Wednesday, 5 June 2013
कहा से? कहा को जा रहे है?
अगर हम ये कहे तो गलत नहीं होगा की मानव अपने आप में पर्यावरण से इतर कोई
अलग इकाई नहीं है। वह पर्यावरण के प्राकृतिक घटक का ही एक अंग है और उसका
अस्तित्व प्रकृति पर ही टिका हुआ है। हमारे प्राचीन ऋषि मुनि इस तथ्य से
भली-भाँति परिचित थे कि "जड़ जगत" यानी भूमि, जल, पहाड़, वायु, वनस्पतियों,
वन्यजीव, नदी-नाले एवं "चेतन जगत" यानी मनुष्य के पारस्परिक समानुपातिक
सामंजस्य से ही पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी तन्त्र में संतुलन कायम रहता है।
पारिस्थितिकी तन्त्र के किसी घटक के नष्ट होने से उसका दुष्परिणाम
सम्पूर्ण पर्यावरण को भोगना पड़ता है।
ॠग्वेद, उपनिषद और जातक कथाओं से लेकर पुराणों तक में भारतीय संस्कृति की प्रकृति संरक्षण सम्बन्धी चिरन्तन धारा विद्यमान रही है। भारतीय ऋषि मुनियो ने प्राकृतिक शक्तियों को देवी-देवताओ का स्वरूप माना। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि वगैरह देव माने गए तो नदियाँ पवित्र देवियाँ और पृथ्वी को माँ। वृक्ष देवों के वास-स्थल बने तो वही कुएँ, तालाब और बावड़ियों के धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व भी उभरे। पशु-पक्षियों को देवताओं का वाहन बनाकर इन्हें श्रेष्ठता प्रदान की गयी तो गाय-बैल भारतीय लोकजीवन में कितने समाहित हुए, इससे शायद ही कोई अनजान हो।
मगर समय का चक्र बहुत कुछ बदल देता है। उन्नीसवीं सदी में हुई औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् मानव की लालसा को पंख लग गए। उपभोक्तावादी जीवन-मूल्यों का विकास होने लगा। भारतीय भी इस जीवन-पद्धति के प्रवाह से अपने को बचा नहीं सके। फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का बेलगाम सिलसिला शुरू हो गया। इस सन्दर्भ में जो भी पारम्परिक अनुशासन और मर्यादाएं थीं, सब ताक पर रख दी गई। परिणामत: आज समस्त विश्व पर्यावरण प्रदूषण और पारिस्थितिकी असंतुलन की भयावह समस्या से आक्रांत है। अभी न हमारी नदियों का जल शुद्ध रह गया है और न वायुमण्डल। भूगर्भीय जल भी अर्सेनिक और फ्लूराइड जैसे तत्वों से जहरीला होने लगा है। यहाँ तक कि अन्तरिक्ष में भी प्रदूषण के कदम पड़ चुके हैं और यह सब हो रहा है- विकास के नाम पर। पुराने समय में पर्यावरण को लेकर कैसी सोच थी, इसे समझने में ‘मत्स्यपुराण' का यह कथन दृष्टव्य है-
‘‘दशकूप समावापी, दशवापी समोहृद:।
दश हृद सम: पुत्रो, दश पुत्र समोवृक्ष:।।"
इसमें बताया गया है कि दस कुओं के समतुल्य एक बावड़ी है। दस बावडियों के बराबर एक तालाब है। दस तालाबों के सदृश्य एक पुत्र है और दस पुत्रों के समान एक वृक्ष होता है। सोचिये कभी इतना समाहित था लोकजीवन में वृक्ष! जरूरत होने पर भी लोग हरे वृक्ष को नहीं काटते थे। यह जनश्रुति मिलती है कि राजस्थान में खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा में माहेश्वरी समुदाय के लोगों ने प्राण तक न्योछावर कर दिए थे। मगर बीसवीं सदी के आठवें दशक तक आते-आते पैसे की लिप्सा ऐसी बलवती हुई कि आम, महुआ, जामुन जैसे फलदार वृक्ष बेचे-काटे जाने लगे। सघन छांव वाले गांव बंजर उजाड़ होते गए।
ऊर्जा, ईंधन और इमारती लकड़ी के लिए पिछले सौ साल से जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला जारी है। एक समय तो ऐसा आ गया था, जब लगने लगा था कि अब पहाड़ सदैव के लिए नंगे-बूचे हो जायेंगे। किन्तु सुन्दरलाल बहुगुणा के ‘चिपको आन्दोलन' का इस दिशा में सकारात्मक परिणाम आया। इससे पर्वतीय क्षेत्रों में अनियन्त्रित कटान पर तो रोक लगी ही, वृक्षारोपण को प्राणवायु भी मिल गई। वृक्ष सिर्फ कार्बन डाई आक्साइड का अवशोषण करके आक्सीजन का उत्सर्जन ही नहीं करते, बल्कि मृदा संरक्षण और परिवर्धन का गुरुतर दायित्व भी निभाते हैं।
जहाँ जंगल कटते हैं, उस क्षेत्र में अपक्षयन की क्रिया आरम्भ हो जाती है। बरसात के समय वहाँ की मृदा को प्राकृतिक संरक्षण नहीं मिल पाता। फलस्वरूप भूक्षरण में वृद्धि होने लगती है। कुछ वर्षों में उस क्षेत्र की मृदा का पूर्णतया सफाया हो जाता है और अन्दरूनी सिल्ट सतह पर आ टिकती है। ऐसी स्थिति में वह इलाका बंजर में परिवर्तित होने लगता है। मृदा के अभाव में वर्षा का पानी पृथ्वी में अवशोषित होने के बजाय सीधे स्थानीय नदी-नाले में मात्र कुछ घंटों में समा जाता है। इसके तीव्र बहाव में आस-पास के कृषि भूमि की मृदा भी कटने लगती है। पृथ्वी के दो-तीन इंच के ऊपरी भाग में एंथ्रोपोड्स, प्रोटोजोआ, कवक, गोलक्रिमियाँ आदि रहती हैं। मृदा व ह्यूमस के निर्माण तथा मिट्टी की उर्वरकता की संरक्षा में इनका अहम् स्थान है। कटान के साथ यह पूरा सूक्ष्म तन्त्र भी अपक्षयन की भेंट चढ़ जाता है। भूमि की उर्वराशक्ति की कमी से कृषि घाटे का सौदा बन जाती है। लिहाजा कृषि से जुड़ें व्यक्ति रोजी की तलाश में शहरों की तरफ भागते हैं। इससे शहरों में स्वच्छता, शुद्ध पेय जलापूर्ति और मलिन बस्तियों में वृद्धि की समसया पैदा होती है जो अन्तत: शहरों की प्रदूषणकारी स्थितियों को और जटिल बनाती हैं।
