प्रथम स्वतंत्रता दिवस के मौके पर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने दृढ़
प्रतिज्ञा लेते हुए यह घोषणा की थी कि हम निश्चय ही एक शक्तिशाली भारत का
निर्माण करेंगे। यह भारत न केवल विचारों में, कार्यो में और संस्कृति में
शक्तिशाली होगा, बल्कि मानवता की सेवा के मामले में भी आगे होगा। लेकिन
क्या हम ऐसा सचमुच कर पाए? क्या हमने एक ऐसे भारत का निर्माण नहीं किया है,
जो विचारों में सतही, कार्यो में अकुशल, संस्कृति में उथला और मानवता की
सेवा में कमजोर है?
14-15 अगस्त की अर्द्धरात्रि में अपने ऐतिहासिक भाषण में नेहरू ने भरपूर जोश के साथ अपने काव्यात्मक अंदाज में कहा, 'मध्यरात्रि की इस बेला में, जबकि पूरा विश्व सोया हुआ है, भारत स्वतंत्रता और नए जीवन के लिए जगेगा। यह एक ऐसा क्षण है, जो इतिहास में बहुत ही दुर्लभ होता है। यह एक ऐसा क्षण है, जब हम पुराने से नए में प्रवेश कर रहे हैं। यह एक नए युग का आरंभ है। यह एक ऐसा समय है, जब वर्षो से दमित राष्ट्र की आत्मा फिर से जागने जा रही है।' परंतु भारत क्या वास्तव में जगा और अपनी आत्मा को नई अभिव्यक्ति दे सका? क्या यह सच नहीं है कि जगी हुई भारत की आत्मा को फिर से सुला दिया गया और इस पर दमन की और परतें चढ़ा दी गई?
हमने अपने लिए एक संविधान का निर्माण किया और भारत में संप्रभुतासंपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य की धारणा को स्थापित किया गया। परंतु यहां लोकतांत्रिक गणराज्य की बजाय वंशवादी प्रभुत्व है, संप्रभुता का उपयोग विधायिका में चुने गए अपराधी कर रहे हैं और इसी तरह पंथनिरपेक्षता का व्यावहारिक उपयोग जाति और समूह के आधार पर राजनीतिक निर्णयों में देखा जा सकता है। इसी तरह समाजवाद की धारणा आज उच्चतम आय यानी असमानता का कारण बन रही है?
हमारे राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न के नीचे सत्यमेव जयते यानी सत्य की ही विजय होती है, लिखा हुआ है। आखिर क्या वजह है कि असत्य का साम्राज्य फैला हुआ है और लोगों पर लग रहे कलंक और झूठ को लेकर बहसें हो रही हैं? झंडे में बना चक्र हमारी प्राचीन संस्कृति का प्रतीक है, लेकिन क्या हम आज अपनी प्राचीन संस्कृति की जड़ों पर ध्यान दे रहे हैं?
आज स्वच्छ, मजबूत, रचनात्मक, सकारात्मक, प्रतिबद्ध और समर्पित शासकीय मशीनरी की आवश्यकता है। इसकी बजाय हम अपने आसपास भ्रष्ट, सामान्य, अकुशल और संघर्ष में उलझी हुई प्रशासकीय तंत्र पाते हैं, जो राष्ट्र के सामने खड़ी गंभीर चुनौतियों, संकटों को सुलझा पाने में असक्षम हैं। फिर चाहे मामला आतंकवाद का हो या सामाजिक व आर्थिक वंचना का?
सरकार लगातार प्रचार कर रही है कि उसका लक्ष्य 8-10 प्रतिशत आर्थिक विकास हासिल करना है, हालांकि इससे महज 4-5 फीसदी लोगों को ही लाभ होना है, फिर हमारी सरकार मात्र इतने से खुश क्यों हो रही है? भारत में अब भी सर्वाधिक गरीबों और निरक्षर लोगों का देश बना हुआ है। कुपोषण से ग्रस्त लोगों की संख्या के मामले में भी हम विश्व में सबसे आगे हैं।
यूएनडीपी द्वारा जारी मानव विकास सूचकांक वाले देशों की सूची में भी भारत काफी नीचे 134वें स्थान पर है।
संभवत: कुछ क्षेत्रों में हम बाकी से आगे भी हैं, लेकिन यह प्रगति हमारी जरूरतों और क्षमता के मुकाबले काफी कम है। इसी तरह क्या हम विकास की कीमत अपनी स्थिरता, अखंडता और अपनी संस्कृति की कीमत पर नहीं कर रहे हैं? ऐसा क्यों हो रहा है कि हमारा बौद्धिक और नैतिक पतन तेजी से हो रहा है?
