रोबिन दास की उम्र चौदह साल है, पर वह उससे काफी छोटा दिखता है। उसके पिता रंग का काम करते हैं, हालांकि रोबिन की जिंदगी में बहुत ज्यादा रंग नहीं हैं। जिंदगी की जद्दोजहद ने उसे इतना दुनियादार बना दिया है कि कम्युनिटी रेडियो के अपने हमउम्र साथियों की तुलना में वह कम खुलता है। केवल रोबिन ही क्यों, बस्तियों की लड़कियां पूजा, सुपर्णा और सावित्री मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आईं पौलमी या कन्याश्री की तुलना में चुपचाप दिखती हैं। मध्यवर्गीय परिवारों की शहरी लड़कियों की तुलना में इनमें एहसास-ए-कमतरी साफ-साफ दिखाई देती है।
चौदह की इस उम्र में ही रोबिन ने ग्राहकों को चाय पहुंचाने से लेकर परांठे की दुकान में नौकरी तक वे तमाम काम कर लिए हैं, जो आदमी को गुमसुम बना देते हैं। बीच में वह अपने पिता के काम में भी हाथ बंटाता था। रोबिन की छोटी बहन स्कूल में उससे एक कक्षा ऊपर है। चूंकि रोबिन को रोजगार और पढ़ाई में किसी एक को चुनना था, इसलिए औपचारिक शिक्षा से वह बाद में ही जुड़ पाया। कम्युनिटी रेडियो के लिए नाटक करते हुए वह जिन इलाकों में जाता है, वहां दरिद्रता, अव्यवस्था और सामाजिक कुरीतियों के कई रूपों से उसका सामना होता है। इन हालात ने रोबिन को आशंकित कर दिया है कि मुफलिसी के बीच पत्रकार बनने का उसका सपना पूरा हो भी पाएगा या नहीं।
यूनिसेफ ने कोलकाता के रामकृष्ण मिशन ब्लाइंड बॉयज अकादमी के कुछ किशोरों को भी इस परियोजना से जोड़ा है। ये लड़के हालांकि ऊर्जा और जिजीविषा से भरपूर हैं, लेकिन व्यवस्थागत खामियों का खामियाजा भुगतते ये बच्चे आगे कितनी दूर तक जा पाएंगे, कह नहीं सकते। कम्युनिटी रेडियो से जुड़ी स्टूडेंट वॉलंटियर अनिंदिता राय की शिकायत है कि शारीरिक रूप से विपन्न बच्चों के लिए स्थापित संस्थाएं अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से दूर भाग रही हैं। यूथ वॉलंटियर सुरंजिता मुखर्जी का भी कहना है कि हाशिये के बच्चों को सामाजिक रूप से सशक्त बनाने के मामले में स्कूलों से बेहतर काम तो एनजीओ कर रहे हैं। इन आरोपों के जवाब में रामकृष्ण मिशन ब्लाइंड बॉयज स्कूल के प्रिसिंपल विश्वजीत घोष कहते हैं, ‘अपनी ओर से बेहतर कोशिश करने के बावजूद ढांचागत सुविधाओं का अभाव तो है ही। मसलन, लो विजन मैथड की शुरुआत स्कूल में पिछले साल ही हुई है, जबकि इसकी जरूरत बहुत पहले से थी। सरकार हमें वेतन देने के अलावा कोई और जिम्मेदारी उठाने से यथासंभव बचना चाहती है। ऐसे में स्कूल क्या करे?’