पृथ्वी की सतह की सिल्ट वर्षा के पानी के साथ बहकर नदी-नालों के पेंदे में पहुँच जाती है। जिसके कारण मृदा और बालू से नदियों-नालों के प्रवाह क्षेत्र की चौड़ाई और गहराई संकुचित हो जाती है। फलत: उनके प्रवाह क्षेत्र के लोगों को बाढ़-बूड़ा का प्रकोप झेलना पड़ता है। घाघरा, राप्ति, कोसी, बूढ़ी गंडक, दमोदर, यमुना आदि नदियों में प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ के पीछे इनके प्रवाह क्षेत्र के आसपास के वनों का विनाश भी मूल कारण है। वनों पर मानव अतिक्रमण का परिणाम है- वन्य जीवों का गाँवों के आस-पास विचरण! हाथी, हिरन, बाघ, तेन्दुआ, लकड़बग्घा जैसे जंगली जानवर कृषि और रिहाइशी क्षेत्र में आकर जान-माल के लिए खतरा बनते हैं। कई ऐसे भी वन्य जीव हैं, जो अपने प्राकृतिक वास के छिनने के बाद संसार से लुप्त होते जा रहे हैं। गिद्ध, कठफोडवा जैसे जाने-पहचाने पक्षी ऐसे ही संकटग्रस्त स्थिति से गुजर रहे हैं। अति दोहन के फलस्वरूप कई औषधीय महत्व की वनस्पतियाँ जो पहले खूब दिखती थीं, अब खोजने पर भी नहीं मिलतीं। यह पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन का मामला है, जिसके प्रदूषण सम्बन्धी दूरगामी दुष्परिणाम सामने आते हैं।
सन् 2011 की ‘भारतीय वन आख्या' के अनुसार, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 23.81 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है। जबकि पचास साल पहले देश का 40 प्रतिशत भूभाग वनों से आच्छादित था।
अब कुओं, बावड़ियों का अस्तित्व मिटता जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धता बताते हुए तालाब निरन्तर पाटे जा रहे हैं। जल भण्डारण के इन पारम्परिक संसाधनों के नष्ट होने का नतीजा है कि भूगर्भीय जल स्तर निरन्तर नीचे भाग रहा है।
वायु जो हमारे जीवन का आधार है, लगातार विषैली होती जा रही है। बढ़ते औद्योगीकरण और स्वचालित वाहनों से निकलने वाला धुँआ वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण है। धुएं में मुख्य तौर पर कार्बन डाई आक्साइड, वैजोपाइरीन, कार्बन मोनोआक्साइड, सल्फर ट्राई आक्साइड, अधजले पेट्रोल का वाष्प, गंधक के आक्साइड, अधजले हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन के विभिन्न आक्साइड, राख आदि हैं। यह मानव स्वास्थ्य से लेकर ओजोन छतरी को भी क्षतिग्रस्त कर रहे हैं।
मौसम विज्ञानियों के अनुसार, वायुमण्डल में घुले और तैरते प्रदूषक पृथ्वी के मौसम चक्र और गर्मी-सर्दी को प्रभावित कर रहे हैं। एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि वायु के अन्दर धुएँ का सघन प्रदूषण, पी०एम०-10 नाम के काले जहर के रूप में परिणत हो रहा है। यह सांस के जरिये फेफड़े में जाता है और हृदयाघात व कैंसर जैसी बीमारियों का कारण बनने लगा है। देश की नदियों का हाल और खराब है। नदियाँ अपने तटवर्ती नगरों का मलिन जल तो ढोती ही हैं, यहाँ स्थित चमड़ा, रसायन, कागज, चीनी, इस्पात संयंत्र, उर्वरक, खाद्य प्रसंस्करण, रंगाई-छपाई आदि उद्योगों का अपशिष्ट जल भी इसमें गिराया जाता है। योजना आयोग की स्वीकृति है कि ‘उत्तर की डल झील' से लेकर दक्षिण की पेरियार और चालियार नदियों तक, पूरब में दामोदर तथा हुगली से लेकर पश्चिम की ढाणा नदी तक जल प्रदूषण की स्थिति भयावह है।' नदी जल का तापमान, क्षारीयता, कठोरता, क्लोराइड की मात्रा, पी.एच.मान., बी.ओ.डी. आदि में लगातार असंतुलन पैदा हो रहा है। अब यह न्यूनतम स्तर से बहुत आगे और जटिल हो चुका है। हुगली, दमोदर, चम्बल, तुंगभद्रा, वरुणा, सोन, कावेरी, हिंडन, गोमती, सई, तमसा जैसी कई नदियों में मत्स्य प्रजातियाँ, जलीय जीव और शैवाल सदैव के लिए समाप्त होते जा रहे हैं। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, इनमें कई नदियाँ मौत की दिशा में बढ़ रही हैं।
जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी की सबसे जटिल चुनौतियों में से एक है। इसके प्रभाव से कोई देश अछूता नहीं है। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों से कोई देश अकेले नहीं निपट सकता। जलवायु परिवर्तन का विकास, आपदा और निर्धनता से निकट का संबंध है।
हमारे पर्यावरण का ये संकट हमे सोचने पर मजबूर कर रहा है की विकाश की अंधी भागम भाग में हम अपने अस्तित्व को कहा खोते जा रहे है? हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए किस सौगात की रचना कर रहे है? सन् 1992 में रियो-डि-जानिरो में सम्पन्न ‘पृथ्वी शिखर सम्मेलन' मे पर्यावरण के संरक्षण, संवद्र्धन और संपोषण के मुद्दे को जन सामान्य के बीच जिस प्रकार की चर्चा और स्वीकृति मिली थी, वह शुभ लक्षण थे। वास्तव में पर्यावरण संरक्षा के कितने भी कानून बनाए जाएं, कैसी भी कल्याणकारी योजनाओं की उद्घोषणा हो, जन सामान्य की प्रतिबद्धता के अभाव में वह अर्थहीन ही रहेगी। किन्तु आज की तारीख में नई विश्व व्यवस्था के निर्माण और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पर्यावरण के सवाल को जैसा महत्व मिल रहा है, वह आने वाली उम्मीदों भरी नई सुबह का आगाज दिखाती है।