आज हम क्यों नहीं विवेकानंद, महर्षि अरविंद, टैगोर, राममोहन और रानाडे जैसे महान सुधारकों और राष्ट्र निर्माता व चेतना को परिष्कृत करने वाले लोगों को पैदा कर पा रहे हैं। इन प्रश्नों के उत्तर के लिए हमें खुद से प्रश्न पूछना चाहिए कि आजादी के 63 वर्ष बीत जाने पर भी क्यों इतनी विषमताएं उभर रही हैं और जिन क्षेत्रों में प्रकाश फैलना चाहिए था, वहां अंधेरा और गहरा होता गया?
मेरे मस्तिष्क में जो उत्तर उभरता है, वह है 1947 के बाद नेतृत्व की विफलता। स्वतंत्र भारत में एक नई सभ्यता के निर्माण की आवश्यकता थी, जो नहीं हो सका। यह सभ्यतागत मूल्य ही है, जो राज्य के संस्थानों को दिशा देता है, समाज के लोगों में एक मूल्य की स्थापना करता है और दृष्टिकोण देता है यानी लोगों को एक नजरिया देता है। इन मूल्यों की आज महती आवश्यकता है और स्वस्थ मन-मस्तिष्क व आत्मा वाले लोगों को विकसित करने की जरूरत है, जो उपेक्षित हैं।
आज इस बात को भुला दिया गया है कि ईमानदार मन-मस्तिष्क वाले लोगों के बिना ईमानदार प्रशासन का निर्माण संभव नहीं है। सुंदर राष्ट्रीय धारणा के बिना सुंदर राष्ट्रीय महल की नींव नहीं रखी जा सकती।
सभ्यता एक निर्धारित समय में समूचे राष्ट्र की कुल सामाजिक, नैतिक और बौद्धिक उपलब्धियों का योग है। अगस्त 1947 में हमारे भाग्य के निर्णायक मोड़ के समय हमें इस बात का विचार करना चाहिए कि इतिहास के 5000 वर्षो के कालखंड में हमारी सकारात्मक और नकारात्मक बातें कौन-सी रही हैं। हम सभी एक ऐसे सामाजिक और सांस्कृतिक पिंजरे में रहते हैं, जिसका ताना-बाना हमारे अतीत से निर्मित किया गया है।
हालांकि इसकी स्वच्छ हवा की बयार और रोशनी हमें पिंजरे की सलाखों के बीच के खाली स्थान से निरंतर मिलती रहती है। वास्तव में हमारा भूत, भविष्य और वर्तमान इन्हीं जटिल तानों-बानों से बना हुआ है। हम अपने वर्तमान से भूत और भविष्य दोनों को ही देख सकते हैं और इसे देखा भी जाना चाहिए।
महान अंग्रेज कवि टीएस इलियट ने ठीक ही कहा है, 'वर्तमान और भूत दोनों ही भविष्य में समाहित हैं। और हमारा भविष्य हमारे अतीत में समाहित होता है।'
अगर हम अपने अतीत को खंगालें तो हमें बहुत ही मूल्यवान और कीमती चीजें मिल सकती हैं। हालांकि यह अभी दिख नहीं रहीं। हमें अपनी संस्कृति में मौजूद महान विचारों को तलाशना चाहिए। इन महान विचारों और आदर्शो से हम अपने जीवन में भी वैसी ही दिव्यता हासिल कर सकते हैं।
अस्तित्व की एकता और ब्रह्मांड में व्याप्त कॉस्मिक किरणें एक ऐसा तत्व है, जो हमें एक-दूसरे से जोड़ती है। हमें कर्मयोगी होने के महत्व को समझना होगा और बिना किसी लालच या कमजोरी के हमें निस्स्वार्थ कर्तव्य करना होगा।
हमें मैक्समूलर द्वारा कहे गए इस वाक्य पर ध्यान देना चाहिए, 'मानव मस्तिष्क में जीवन की जिस महान समस्या को लेकर गहन चिंतन किया जाता रहा है, उसका उत्तर केवल और केवल मुझे भारत में मिला। यहां मानव इतिहास का सबसे कीमती और रचनात्मक तत्व का खजाना है।'
इन सबसे न केवल समूचा राष्ट्र प्रोत्साहित होता है, बल्कि इससे स्वस्थ लोकतंत्र और सही अर्थो में मानवतावादी और सेवा उन्मुख सामाजिक व्यवस्था का आधार भी हासिल किया जा सकता है।