एक ओर जहां हाशिये के लोगों के प्रति सरकारी उपेक्षा का परिचय कदम-कदम पर दिखता है, वहीं कम्युनिटी रेडियो के जरियेसामाजिक रूप से सशक्त बनाने की प्रक्रिया में इन बच्चियों को जान-बूझकर राजनीति से दूर रखा जा रहा है। जबकि पश्चिम बंगाल राजनीतिक रूप से देश के सर्वाधिक सजग राज्यों में से है। इसलिए भले ही स्टूडियो में ये बच्चियां राजनीतिक चर्चा से दूर रहें, लेकिन सड़कों पर इंटरव्यू करते हुए, दूर बस्तियों में नाटक करते हुए या कहीं आते-जाते हुए वे राजनीतिक चर्चाओं से अछूती नहीं रहतीं। वे भले ही यह नहीं बता सकतीं कि पश्चिम बंगाल में सत्ता परिवर्तन के इन कुछ महीनों के दौरान वाम मोरचे के पक्ष या विपक्ष में कैसी हवा है, लेकिन वे इस दौरान हुए बदलाव को बखूबी देख और बता सकती हैं।
जैसे कन्याश्री बताती है कि बर्द्धवान में रहने वाले उसके रिश्तेदारों के यहां बिजली और सप्लाई का पानी अब आया है। जाहिर है, आम आदमी की बेहतरी की बात करने वाले वाम मोरचे के लंबे शासन में बुनियादी सुविधाओं की घनघोर उपेक्षा हुई है। वहां नवजात बच्चों की लगातार मौतों को अस्पतालों की गलती मान लेना दरअसल समस्या का सरलीकरण करना होगा। यह स्वास्थ्य सुविधाओं के मोरचे पर दशकों की उदासीनता का नतीजा है। चर्चित साहित्यकार महाश्वेता देवी कहती हैं, ‘वाम मोरचे के शासन के दौरान बुनियादी सुविधाओं की ओर बहुत कम ध्यान दिया गया। इसलिए नई सरकार को पेयजल, बिजली, स्वास्थ्य आदि के मामले में गंभीरता का परिचय देना ही होगा।’
इसमें संदेह नहीं कि सामाजिक बदलाव उतना आसान नहीं है। आखिर पिछले ही दिनों तमलुक में रोबिन की उम्र के सौ-पचास किशोर लाठी-डंडे के जोर पर राहगीरों से काली पूजा का चंदा वसूलते देखे गए थे। लेकिन कम्युनिटी रेडियो से जुड़े संतोषपुर, गरिफा और हृदयपुर के इन बच्चों ने अपने आसपास से ही परिवर्तन की जो मुहिम शुरू की है, उससे उम्मीद बंधती है।
The article is downloaded from google web.... With heartily, thankfully Regards.... If any One have problem using with this article, so please call or mail us with your detail, we unpublished or delete this Article.
चौदह की इस उम्र में ही रोबिन ने ग्राहकों को चाय पहुंचाने से लेकर परांठे की दुकान में नौकरी तक वे तमाम काम कर लिए हैं, जो आदमी को गुमसुम बना देते हैं। बीच में वह अपने पिता के काम में भी हाथ बंटाता था। रोबिन की छोटी बहन स्कूल में उससे एक कक्षा ऊपर है। चूंकि रोबिन को रोजगार और पढ़ाई में किसी एक को चुनना था, इसलिए औपचारिक शिक्षा से वह बाद में ही जुड़ पाया। कम्युनिटी रेडियो के लिए नाटक करते हुए वह जिन इलाकों में जाता है, वहां दरिद्रता, अव्यवस्था और सामाजिक कुरीतियों के कई रूपों से उसका सामना होता है। इन हालात ने रोबिन को आशंकित कर दिया है कि मुफलिसी के बीच पत्रकार बनने का उसका सपना पूरा हो भी पाएगा या नहीं।