ॠग्वेद, उपनिषद और जातक कथाओं से लेकर पुराणों तक में भारतीय संस्कृति की प्रकृति संरक्षण सम्बन्धी चिरन्तन धारा विद्यमान रही है। भारतीय ऋषि मुनियो ने प्राकृतिक शक्तियों को देवी-देवताओ का स्वरूप माना। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि वगैरह देव माने गए तो नदियाँ पवित्र देवियाँ और पृथ्वी को माँ। वृक्ष देवों के वास-स्थल बने तो वही कुएँ, तालाब और बावड़ियों के धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व भी उभरे। पशु-पक्षियों को देवताओं का वाहन बनाकर इन्हें श्रेष्ठता प्रदान की गयी तो गाय-बैल भारतीय लोकजीवन में कितने समाहित हुए, इससे शायद ही कोई अनजान हो।
मगर समय का चक्र बहुत कुछ बदल देता है। उन्नीसवीं सदी में हुई औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् मानव की लालसा को पंख लग गए। उपभोक्तावादी जीवन-मूल्यों का विकास होने लगा। भारतीय भी इस जीवन-पद्धति के प्रवाह से अपने को बचा नहीं सके। फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का बेलगाम सिलसिला शुरू हो गया। इस सन्दर्भ में जो भी पारम्परिक अनुशासन और मर्यादाएं थीं, सब ताक पर रख दी गई। परिणामत: आज समस्त विश्व पर्यावरण प्रदूषण और पारिस्थितिकी असंतुलन की भयावह समस्या से आक्रांत है। अभी न हमारी नदियों का जल शुद्ध रह गया है और न वायुमण्डल। भूगर्भीय जल भी अर्सेनिक और फ्लूराइड जैसे तत्वों से जहरीला होने लगा है। यहाँ तक कि अन्तरिक्ष में भी प्रदूषण के कदम पड़ चुके हैं और यह सब हो रहा है- विकास के नाम पर। पुराने समय में पर्यावरण को लेकर कैसी सोच थी, इसे समझने में ‘मत्स्यपुराण' का यह कथन दृष्टव्य है-
‘‘दशकूप समावापी, दशवापी समोहृद:।
दश हृद सम: पुत्रो, दश पुत्र समोवृक्ष:।।"
इसमें बताया गया है कि दस कुओं के समतुल्य एक बावड़ी है। दस बावडियों के बराबर एक तालाब है। दस तालाबों के सदृश्य एक पुत्र है और दस पुत्रों के समान एक वृक्ष होता है। सोचिये कभी इतना समाहित था लोकजीवन में वृक्ष! जरूरत होने पर भी लोग हरे वृक्ष को नहीं काटते थे। यह जनश्रुति मिलती है कि राजस्थान में खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा में माहेश्वरी समुदाय के लोगों ने प्राण तक न्योछावर कर दिए थे। मगर बीसवीं सदी के आठवें दशक तक आते-आते पैसे की लिप्सा ऐसी बलवती हुई कि आम, महुआ, जामुन जैसे फलदार वृक्ष बेचे-काटे जाने लगे। सघन छांव वाले गांव बंजर उजाड़ होते गए।
ऊर्जा, ईंधन और इमारती लकड़ी के लिए पिछले सौ साल से जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला जारी है। एक समय तो ऐसा आ गया था, जब लगने लगा था कि अब पहाड़ सदैव के लिए नंगे-बूचे हो जायेंगे। किन्तु सुन्दरलाल बहुगुणा के ‘चिपको आन्दोलन' का इस दिशा में सकारात्मक परिणाम आया। इससे पर्वतीय क्षेत्रों में अनियन्त्रित कटान पर तो रोक लगी ही, वृक्षारोपण को प्राणवायु भी मिल गई। वृक्ष सिर्फ कार्बन डाई आक्साइड का अवशोषण करके आक्सीजन का उत्सर्जन ही नहीं करते, बल्कि मृदा संरक्षण और परिवर्धन का गुरुतर दायित्व भी निभाते हैं।
जहाँ जंगल कटते हैं, उस क्षेत्र में अपक्षयन की क्रिया आरम्भ हो जाती है। बरसात के समय वहाँ की मृदा को प्राकृतिक संरक्षण नहीं मिल पाता। फलस्वरूप भूक्षरण में वृद्धि होने लगती है। कुछ वर्षों में उस क्षेत्र की मृदा का पूर्णतया सफाया हो जाता है और अन्दरूनी सिल्ट सतह पर आ टिकती है। ऐसी स्थिति में वह इलाका बंजर में परिवर्तित होने लगता है। मृदा के अभाव में वर्षा का पानी पृथ्वी में अवशोषित होने के बजाय सीधे स्थानीय नदी-नाले में मात्र कुछ घंटों में समा जाता है। इसके तीव्र बहाव में आस-पास के कृषि भूमि की मृदा भी कटने लगती है। पृथ्वी के दो-तीन इंच के ऊपरी भाग में एंथ्रोपोड्स, प्रोटोजोआ, कवक, गोलक्रिमियाँ आदि रहती हैं। मृदा व ह्यूमस के निर्माण तथा मिट्टी की उर्वरकता की संरक्षा में इनका अहम् स्थान है। कटान के साथ यह पूरा सूक्ष्म तन्त्र भी अपक्षयन की भेंट चढ़ जाता है। भूमि की उर्वराशक्ति की कमी से कृषि घाटे का सौदा बन जाती है। लिहाजा कृषि से जुड़ें व्यक्ति रोजी की तलाश में शहरों की तरफ भागते हैं। इससे शहरों में स्वच्छता, शुद्ध पेय जलापूर्ति और मलिन बस्तियों में वृद्धि की समसया पैदा होती है जो अन्तत: शहरों की प्रदूषणकारी स्थितियों को और जटिल बनाती हैं।