उदाहरण के तौर पर यह समान दिव्यता सभी लोगों में निहित हो तो न केवल समानता, बल्कि स्वतंत्रता और भ्रातृत्व को भी सुनिश्चित किया जा सकता है। हालांकि इस बात को उपेक्षित नहीं किया जा सकता कि लंबे समय से बहुत सारा कूड़ा-कचरा हममें भरा जा रहा है, जिस कारण हमारा लगातार क्षरण होता गया। अब इन सबको साफ करने की जिम्मेदारी हमें लेनी होगी। इसमें सभी तरह की बुराइयों यथा पंथ, जाति, लिंग भेदभाव जैसी बातों को शामिल करना होगा।
अंततोगत्वा क्या हम अपनी सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत में इन पवित्र, मूल्यवान और कीमती प्राचीन आदर्श और आधुनिक विज्ञान के साथ तालमेल बिठा पाएंगे। हमें अपनी संस्कृति का पुनर्उत्थान और पुनर्सुधार करना होगा। इस तरह की सभ्यता से ही हमें नए भारत, नए मस्तिष्क, नए मिशन और नए संदेश का आधारभूत मूल्य मिलेगा। संभवत: अभी भी बहुत देर नहीं हुआ है, जबकि हम ऐसे सभ्यतागत सुधार द्वारा देश को एक सही दिशा दे सकते हैं।
आजाद नेता, बेडि़यों में जनता
भरत मिश्र प्राची। आज देश के जो हालात सामने हैं, उससे कोई अनभिज्ञ नहीं है। देश की सुरक्षा और अस्मिता दिनोदिन खतरे में पड़ती जा रही है। देश के संवैधानिक पद की भी गरिमा दिन पर दिन धूमिल होती जा रही है। स्वतंत्रता उपरांत स्वयंभू की प्रवृत्ति आज इतनी बढ़ चली है कि राष्ट्रहित से स्वहित सर्वोपरि दिखने लगा है, जबकि स्वतंत्रता पूर्व देश की आजादी की लड़ाई में सभी के दिल में राष्ट्रहित की भावना सर्वोपरि बनी हुई थी। फिर आज यह क्या हो गया?
आजादी मिलते ही हम इतने स्वार्थी हो गए कि आजाद कराने वाले अनेक गुमनाम शहीदों की कुर्बानियों को भूलकर उनके आदर्श सपनों को मटियामेट करते हुए देश की अस्मिता को भी दाव पर लगाते जा रहे है। भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, आतंकवाद, महंगाई, बेईमानी और धोखाधड़ी की घटनाएं बेहिसाब बढ़ती जा रही हैं। इन पर कोई लगाम नहीं है। जनसेवा का संकल्प लिए लोकतंत्र के जनप्रतिनिधि वेतनभोगी हो गए हैं। वे अपनी सेवा का वेतन देश के अन्य वेतनभोगियों की तरह लेने लगे हैं। हत्या, लूट, अपराध में लिप्त लोग आज हमारे जनप्रतिनिधि बनकर लोकतंत्र के पवित्र आगन को अपने अलोकतात्रिक आचरण से अपवित्र किए जा रहे हैं और हम इनका विरोध करने के बजाए अभिनंदन करते जा रहे हैं।
आज कोई संसद-विधानसभा में बाहुबल का खुला प्रयोग कर संविधान की धज्जिया उड़ा रहा है। आज देश फरेबियों के जाल में फंसता जा रहा है।
जाली नोटों का गोरखधंधा इस तरह अपना पग पसार चुका है, जिससे आज रिजर्व बैंक भी अछूता नहीं रहा। नकली सामानों और नकली दवाओं की तो चारों ओर भरमार है। उद्योग धंधे तो बंद होते जा रहे हैं, रोजगार के नाम हर जगह लूट-खसोट की राजनीति पनाह ले रही है। न्याय की तलाश में आज भी लोग भटक रहे हैं, जहा अंग्रेजों की ही नीतिया कायम है। अंग्रेज तो चले गए, पर आज भी अंग्रेजियत हावी है, जिसका खुला नजारा हर सरकारी कार्यालयों और हर संसदीय कार्यवाही में देखने को मिल सकता है। आज इसी कारण देश की संसद ही नहीं, अनेक जगहों का स्वरूप भी विदेशी-सा दिखाई देता है।
