से छुटकारा पाने की कोशिश में लोगों की नजर बचा कर उसे कहीं छोड़ देती है। हालांकि यह समस्या केवल नवजात शिशुओं को लावारिस छोड़ने तक सीमित नहीं है। कई माता-पिता अपने थोड़ी बड़ी उम्र के बच्चों को किसी भीड़भाड़ वाली जगह पर चुपके से छोड़ कर गायब हो जाते हैं। इनमें जो बच्चे कुछ समझदार होते हैं, अपने माता-पिता का नाम आदि बता पाते हैं, उनके परिवार को तलाशने में कुछ हद तक कामयाबी मिल जाती है। मगर अनेक मामलों में संरक्षण की जिम्मेदारी पुलिस पर आ जाती है। चूंकि हमारे यहां लावारिस शिशुओं और बच्चों के माता-पिता को तलाशने का कोई कारगर तंत्र नहीं है, ऐसे बच्चों के पालन-पोषण की खातिर अनाथालयों की मदद लेनी पड़ती है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि घर-परिवार से वंचित बच्चों के लिए बाल अधिकार की तमाम बातें और भविष्य का सपना क्या मायने रखता होगा!
दिल्ली में बच्चों की चोरी, उनके अचानक लापता होने और आखिरकार मानव तस्करी करने वालों की गिरफ्त में पहुंच जाने की समस्या से पार पाना यों ही पुलिस के लिए बड़ी चुनौती है। ऐसे में लावारिस नवजात शिशुओं को खुशहाल बचपन दे पाना अलग परेशानी का विषय है। यों पांच साल तक की आयु के सभी बच्चों के पोषण और स्वास्थ्य आदि से जुड़ी समस्याओं के मद्देनजर कई योजनाएं चलाई जाती हैं। मगर हकीकत यह है कि बहुत सारे परिवार बच्चों को पर्याप्त पोषाहार दे पाना तो दूर, किसी तरह उनका पेट भर पाने में भी खुद को अक्षम महसूस करते हैं। इनमें कई परिवार अपने बच्चों को लावारिस छोड़ या चंद पैसों के लिए बेच देते हैं। गरीब परिवारों के लिए लड़कियों के शादी-ब्याह का खर्च उठा पाना एक और अतिरिक्त समस्या होती है। पर बच्चों के गायब होने की ज्यादातर घटनाओं के पीछे मानव तस्करी में लगे गिरोहों का हाथ होता है। अनेक अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि ये गिरोह उन्हें भीख मांगने और मजदूरी के कामों में लगा देते हैं। गायब की गई लड़कियां जिस्मफरोशी की अंधेरी दुनिया में भेज दी जाती हैं। वहां उन्हें तमाम तरह की यातनाओं से गुजरना पड़ता है। अनाथाश्रमों की बदइंतजामी को लेकर भी अक्सर शिकायतें मिलती रहती हैं। खासकर लड़कियों के साथ वहां होने वाले व्यवहार पर कई बार उंगलियां उठ चुकी हैं। बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाले कई स्वयंसेवी संगठन लोगों में जागरूकता पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं। फिर भी समस्या बढ़ती जा रही है तो इसका कारणसमाज के संकीर्ण नजरिए के अलावा हाशिये पर जी रहे तबके के प्रति व्यवस्थागत संवेदनहीनता भी है।
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दिल्ली में बच्चों की चोरी, उनके अचानक लापता होने और आखिरकार मानव तस्करी करने वालों की गिरफ्त में पहुंच जाने की समस्या से पार पाना यों ही पुलिस के लिए बड़ी चुनौती है। ऐसे में लावारिस नवजात शिशुओं को खुशहाल बचपन दे पाना अलग परेशानी का विषय है। यों पांच साल तक की आयु के सभी बच्चों के पोषण और स्वास्थ्य आदि से जुड़ी समस्याओं के मद्देनजर कई योजनाएं चलाई जाती हैं। मगर हकीकत यह है कि बहुत सारे परिवार बच्चों को पर्याप्त पोषाहार दे पाना तो दूर, किसी तरह उनका पेट भर पाने में भी खुद को अक्षम महसूस करते हैं। इनमें कई परिवार अपने बच्चों को लावारिस छोड़ या चंद पैसों के लिए बेच देते हैं। गरीब परिवारों