पृथ्वी की सतह की सिल्ट वर्षा के पानी के साथ बहकर नदी-नालों के पेंदे में पहुँच जाती है। जिसके कारण मृदा और बालू से नदियों-नालों के प्रवाह क्षेत्र की चौड़ाई और गहराई संकुचित हो जाती है। फलत: उनके प्रवाह क्षेत्र के लोगों को बाढ़-बूड़ा का प्रकोप झेलना पड़ता है। घाघरा, राप्ति, कोसी, बूढ़ी गंडक, दमोदर, यमुना आदि नदियों में प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ के पीछे इनके प्रवाह क्षेत्र के आसपास के वनों का विनाश भी मूल कारण है। वनों पर मानव अतिक्रमण का परिणाम है- वन्य जीवों का गाँवों के आस-पास विचरण! हाथी, हिरन, बाघ, तेन्दुआ, लकड़बग्घा जैसे जंगली जानवर कृषि और रिहाइशी क्षेत्र में आकर जान-माल के लिए खतरा बनते हैं। कई ऐसे भी वन्य जीव हैं, जो अपने प्राकृतिक वास के छिनने के बाद संसार से लुप्त होते जा रहे हैं। गिद्ध, कठफोडवा जैसे जाने-पहचाने पक्षी ऐसे ही संकटग्रस्त स्थिति से गुजर रहे हैं। अति दोहन के फलस्वरूप कई औषधीय महत्व की वनस्पतियाँ जो पहले खूब दिखती थीं, अब खोजने पर भी नहीं मिलतीं। यह पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन का मामला है, जिसके प्रदूषण सम्बन्धी दूरगामी दुष्परिणाम सामने आते हैं।
सन् 2011 की ‘भारतीय वन आख्या' के अनुसार, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 23.81 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है। जबकि पचास साल पहले देश का 40 प्रतिशत भूभाग वनों से आच्छादित था।
अब कुओं, बावड़ियों का अस्तित्व मिटता जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धता बताते हुए तालाब निरन्तर पाटे जा रहे हैं। जल भण्डारण के इन पारम्परिक संसाधनों के नष्ट होने का नतीजा है कि भूगर्भीय जल स्तर निरन्तर नीचे भाग रहा है।
वायु जो हमारे जीवन का आधार है, लगातार विषैली होती जा रही है। बढ़ते औद्योगीकरण और स्वचालित वाहनों से निकलने वाला धुँआ वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण है। धुएं में मुख्य तौर पर कार्बन डाई आक्साइड, वैजोपाइरीन, कार्बन मोनोआक्साइड, सल्फर ट्राई आक्साइड, अधजले पेट्रोल का वाष्प, गंधक के आक्साइड, अधजले हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन के विभिन्न आक्साइड, राख आदि हैं। यह मानव स्वास्थ्य से लेकर ओजोन छतरी को भी क्षतिग्रस्त कर रहे हैं।
मौसम विज्ञानियों के अनुसार, वायुमण्डल में घुले और तैरते प्रदूषक पृथ्वी के मौसम चक्र और गर्मी-सर्दी को प्रभावित कर रहे हैं। एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि वायु के अन्दर धुएँ का सघन प्रदूषण, पी०एम०-10 नाम के काले जहर के रूप में परिणत हो रहा है। यह सांस के जरिये फेफड़े में जाता है और हृदयाघात व कैंसर जैसी बीमारियों का कारण बनने लगा है। देश की नदियों का हाल और खराब है। नदियाँ अपने तटवर्ती नगरों का मलिन जल तो ढोती ही हैं, यहाँ स्थित चमड़ा, रसायन, कागज, चीनी, इस्पात संयंत्र, उर्वरक, खाद्य प्रसंस्करण, रंगाई-छपाई आदि उद्योगों का अपशिष्ट जल भी इसमें गिराया जाता है। योजना आयोग की स्वीकृति है कि ‘उत्तर की डल झील' से लेकर दक्षिण की पेरियार और चालियार नदियों तक, पूरब में दामोदर तथा हुगली से लेकर पश्चिम की ढाणा नदी तक जल प्रदूषण की स्थिति भयावह है।' नदी जल का तापमान, क्षारीयता, कठोरता, क्लोराइड की मात्रा, पी.एच.मान., बी.ओ.डी. आदि में लगातार असंतुलन पैदा हो रहा है। अब यह न्यूनतम स्तर से बहुत आगे और जटिल हो चुका है। हुगली, दमोदर, चम्बल, तुंगभद्रा, वरुणा, सोन, कावेरी, हिंडन, गोमती, सई, तमसा जैसी कई नदियों में मत्स्य प्रजातियाँ, जलीय जीव और शैवाल सदैव के लिए समाप्त होते जा रहे हैं। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, इनमें कई नदियाँ मौत की दिशा में बढ़ रही हैं।
जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी की सबसे जटिल चुनौतियों में से एक है। इसके प्रभाव से कोई देश अछूता नहीं है। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों से कोई देश अकेले नहीं निपट सकता। जलवायु परिवर्तन का विकास, आपदा और निर्धनता से निकट का संबंध है।
हमारे पर्यावरण का ये संकट हमे सोचने पर मजबूर कर रहा है की विकाश की अंधी भागम भाग में हम अपने अस्तित्व को कहा खोते जा रहे है? हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए किस सौगात की रचना कर रहे है? सन् 1992 में रियो-डि-जानिरो में सम्पन्न ‘पृथ्वी शिखर सम्मेलन' मे पर्यावरण के संरक्षण, संवद्र्धन और संपोषण के मुद्दे को जन सामान्य के बीच जिस प्रकार की चर्चा और स्वीकृति मिली थी, वह शुभ लक्षण थे। वास्तव में पर्यावरण संरक्षा के कितने भी कानून बनाए जाएं, कैसी भी कल्याणकारी योजनाओं की उद्घोषणा हो, जन सामान्य की प्रतिबद्धता के अभाव में वह अर्थहीन ही रहेगी। किन्तु आज की तारीख में नई विश्व व्यवस्था के निर्माण और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पर्यावरण के सवाल को जैसा महत्व मिल रहा है, वह आने वाली उम्मीदों भरी नई सुबह का आगाज दिखाती है।
किंजल कुमार
यात्रा नाथो के नाथ अमरनाथ की
गर्मी का मौसम है, सूरज का पृथ्वी से प्रेम अपने चरम पर है जिसकी
तपन से हम और आप झुलस रहे है, हर पल गाहे बगाहे प्रभु को याद करके कह रहे
है, "कुछ तो दया करो" मन बस यही करता है चल भाग चल उन वदियॊ में जहा उसकी
तपन ना पहुचे। मौसम भी है दस्तूर भी, तो मैंने सोचा क्यो ना इश बार यात्रा
के जरिये आपको प्रभु से मिलाने उनके ही द्वार अमरनाथ ले चलु जहा आपके तन के
साथ साथ मन को भी सुकू मिले। तो आइये चलते है बाबा भोलेनाथ की नगरी.....