आजादी के उपरांत देश में अपहरण, भ्रष्टाचार, बलात्कार, अनैतिकता के मामले दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। आतंकवाद से देश को चुनौतिया मिलने लगी हैं। देश के विकास स्तंभ सरकारी, अर्द्धसरकारी संस्थाएं सफेद हाथी बन चुकी हैं। जो जहा है, वहीं अपने-अपने तरीके से देश को लूट रहा है। आजादी से पूर्व इस देश को विदेशियों ने लूटा, आजादी के बाद देश वाले लूट रहे हैं। फिर देसी-विदेशी, आजादी-गुलामी की परिभाषा इस संदर्भ में किस तरह परिभाषित हो पाएगी, विचार किया जाना चाहिए।
जहा इस तरह के जनप्रतिनिधियों की संख्या लोकतंत्र में बढ़ती जा रही है। जहा आज आम जनता पर विभिन्न तरह के टैक्स के बोझ का दायरा बढ़ता जा रहा है। सुरसा की तरह बढ़ती जा रही महंगाई अनियंत्रित होती जा रही है, वहीं अनेक लोग राजनीतिक छाव में अवैध रूप से धन बटोरने और राजनीतिज्ञों को सुख सुविधा के तमाम संसाधन जुटाने में तत्पर हैं।
देश का सर्वोच्च पद भी स्वार्थ से प्रेरित अनैतिक राजनीति का शिकार बन चुका है। लोकतंत्र के इस सर्वोच्च पद पर भी राजनीतिक शिकंजा कसता नजर आ रहा है। हत्या, अपहरण, अवैध गतिविधियों में लिप्त आज लोकतंत्र के सम्मानित सासद, विधायक हैं। जेल में बंद हैं, फिर भी सासद हैं। जो जंगल में घूम रहे हैं, वे संसद में दिख रहे हैं। आखिर आजादी के बाद उभरे इस तरह के परिदृश्य के लिए कौन जिम्मेवार है?
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या देश के इन्हीं हालातों के लिए लाखों लोगों ने कुर्बानिया दी? इस तरह के उभरते हालातों पर आज मंथन करने की विशेष जरूरत है। वर्ष 1857 से लेकर 9 अगस्त 1947 के मध्य छिड़ी आजादी की जंग पर एक नजर डालें, जहा देश की आजादी के लिए अनोखी जंग छिड़ गई थी। एक तरफ अंग्रेजों को छक्के छुड़ाने वाली लक्ष्मी बाई तो दूसरी ओर जीवन के अंतिम पड़ाव पर पड़े बूढ़े शेर बाबू कुंवर सिंह के बाजुओं की ताकत के आगे निढाल पड़ी अंग्रेजी हुकूमत।
साथ ही साथ देश भक्ति में सराबोर हुए आजादी के दीवानों का जत्था, जिनकी कुर्बानियों के आगे अंग्रेजी हुकूमत को यहा से बिदा होना पड़ा।
हम याद करें, मंगल पाडे की कहानी, जिन्होंने निस्स्वार्थ भाव से अंग्रेजों के विरूद्ध अलख जगाकर आजादी की जंग छेड़ दी। राम प्रसाद विस्मिल, भगत सिंह, आजाद आदि के त्याग एवं बलिदान की कहानी को इतना जल्दी कैसे भूल गए? आज गाधी, बाल गंगाधर तिलक, के साथ-साथ देश की आजादी की जंग में सक्रिय भूमिका निभाने वाले अनेक गुमनाम शहीद हर भारतीय से पूछ रहे हैं, क्या भारत के इसी स्वरूप के लिए हम सबने बलिदान दिया?
14-15 अगस्त की अर्द्धरात्रि में अपने ऐतिहासिक भाषण में नेहरू ने भरपूर जोश के साथ अपने काव्यात्मक अंदाज में कहा, 'मध्यरात्रि की इस बेला में, जबकि पूरा विश्व सोया हुआ है, भारत स्वतंत्रता और नए जीवन के लिए जगेगा। यह एक ऐसा क्षण है, जो इतिहास में बहुत ही दुर्लभ होता है। यह एक ऐसा क्षण है, जब हम पुराने से नए में प्रवेश कर रहे हैं। यह एक नए युग का आरंभ है। यह एक ऐसा समय है, जब वर्षो से दमित राष्ट्र की आत्मा फिर से जागने जा रही है।' परंतु भारत क्या वास्तव में जगा और अपनी आत्मा को नई अभिव्यक्ति दे सका? क्या यह सच नहीं है कि जगी हुई भारत की आत्मा को फिर से सुला दिया गया और इस पर दमन की और परतें चढ़ा दी गई?