यूनिसेफ ने कोलकाता के रामकृष्ण मिशन ब्लाइंड बॉयज अकादमी के कुछ किशोरों को भी इस परियोजना से जोड़ा है। ये लड़के हालांकि ऊर्जा और जिजीविषा से भरपूर हैं, लेकिन व्यवस्थागत खामियों का खामियाजा भुगतते ये बच्चे आगे कितनी दूर तक जा पाएंगे, कह नहीं सकते। कम्युनिटी रेडियो से जुड़ी स्टूडेंट वॉलंटियर अनिंदिता राय की शिकायत है कि शारीरिक रूप से विपन्न बच्चों के लिए स्थापित संस्थाएं अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से दूर भाग रही हैं। यूथ वॉलंटियर सुरंजिता मुखर्जी का भी कहना है कि हाशिये के बच्चों को सामाजिक रूप से सशक्त बनाने के मामले में स्कूलों से बेहतर काम तो एनजीओ कर रहे हैं। इन आरोपों के जवाब में रामकृष्ण मिशन ब्लाइंड बॉयज स्कूल के प्रिसिंपल विश्वजीत घोष कहते हैं, ‘अपनी ओर से बेहतर कोशिश करने के बावजूद ढांचागत सुविधाओं का अभाव तो है ही। मसलन, लो विजन मैथड की शुरुआत स्कूल में पिछले साल ही हुई है, जबकि इसकी जरूरत बहुत पहले से थी। सरकार हमें वेतन देने के अलावा कोई और जिम्मेदारी उठाने से यथासंभव बचना चाहती है। ऐसे में स्कूल क्या करे?’
एक ओर जहां हाशिये के लोगों के प्रति सरकारी उपेक्षा का परिचय कदम-कदम पर दिखता है, वहीं कम्युनिटी रेडियो के जरियेसामाजिक रूप से सशक्त बनाने की प्रक्रिया में इन बच्चियों को जान-बूझकर राजनीति से दूर रखा जा रहा है। जबकि पश्चिम बंगाल राजनीतिक रूप से देश के सर्वाधिक सजग राज्यों में से है। इसलिए भले ही स्टूडियो में ये बच्चियां राजनीतिक चर्चा से दूर रहें, लेकिन सड़कों पर इंटरव्यू करते हुए, दूर बस्तियों में नाटक करते हुए या कहीं आते-जाते हुए वे राजनीतिक चर्चाओं से अछूती नहीं रहतीं। वे भले ही यह नहीं बता सकतीं कि पश्चिम बंगाल में सत्ता परिवर्तन के इन कुछ महीनों के दौरान वाम मोरचे के पक्ष या विपक्ष में कैसी हवा है, लेकिन वे इस दौरान हुए बदलाव को बखूबी देख और बता सकती हैं।
जैसे कन्याश्री बताती है कि बर्द्धवान में रहने वाले उसके रिश्तेदारों के यहां बिजली और सप्लाई का पानी अब आया है। जाहिर है, आम आदमी की बेहतरी की बात करने वाले वाम मोरचे के लंबे शासन में बुनियादी सुविधाओं की घनघोर उपेक्षा हुई है। वहां नवजात बच्चों की लगातार मौतों को अस्पतालों की गलती मान लेना दरअसल समस्या का सरलीकरण करना होगा। यह स्वास्थ्य सुविधाओं के मोरचे पर दशकों की उदासीनता का नतीजा है। चर्चित साहित्यकार महाश्वेता देवी कहती हैं, ‘वाम मोरचे के शासन के दौरान बुनियादी सुविधाओं की ओर बहुत कम ध्यान दिया गया। इसलिए नई सरकार को पेयजल, बिजली, स्वास्थ्य आदि के मामले में गंभीरता का परिचय देना ही होगा।’
इसमें संदेह नहीं कि सामाजिक बदलाव उतना आसान नहीं है। आखिर पिछले ही दिनों तमलुक में रोबिन की उम्र के सौ-पचास किशोर लाठी-डंडे के जोर पर राहगीरों से काली पूजा का चंदा वसूलते देखे गए थे। लेकिन कम्युनिटी रेडियो से जुड़े संतोषपुर, गरिफा और हृदयपुर के इन बच्चों ने अपने आसपास से ही परिवर्तन की जो मुहिम शुरू की है, उससे उम्मीद बंधती है।
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