अमरनाथ हिन्दुओ का एक प्रमुख शिव तीर्थ स्थल है। जो की कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर के उत्तर-पूर्व में १३५ किलोमीटर दूर समुद्रतल से १३,६०० फुट की ऊँचाई पर स्थित है। इस गुफा की लंबाई (भीतर की ओर ) १९ मीटर और चौड़ाई १६ मीटर है जबकि ऊंचाई ११ मीटर है।
इश धाम की प्रमुख विशेषता गुफा में बर्फ से प्राकृतिक शिवलिंग निर्मित होना है। आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षाबंधन तक पूरे सावन महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंग दशर्न के लिए लाखो लोग यहां आते है। गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है जिसमे ऊपर से बर्फ के पानी की बूँदें जगह-जगह टपकती रहती हैं। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमे टपकने वाली हिम बूँदों से लगभग दस फुट लंबा शिवलिंग बनता है। चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ इस शिवलिंग का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है।श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावश्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। आश्चर्य की बात यही है की यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है, जबिक गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पारवती जी के वैसे ही अलग अलग हिमखंड हैं।
अमरनाथ के बारे में कई जनस्रुतिया भी प्रचलित है जैसे की इसी गुफा में माता पावर्ती को भगवान शिव ने अमरकथा सुनाई थी, जिसे सुनकर सद्योजात शुक-शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गये थे। गुफा में आज भी स्रधालुओ को कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई दे जाता है, जिन्हें स्रधालु अमर पक्षी बताते हैं। मान्यता है वे भी अमरकथा सुनकर अमर हुए हैं। कहा जाता है की जिन स्रधालुओ को कबूतरों का जोड़ा दिखाई देता है, उन्हें शिव पावर्ती अपने प्रत्यक्ष दशर्नों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं। यह भी माना जाता है की भगवान शिव ने अर्धांगिनी पावर्ती को इस गुफा में एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमे अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में अमरकथा नाम से विख्यात हुई।
पूरे यात्रा पथ के बारे में कुछ विद्वानों का भी मत है की भगवान शंकर जब पावर्ती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने छोटे-छोटे अनंत नागों को अनंतनाग में छोड़ा, माथे के चंदन को चंदनबाड़ी में उतारा, अन्य पिस्सुओ को पिस्सू टॉप पर और गले के शेषनाग को शेषनाग नामक स्थल पर छोड़ा था। ये तमाम स्थल अब भी अमरनाथ यात्रा में आते हैं।
अमरनाथ गुफा का सबसे पहले पता सोलहवीं शताब्दी के पूवार्ध में एक मुसलमान गडरिये को चला था। आज भी मंदिर का चौथाई चढ़ावा उस मुसलमान गडरिये के वंशजों को मिलता है। आश्चर्य की बात यह है की अमरनाथ गुफा एक नहीं है। अमरावती नदी के पथ पर आगे बढ़ते समय और भी कई छोटी-बड़ी गुफाएं दिखाई देती हैं। वे सभी बर्फ से ढकी हैं। अमरनाथ पर जाने के दो रस्ते हैं। एक पहलगाम होकर और दूसरा सोनमर्ग बटलाल से। पहलगाम और बलटाल तक आप किसी भी सवारी से पहुँचें, यहाँ से आगे जाने के लिए अपने पैरों का ही इस्तेमाल करना होगा। अशक्त या वृद्धों के लिए सवारियों का प्रबंध किया जा सकता है। पहलगाम से जानेवाले रास्ते को सरल और सुविधाजनक समझा जाता है। बलटाल से अमरनाथ गुफा की दुरी केवल १४ किलोमीटर है पर यह बहुत ही दुर्गम रास्ता है और सुरक्षा की दृष्टी से भी खतरनाक है। इशिलिये सरकार इस मार्ग को सुरक्षित नहीं मानती है और अधिकतर यात्रियों को पहलगाम के रास्ते अमरनाथ जाने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन रोमांच और जोखिम लेने का शौक रखने वाले लोग इस मार्ग से यात्रा करना पसंद करते हैं। इस मार्ग से जाने वाले लोग अपने जोखिम पर यात्रा करते है। रास्ते में किसी अनहोनी के लिए भारत सरकार जिम्मेदारी नहीं लेती है।
मै जोखिम नहीं उठाता हु और आपसे भी यही आशा करता हु, क्योकि जीवन अनमोल है, पहलगाम तक जाने के लिए जम्मू-कश्मीर पयर्टन केंद्र से सरकारी बस हमेशा उपलब्ध रहती है। पहलगाम में गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था हमेशा की जाती है। तीर्थयात्रियो की पैदल यात्रा यहीं से आरंभ होती है। पहलगाम के बाद पहला पड़ाव चंदनबाड़ी है, जो पहलगाम से आठ किलोमीटर कीदुरी पर है। पहली रात तीर्थयात्री यहीं बिताते हैं। यहाँ रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं। लिद्दर नदी के किनारे-किनारे पहले चरण की यह यात्रा ज्यादा किठन नहीं है। चंदनबाड़ी से १४ किलोमीटर दूर शेषनाग में अगला पड़ाव रहता है। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और खतरनाक भी है। यहीं पर पिस्सू घाटी के दशर्न होते हैं। फिर उसके बाद यात्री शेषनाग पहँच कर ताजादम होते हैं। यहाँ पवर्तमालाओं के बीच नीले पानी की एक खुबसूरत झील है। यह झील करीब डेढ़ किलोमीटर लम्बाई में फैली है। मान्यताओ के अनुसार शेषनाग झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दशर्न देते हैं। तीर्थयात्री यहाँ रात्रि विश्राम करते हैं और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते हैं।
शेषनाग से अगला पड़ाव पंचतरणी आठ मील के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे को पार करना पड़ता हैं, महागुणास चोटी से पंचतरणी तक का सारा रास्ता उतराई का है। पांच छोटी-छोटी सरिताए बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पड़ा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चोटियों से ढका है। ऊँचाई की वजह से ठंड भी ज्यादा होती है। ऑक्सीजन की कमी की वजह से तीर्थयात्रियो को यहाँ सुरक्षा के इंतजाम करने पड़ते हैं।