हमने अपने लिए एक संविधान का निर्माण किया और भारत में संप्रभुतासंपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य की धारणा को स्थापित किया गया। परंतु यहां लोकतांत्रिक गणराज्य की बजाय वंशवादी प्रभुत्व है, संप्रभुता का उपयोग विधायिका में चुने गए अपराधी कर रहे हैं और इसी तरह पंथनिरपेक्षता का व्यावहारिक उपयोग जाति और समूह के आधार पर राजनीतिक निर्णयों में देखा जा सकता है। इसी तरह समाजवाद की धारणा आज उच्चतम आय यानी असमानता का कारण बन रही है?
हमारे राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न के नीचे सत्यमेव जयते यानी सत्य की ही विजय होती है, लिखा हुआ है। आखिर क्या वजह है कि असत्य का साम्राज्य फैला हुआ है और लोगों पर लग रहे कलंक और झूठ को लेकर बहसें हो रही हैं? झंडे में बना चक्र हमारी प्राचीन संस्कृति का प्रतीक है, लेकिन क्या हम आज अपनी प्राचीन संस्कृति की जड़ों पर ध्यान दे रहे हैं?
आज स्वच्छ, मजबूत, रचनात्मक, सकारात्मक, प्रतिबद्ध और समर्पित शासकीय मशीनरी की आवश्यकता है। इसकी बजाय हम अपने आसपास भ्रष्ट, सामान्य, अकुशल और संघर्ष में उलझी हुई प्रशासकीय तंत्र पाते हैं, जो राष्ट्र के सामने खड़ी गंभीर चुनौतियों, संकटों को सुलझा पाने में असक्षम हैं। फिर चाहे मामला आतंकवाद का हो या सामाजिक व आर्थिक वंचना का?
सरकार लगातार प्रचार कर रही है कि उसका लक्ष्य 8-10 प्रतिशत आर्थिक विकास हासिल करना है, हालांकि इससे महज 4-5 फीसदी लोगों को ही लाभ होना है, फिर हमारी सरकार मात्र इतने से खुश क्यों हो रही है? भारत में अब भी सर्वाधिक गरीबों और निरक्षर लोगों का देश बना हुआ है। कुपोषण से ग्रस्त लोगों की संख्या के मामले में भी हम विश्व में सबसे आगे हैं।
यूएनडीपी द्वारा जारी मानव विकास सूचकांक वाले देशों की सूची में भी भारत काफी नीचे 134वें स्थान पर है।
संभवत: कुछ क्षेत्रों में हम बाकी से आगे भी हैं, लेकिन यह प्रगति हमारी जरूरतों और क्षमता के मुकाबले काफी कम है। इसी तरह क्या हम विकास की कीमत अपनी स्थिरता, अखंडता और अपनी संस्कृति की कीमत पर नहीं कर रहे हैं? ऐसा क्यों हो रहा है कि हमारा बौद्धिक और नैतिक पतन तेजी से हो रहा है?
आज हम क्यों नहीं विवेकानंद, महर्षि अरविंद, टैगोर, राममोहन और रानाडे जैसे महान सुधारकों और राष्ट्र निर्माता व चेतना को परिष्कृत करने वाले लोगों को पैदा कर पा रहे हैं। इन प्रश्नों के उत्तर के लिए हमें खुद से प्रश्न पूछना चाहिए कि आजादी के 63 वर्ष बीत जाने पर भी क्यों इतनी विषमताएं उभर रही हैं और जिन क्षेत्रों में प्रकाश फैलना चाहिए था, वहां अंधेरा और गहरा होता गया?