के लिए लड़कियों के शादी-ब्याह का खर्च उठा पाना एक और अतिरिक्त समस्या होती है। पर बच्चों के गायब होने की ज्यादातर घटनाओं के पीछे मानव तस्करी में लगे गिरोहों का हाथ होता है। अनेक अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि ये गिरोह उन्हें भीख मांगने और मजदूरी के कामों में लगा देते हैं। गायब की गई लड़कियां जिस्मफरोशी की अंधेरी दुनिया में भेज दी जाती हैं। वहां उन्हें तमाम तरह की यातनाओं से गुजरना पड़ता है। अनाथाश्रमों की बदइंतजामी को लेकर भी अक्सर शिकायतें मिलती रहती हैं। खासकर लड़कियों के साथ वहां होने वाले व्यवहार पर कई बार उंगलियां उठ चुकी हैं। बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाले कई स्वयंसेवी संगठन लोगों में जागरूकता पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं। फिर भी समस्या बढ़ती जा रही है तो इसका कारणसमाज के संकीर्ण नजरिए के अलावा हाशिये पर जी रहे तबके के प्रति व्यवस्थागत संवेदनहीनता भी है।
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कुपोषित विकास Kuposhit Vikash
कुपोषण और शिशु मृत्युदर से संबंधित खबरों या अध्ययनों के निष्कर्ष न केवल मौजूदा नीतियों और उन पर अमल को, बल्कि अक्सर अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर को भी आईना दिखाते हैं। अब भारत के महापंजीयक की ताजा रपट ने एक बार फिर देश के विरोधाभासी विकास को रेखांकित किया है। उसके मुताबिक शिशु मृत्यु दर पर काबू पाना मुश्किल बना हुआ है। इसके मुताबिक देश भर में नवजात शिशुओं की मृत्युदर में कुछ कमी जरूर आई है, लेकिन यह मामूली राहत भी कुछ शहरी इलाकों तक सीमित है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी हालात चिंताजनक बने हुए हैं। शहरों में जहां प्रति एक हजार में से बयालीस बच्चे जन्म लेने के बाद दम तोड़ देते हैं, वहीं गांवों में अब भी यह संख्या सड़सठ है। इनमें भी बच्चियों की तादाद ज्यादा है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि समस्या को दूर करने के लिए अमल में लाई जाने वाली नीतियों की व्यावहारिक हकीकत क्या है। स्थिति यह है कि अकेले गोवा ऐसा राज्य है, जहां प्रति एक हजार में सिर्फ दस बच्चों की मौत के आंकड़ों के साथ उल्लेखनीय सुधार का दावा किया जा सकता है। लेकिन बड़े राज्यों में शुमार मध्यप्रदेश की हालत इस मामले में बेहद शर्मनाक है। वहां आज भी एक हजार में से बासठ बच्चे जन्म लेने के तुरंत बाद दम तोड़ देते हैं।
सवाल है कि नवजात शिशुओं की मृत्यु दर को लेकर लगातार जताई जाने वाली चिंता और इस समस्या से निपटने के लिए घोषित और लागू तमाम योजनाओं के बावजूद स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आ रहा है तो इसके क्या कारण हो सकते हैं? शिशु मृत्यु दर पर काबू पाने के मकसद से गर्भवती महिलाओं की देखरेख से लेकर शिशुओं के पोषण के स्तर में सुधार तक के लिए कई सरकारी योजनाएं लागू हैं। लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि ऐसी तमाम योजनाएं अमल तक पहुंचते-पहुंचते किस तरह भ्रष्टाचार का शिकार हो जाती हैं और जरूरतमंदों को उनका फायदा नहीं मिल पाता। यह कड़वी सच्चाई है कि कुपोषण की समस्या मुख्य रूप से गरीबी से जुड़ी है। पर्याप्त और पौष्टिक भोजन नहीं मिलने से पहले ही गरीब परिवारों के बच्चे कुपोषण, खून की कमी और हैजा जैसी परेशानियों से ग्रस्त