अमरनाथ की गुफा यहाँ से केवल आठ किलोमीटर दूर रह जाती हैं रस्ते में बर्फ ही बर्फ जमी रहती है। इसी दिन गुफा के नजदीक पहुँच कर पड़ाव डाल रात बिता सकते हैं और दुसरे दिन सुबह बाबा भोलेनाथ के वास स्थान अमरनाथ पहुच कर, उनके दर्शन कर, पूजा अर्चन कर पंचतरणी लौटा जा सकता है। यह यात्रा काफी कठिन है, लेकिन अमरनाथ की पवित्र गुफा में पहुचते ही सफ़र की सारी थकान पल भर में छू मंतर हो जाती है और मन को अद्भुत आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है।
आशा है आपको मेरे द्वारा करायी गयी शब्दों की ये यात्रा पसंद आई होगी और आपके मन में भी एक बार वास्तविक यात्रा करने की हसरत जरूर जगी होगी।
अमरनाथ हिन्दुओ का एक प्रमुख शिव तीर्थ स्थल है। जो की कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर के उत्तर-पूर्व में १३५ किलोमीटर दूर समुद्रतल से १३,६०० फुट की ऊँचाई पर स्थित है। इस गुफा की लंबाई (भीतर की ओर ) १९ मीटर और चौड़ाई १६ मीटर है जबकि ऊंचाई ११ मीटर है।
इश धाम की प्रमुख विशेषता गुफा में बर्फ से प्राकृतिक शिवलिंग निर्मित होना है। आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षाबंधन तक पूरे सावन महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंग दशर्न के लिए लाखो लोग यहां आते है। गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है जिसमे ऊपर से बर्फ के पानी की बूँदें जगह-जगह टपकती रहती हैं। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमे टपकने वाली हिम बूँदों से लगभग दस फुट लंबा शिवलिंग बनता है। चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ इस शिवलिंग का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है।श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावश्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। आश्चर्य की बात यही है की यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है, जबिक गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पारवती जी के वैसे ही अलग अलग हिमखंड हैं।
अमरनाथ के बारे में कई जनस्रुतिया भी प्रचलित है जैसे की इसी गुफा में माता पावर्ती को भगवान शिव ने अमरकथा सुनाई थी, जिसे सुनकर सद्योजात शुक-शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गये थे। गुफा में आज भी स्रधालुओ को कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई दे जाता है, जिन्हें स्रधालु अमर पक्षी बताते हैं। मान्यता है वे भी अमरकथा सुनकर अमर हुए हैं। कहा जाता है की जिन स्रधालुओ को कबूतरों का जोड़ा दिखाई देता है, उन्हें शिव पावर्ती अपने प्रत्यक्ष दशर्नों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं। यह भी माना जाता है की भगवान शिव ने अर्धांगिनी पावर्ती को इस गुफा में एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमे अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में अमरकथा नाम से विख्यात हुई।
पूरे यात्रा पथ के बारे में कुछ विद्वानों का भी मत है की भगवान शंकर जब पावर्ती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने छोटे-छोटे अनंत नागों को अनंतनाग में छोड़ा, माथे के चंदन को चंदनबाड़ी में उतारा, अन्य पिस्सुओ को पिस्सू टॉप पर और गले के शेषनाग को शेषनाग नामक स्थल पर छोड़ा था। ये तमाम स्थल अब भी अमरनाथ यात्रा में आते हैं।
अमरनाथ गुफा का सबसे पहले पता सोलहवीं शताब्दी के पूवार्ध में एक मुसलमान गडरिये को चला था। आज भी मंदिर का चौथाई चढ़ावा उस मुसलमान गडरिये के वंशजों को मिलता है। आश्चर्य की बात यह है की अमरनाथ गुफा एक नहीं है। अमरावती नदी के पथ पर आगे बढ़ते समय और भी कई छोटी-बड़ी गुफाएं दिखाई देती हैं। वे सभी बर्फ से ढकी हैं। अमरनाथ पर जाने के दो रस्ते हैं। एक पहलगाम होकर और दूसरा सोनमर्ग बटलाल से। पहलगाम और बलटाल तक आप किसी भी सवारी से पहुँचें, यहाँ से आगे जाने के लिए अपने पैरों का ही इस्तेमाल करना होगा। अशक्त या वृद्धों के लिए सवारियों का प्रबंध किया जा सकता है। पहलगाम से जानेवाले रास्ते को सरल और सुविधाजनक समझा जाता है। बलटाल से अमरनाथ गुफा की दुरी केवल १४ किलोमीटर है पर यह बहुत ही दुर्गम रास्ता है और सुरक्षा की दृष्टी से भी खतरनाक है। इशिलिये सरकार इस मार्ग को सुरक्षित नहीं मानती है और अधिकतर यात्रियों को पहलगाम के रास्ते अमरनाथ जाने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन रोमांच और जोखिम लेने का शौक रखने वाले लोग इस मार्ग से यात्रा करना पसंद करते हैं। इस मार्ग से जाने वाले लोग अपने जोखिम पर यात्रा करते है। रास्ते में किसी अनहोनी के लिए भारत सरकार जिम्मेदारी नहीं लेती है।
मै जोखिम नहीं उठाता हु और आपसे भी यही आशा करता हु, क्योकि जीवन अनमोल है, पहलगाम तक जाने के लिए जम्मू-कश्मीर पयर्टन केंद्र से सरकारी बस हमेशा उपलब्ध रहती है। पहलगाम में गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था हमेशा की जाती है। तीर्थयात्रियो की पैदल यात्रा यहीं से आरंभ होती है। पहलगाम के बाद पहला पड़ाव चंदनबाड़ी है, जो पहलगाम से आठ किलोमीटर कीदुरी पर है। पहली रात तीर्थयात्री यहीं बिताते हैं। यहाँ रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं। लिद्दर नदी के किनारे-किनारे पहले चरण की यह यात्रा ज्यादा किठन नहीं है। चंदनबाड़ी से १४ किलोमीटर दूर शेषनाग में अगला पड़ाव रहता है। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और खतरनाक भी है। यहीं पर पिस्सू घाटी के दशर्न होते हैं। फिर उसके बाद यात्री शेषनाग पहँच कर ताजादम होते हैं। यहाँ पवर्तमालाओं के बीच नीले पानी की एक खुबसूरत झील है। यह झील करीब डेढ़ किलोमीटर लम्बाई में फैली है। मान्यताओ के अनुसार शेषनाग झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दशर्न देते हैं। तीर्थयात्री यहाँ रात्रि विश्राम करते हैं और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते हैं।
शेषनाग से अगला पड़ाव पंचतरणी आठ मील के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे को पार करना पड़ता हैं, महागुणास चोटी से पंचतरणी तक का सारा रास्ता उतराई का है। पांच छोटी-छोटी सरिताए बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पड़ा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चोटियों से ढका है। ऊँचाई की वजह से ठंड भी ज्यादा होती है। ऑक्सीजन की कमी की वजह से तीर्थयात्रियो को यहाँ सुरक्षा के इंतजाम करने पड़ते हैं।
अमरनाथ की गुफा यहाँ से केवल आठ किलोमीटर दूर रह जाती हैं रस्ते में बर्फ ही बर्फ जमी रहती है। इसी दिन गुफा के नजदीक पहुँच कर पड़ाव डाल रात बिता सकते हैं और दुसरे दिन सुबह बाबा भोलेनाथ के वास स्थान अमरनाथ पहुच कर, उनके दर्शन कर, पूजा अर्चन कर पंचतरणी लौटा जा सकता है। यह यात्रा काफी कठिन है, लेकिन अमरनाथ की पवित्र गुफा में पहुचते ही सफ़र की सारी थकान पल भर में छू मंतर हो जाती है और मन को अद्भुत आत्मिक आनन्द की अनुभूति होती है।
आशा है आपको मेरे द्वारा करायी गयी शब्दों की ये यात्रा पसंद आई होगी और आपके मन में भी एक बार वास्तविक यात्रा करने की हसरत जरूर जगी होगी।
अपनों से अपनों की लड़ाई: नक्सलवाद
नक्सलवादी हमले में छत्तीसगड़ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नंद कुमार पटेल
और उनके बड़े बेटे समेत 29 लोगों की मौत ने जहाँ पूरे देश को दहला दिया
वहीं यह बहस एक बार फिर छिड़ गई कि कैसे इस समस्या से निपटा जाए। सरकार और
समाज दोनों इस बहस में एक साथ शरीक़ हो गए। कोई कह रहा है कि इस समस्या से
निपटने के लिए वार्ता का हल ढूंढा जाए तो कोई इस बात पर बल दे रहा है कि
नक्सलियों के ख़ात्मे के लिए सैन्य बलों का प्रयोग किया जाए। लेकिन बड़ा सवाल
यह है कि यह समस्या केवल एक क्षेत्र विशेष की नहीं बल्कि अब देश के आधे से
ज़्यादा भू-भाग की बन चुकी है। आधे से ज़्यादा प्रदेशों में नक्सली अपनी
जड़ें जमा चुके हैं। इसके लिए यह नहीं कहा जा सकता कि सैन्य बलों के प्रयोग
से समस्या को ख़त्म किया जा सकता है। योजना आयोग ने 2006 में नक्सलवाद की
समस्या से निपटने के लिए डी.बंद्योपाध्याय की अध्यक्षता में एक समिति का
गठन किया था। समिति ने अप्रैल 2008 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी।
समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि किस तरह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और
सांस्कृतिक रूप से आदिवासी, दलित समाज पीड़ित है। उनकी समस्या को हल करने
के लिए नक्सली तुरंत आगे आते हैं। ऐसे में नक्सलियों को उन लोगों का समर्थन
प्राप्त है जो समाज में दबे-कुचले हैं। इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा
गया है कि ग़रीबी और शोषण का नक्सलवाद से सीधा संबंध है। कुछ विश्लेषकों का
मानना है कि इस रिपोर्ट के किसी भी पहलू पर ख़ास ध्यान नहीं दिया गया और
परिणाम यह हुआ कि नक्सलवाद लगातार बढ़ता गया। छत्तीसगढ़ में सुकुमा जिले की
घटना से बहस ज़रूर शुरू हुई। सरकार की ज़ीम्मेदारी है कि इस समस्या से
निपटने के लिए कोई ठोस पहल करे। केवल आरोप-प्रत्यारोप लगाने से समाधान संभव
नहीं है। सरकार को सुनियोजित तरीक़े से नक्सलवाद को रोकने में जुटना होगा।
विकास और सुनियोजित पुलिस कार्रवाई की रणनीति पर बल देना होगा, जिसमें
विकास सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। अगर विकास की बात सरकारें पहले से ही कर
रही होती तो शायद यह समस्या इतना विकराल रूप नहीं ले पाती। सरकार को भी पता
है कि समस्या की जड़ कुछ न कुछ है। लेकिन उस जड़ को ख़त्म करने के लिए सरकार
किस प्रकार का समाधान कर रही है वह तो सरकार ही बता सकती है। कुछ विश्लेषक
मानते हैं कि देश में बढ़ते नक्सलवाद के लिए सीधे तौर पर सरकार ज़िम्मेदार
है। उनके मुताबिक़ सरकार अगर यह सोचती है कि केवल सेना के बल पर इसको क़ाबू
किया जा सकता है तो यह संभव नहीं है। इससे तो नक्सलवाद और हिंसक हो जाएगा।
गृहमंत्री शिंदे इस समस्या से निपटने के लिए राज्य सरकारों के सहयोग की बात
करते हैं। सरकारें सहयोग करें यह बात तो क़ाफ़ी हद तक ठीक है लेकिन
नक्सलियों का कहर अगर सरकारें दूर कर पातीं तो शायद नक्सलवाद पनप नहीं
पाता। नक्सलवाड़ी से शुरू हुआ आंदोलन आज देश भर के 150 से अधिक ज़िलों में
फैल चुका है। ऐसा क्यों हुआ? आज़ादी के बाद का यह सबसे बड़ा आंदोलन समझा जा
रहा है लेकिन इस आंदोलन में जो हिंसा का वीभत्स चेहरा दिख रहा है उसे दबाने
के लिए सरकार क्या कर रही है उस पर विचार किए जाने की ज़रूरत है। जब भी कोई
घटना होती है जाँच कमेटी बना दी जाती है या फिर एक-दूसरे पर दोषारोपण किया
जाता है।
उनकी राय यही है कि नक्सली समस्या से निपटने के लिए वार्ता ही एकमात्र विकल्प है। क्योंकि नक्सली यह मान चुके हैं कि अगर सरकार हथियार उठाएगी तो वे भी किसी से कम नहीं है। बीते एक दशक की घटनाएँ इस बात की गवाह हैं कि नक्सलियों से गोली से निपटना आसान नहीं है। उनकी तादात भी कम नहीं है। अगर उनको कम करके आँका गया तो मामला क़ाफ़ी गंभीर हो सकता है। ऐसे में सरकार के फ़ैसले पर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं। नक्सलियों से वार्ता के लिए लगातार पहल की जा रही है। लेकिन इससे पहले इस बात को समझने की ज़रूरत है कि आख़िर नक्सलवाद क्यों पनपा है।