हो जाते हैं। इसके अलावा, हमारे देश में हर तीन में से एक महिला का वजन सामान्य से काफी कम होता है और इसका सीधा असर गर्भ में पल रहे शिशु पर पड़ता है। दूसरी ओर, हमारे नीति-निर्माताओं की दिलचस्पी इस समस्या की व्यापकता को स्वीकार करने के बजाय यह दिखाने में होती है कि गरीबी लगातार घट रही है, ताकि मौजूदा आर्थिक नीतियों का औचित्य साबित किया जा सके। एक बड़ी समस्या यह भी है कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच के मामले में व्यापक भेदभाव है। संयुक्त राष्ट्र इस पर चिंता जता चुका है कि भारत में चिकित्सा सेवाओं के निजीकरण पर जोर देने के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली लगातार कमजोर होती गई है, जबकि ज्यादातर गरीब लोगों के लिए सरकारी अस्पताल ही इलाज का एकमात्र आसरा होते हैं। जाहिर है, समस्या की व्यापकता को देखते हुए एक साथ कई स्तरों पर ईमानदारी से काम करने की जरूरत है। देश में यह तस्वीर सालों से लगभग ज्यों की त्यों बनी हुई है, लेकिन लगता है कि सरकारों का ध्यान केवल आर्थिक विकास दर के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने पर केंद्रित है।
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सवाल है कि नवजात शिशुओं की मृत्यु दर को लेकर लगातार जताई जाने वाली चिंता और इस समस्या से निपटने के लिए घोषित और लागू तमाम योजनाओं के बावजूद स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आ रहा है तो इसके क्या कारण हो सकते हैं? शिशु मृत्यु दर पर काबू पाने के मकसद से गर्भवती महिलाओं की देखरेख से लेकर शिशुओं के पोषण के स्तर में सुधार तक के लिए कई सरकारी योजनाएं लागू हैं। लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि ऐसी तमाम योजनाएं अमल तक पहुंचते-पहुंचते किस तरह भ्रष्टाचार का शिकार हो जाती हैं और जरूरतमंदों को उनका फायदा नहीं मिल पाता। यह कड़वी सच्चाई है कि कुपोषण की समस्या मुख्य रूप से गरीबी से जुड़ी है। पर्याप्त और पौष्टिक भोजन नहीं मिलने से पहले ही गरीब परिवारों के बच्चे कुपोषण, खून की कमी और हैजा जैसी परेशानियों से ग्रस्त हो जाते हैं। इसके अलावा, हमारे देश में हर तीन में से एक महिला का वजन सामान्य से काफी कम होता है और इसका सीधा असर गर्भ में पल रहे शिशु पर पड़ता है। दूसरी ओर, हमारे नीति-निर्माताओं की दिलचस्पी इस समस्या की व्यापकता को स्वीकार करने के बजाय यह दिखाने में होती है कि गरीबी लगातार घट रही है, ताकि मौजूदा आर्थिक नीतियों का औचित्य साबित किया जा सके। एक बड़ी समस्या यह भी है कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच के मामले में व्यापक भेदभाव है। संयुक्त राष्ट्र इस पर चिंता जता चुका है कि भारत में चिकित्सा सेवाओं के निजीकरण पर जोर देने के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली लगातार कमजोर होती गई है, जबकि ज्यादातर गरीब लोगों के लिए सरकारी अस्पताल ही इलाज का एकमात्र आसरा होते हैं। जाहिर है, समस्या की व्यापकता को देखते हुए एक साथ कई स्तरों पर ईमानदारी से काम करने की जरूरत है। देश में यह तस्वीर सालों से लगभग ज्यों की त्यों बनी हुई है, लेकिन लगता है कि सरकारों का ध्यान केवल आर्थिक विकास दर के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने पर केंद्रित है।
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