नक्सलवाद कम्युनिस्ट पार्टी के क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरुप उत्पन्न हुआ। नक्सलवाद की शुरुआत 1948 में तेलंगाना-संघर्ष के नाम से किसानों के सशस्त्र विद्रोह से हुई थी। भारत-चीन युद्ध 1962 के बाद 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी साम्यवाद की रूसी और चीनी विचारधारा और रणनीति के मतभेदों के कारण दो गुटों में विभाजित हो गई। चीनी विचारधारा वाले गुट ने माक्सस्ट कम्युनिस्ट पार्टी के नाम से नई पार्टी बनाकर अनुकूल क्रांतिकारी परिस्थिति के आने तक सशस्त्र संघर्ष को टालकर चुनाव में भाग लेना तय किया। जब उसने 1967 के चुनाव में भाग लेकर बंगाल कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल में संविद सरकार बनाई तब चारू मजूमदार ने माक्सस्ट कम्युनिस्ट पार्टी पर क्रांति के साथ विश्वासघात और नवसाम्राज्यवादी, सामंती तथा पूंजीवादी व्यवस्था का दलाल होने का आरोप लगाकर माक्र्स-लेनिन-माओ की विचारधारा के आधार पर नया गुट बना लिया। इसी वर्ष दार्जिलिंग जिले के एक गांव नक्सलबाड़ी में जब एक वनवासी युवक न्यायालय के आदेश पर अपनी जमीन जोतने गया तो उस पर जमींदारों के गुंडों ने हमला कर दिया। किसानों ने कानू सान्याल और चारू मजूमदार के नेतृत्व में जमींदारों के कब्जे की जमीन छीनने का सशस्र संघर्ष छेड़ दिया। नक्सलबाड़ी गांव से शुरू होने के कारण इस संघर्ष को नक्सलवाद कहा जाने लगा। मजूमदार चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ-त्से-तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से एक थे। मजूमदार का मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं। जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और परिणामस्वरुप कृषि तंत्र पर दबदबा हो गया हैं यह सिर्फ़ सशस्त्र क्रांति से ही ख़त्म किया जा सकता है। 1967 में नक्सलवादियों ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गए। अलग होने के बाद उन्होंने सरकार के ख़िलाफ़ भूमिगत लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह और मजूमदार की मृत्यु के बाद इस आंदोलन की बहुत-सी शाखाएँ हो गईं और आपस में प्रतिद्वंदिता करने लगी। आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गई हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेती हैं। लेकिन बहुत से संगठन अभी भी छुपकर लड़ाई करने में लगे हुए हैं। नक्सलवाद की सबसे बड़ी मार आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल और बिहार को झेलनी पड़ रही है।
पर मेरे हिसाब से नक्सलवाद का खात्मा जमीदारों, पूंजीपतियों के हितों की रक्षा हेतु पुलिस-बल बढ़ाकर नहीं बल्कि जन-सापेक्ष विकास द्वारा जनता की ताकत बढ़ाकर ही किया जा सकता है, हिंसा तथा जवाबी प्रतिहिंसा से इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता। इसका हल बातचीत से ही संभव है।
किंजल कुमार
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उनकी राय यही है कि नक्सली समस्या से निपटने के लिए वार्ता ही एकमात्र विकल्प है। क्योंकि नक्सली यह मान चुके हैं कि अगर सरकार हथियार उठाएगी तो वे भी किसी से कम नहीं है। बीते एक दशक की घटनाएँ इस बात की गवाह हैं कि नक्सलियों से गोली से निपटना आसान नहीं है। उनकी तादात भी कम नहीं है। अगर उनको कम करके आँका गया तो मामला क़ाफ़ी गंभीर हो सकता है। ऐसे में सरकार के फ़ैसले पर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं। नक्सलियों से वार्ता के लिए लगातार पहल की जा रही है। लेकिन इससे पहले इस बात को समझने की ज़रूरत है कि आख़िर नक्सलवाद क्यों पनपा है।
नक्सलवाद कम्युनिस्ट पार्टी के क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरुप उत्पन्न हुआ। नक्सलवाद की शुरुआत 1948 में तेलंगाना-संघर्ष के नाम से किसानों के सशस्त्र विद्रोह से हुई थी। भारत-चीन युद्ध 1962 के बाद 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी साम्यवाद की रूसी और चीनी विचारधारा और रणनीति के मतभेदों के कारण दो गुटों में विभाजित हो गई। चीनी विचारधारा वाले गुट ने माक्सस्ट कम्युनिस्ट पार्टी के नाम से नई पार्टी बनाकर अनुकूल क्रांतिकारी परिस्थिति के आने तक सशस्त्र संघर्ष को टालकर चुनाव में भाग लेना तय किया। जब उसने 1967 के चुनाव में भाग लेकर बंगाल कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल में संविद सरकार बनाई तब चारू मजूमदार ने माक्सस्ट कम्युनिस्ट पार्टी पर क्रांति के साथ विश्वासघात और नवसाम्राज्यवादी, सामंती तथा पूंजीवादी व्यवस्था का दलाल होने का आरोप लगाकर माक्र्स-लेनिन-माओ की विचारधारा के आधार पर नया गुट बना लिया। इसी वर्ष दार्जिलिंग जिले के एक गांव नक्सलबाड़ी में जब एक वनवासी युवक न्यायालय के आदेश पर अपनी जमीन जोतने गया तो उस पर जमींदारों के गुंडों ने हमला कर दिया। किसानों ने कानू सान्याल और चारू मजूमदार के नेतृत्व में जमींदारों के कब्जे की जमीन छीनने का सशस्र संघर्ष छेड़ दिया। नक्सलबाड़ी गांव से शुरू होने के कारण इस संघर्ष को नक्सलवाद कहा जाने लगा। मजूमदार चीन के कम्युनिस्ट नेता माओ-त्से-तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से एक थे। मजूमदार का मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं। जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और परिणामस्वरुप कृषि तंत्र पर दबदबा हो गया हैं यह सिर्फ़ सशस्त्र क्रांति से ही ख़त्म किया जा सकता है। 1967 में नक्सलवादियों ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गए। अलग होने के बाद उन्होंने सरकार के ख़िलाफ़ भूमिगत लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह और मजूमदार की मृत्यु के बाद इस आंदोलन की बहुत-सी शाखाएँ हो गईं और आपस में प्रतिद्वंदिता करने लगी। आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गई हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेती हैं। लेकिन बहुत से संगठन अभी भी छुपकर लड़ाई करने में लगे हुए हैं। नक्सलवाद की सबसे बड़ी मार आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल और बिहार को झेलनी पड़ रही है।
पर मेरे हिसाब से नक्सलवाद का खात्मा जमीदारों, पूंजीपतियों के हितों की रक्षा हेतु पुलिस-बल बढ़ाकर नहीं बल्कि जन-सापेक्ष विकास द्वारा जनता की ताकत बढ़ाकर ही किया जा सकता है, हिंसा तथा जवाबी प्रतिहिंसा से इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता। इसका हल बातचीत से ही संभव है।
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