मेरे मस्तिष्क में जो उत्तर उभरता है, वह है 1947 के बाद नेतृत्व की विफलता। स्वतंत्र भारत में एक नई सभ्यता के निर्माण की आवश्यकता थी, जो नहीं हो सका। यह सभ्यतागत मूल्य ही है, जो राज्य के संस्थानों को दिशा देता है, समाज के लोगों में एक मूल्य की स्थापना करता है और दृष्टिकोण देता है यानी लोगों को एक नजरिया देता है। इन मूल्यों की आज महती आवश्यकता है और स्वस्थ मन-मस्तिष्क व आत्मा वाले लोगों को विकसित करने की जरूरत है, जो उपेक्षित हैं।
आज इस बात को भुला दिया गया है कि ईमानदार मन-मस्तिष्क वाले लोगों के बिना ईमानदार प्रशासन का निर्माण संभव नहीं है। सुंदर राष्ट्रीय धारणा के बिना सुंदर राष्ट्रीय महल की नींव नहीं रखी जा सकती।
सभ्यता एक निर्धारित समय में समूचे राष्ट्र की कुल सामाजिक, नैतिक और बौद्धिक उपलब्धियों का योग है। अगस्त 1947 में हमारे भाग्य के निर्णायक मोड़ के समय हमें इस बात का विचार करना चाहिए कि इतिहास के 5000 वर्षो के कालखंड में हमारी सकारात्मक और नकारात्मक बातें कौन-सी रही हैं। हम सभी एक ऐसे सामाजिक और सांस्कृतिक पिंजरे में रहते हैं, जिसका ताना-बाना हमारे अतीत से निर्मित किया गया है।
हालांकि इसकी स्वच्छ हवा की बयार और रोशनी हमें पिंजरे की सलाखों के बीच के खाली स्थान से निरंतर मिलती रहती है। वास्तव में हमारा भूत, भविष्य और वर्तमान इन्हीं जटिल तानों-बानों से बना हुआ है। हम अपने वर्तमान से भूत और भविष्य दोनों को ही देख सकते हैं और इसे देखा भी जाना चाहिए।
महान अंग्रेज कवि टीएस इलियट ने ठीक ही कहा है, 'वर्तमान और भूत दोनों ही भविष्य में समाहित हैं। और हमारा भविष्य हमारे अतीत में समाहित होता है।'
अगर हम अपने अतीत को खंगालें तो हमें बहुत ही मूल्यवान और कीमती चीजें मिल सकती हैं। हालांकि यह अभी दिख नहीं रहीं। हमें अपनी संस्कृति में मौजूद महान विचारों को तलाशना चाहिए। इन महान विचारों और आदर्शो से हम अपने जीवन में भी वैसी ही दिव्यता हासिल कर सकते हैं।
अस्तित्व की एकता और ब्रह्मांड में व्याप्त कॉस्मिक किरणें एक ऐसा तत्व है, जो हमें एक-दूसरे से जोड़ती है। हमें कर्मयोगी होने के महत्व को समझना होगा और बिना किसी लालच या कमजोरी के हमें निस्स्वार्थ कर्तव्य करना होगा।
हमें मैक्समूलर द्वारा कहे गए इस वाक्य पर ध्यान देना चाहिए, 'मानव मस्तिष्क में जीवन की जिस महान समस्या को लेकर गहन चिंतन किया जाता रहा है, उसका उत्तर केवल और केवल मुझे भारत में मिला। यहां मानव इतिहास का सबसे कीमती और रचनात्मक तत्व का खजाना है।'
इन सबसे न केवल समूचा राष्ट्र प्रोत्साहित होता है, बल्कि इससे स्वस्थ लोकतंत्र और सही अर्थो में मानवतावादी और सेवा उन्मुख सामाजिक व्यवस्था का आधार भी हासिल किया जा सकता है।
उदाहरण के तौर पर यह समान दिव्यता सभी लोगों में निहित हो तो न केवल समानता, बल्कि स्वतंत्रता और भ्रातृत्व को भी सुनिश्चित किया जा सकता है। हालांकि इस बात को उपेक्षित नहीं किया जा सकता कि लंबे समय से बहुत सारा कूड़ा-कचरा हममें भरा जा रहा है, जिस कारण हमारा लगातार क्षरण होता गया। अब इन सबको साफ करने की जिम्मेदारी हमें लेनी होगी। इसमें सभी तरह की बुराइयों यथा पंथ, जाति, लिंग भेदभाव जैसी बातों को शामिल करना होगा।
अंततोगत्वा क्या हम अपनी सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत में इन पवित्र, मूल्यवान और कीमती प्राचीन आदर्श और आधुनिक विज्ञान के साथ तालमेल बिठा पाएंगे। हमें अपनी संस्कृति का पुनर्उत्थान और पुनर्सुधार करना होगा। इस तरह की सभ्यता से ही हमें नए भारत, नए मस्तिष्क, नए मिशन और नए संदेश का आधारभूत मूल्य मिलेगा। संभवत: अभी भी बहुत देर नहीं हुआ है, जबकि हम ऐसे सभ्यतागत सुधार द्वारा देश को एक सही दिशा दे सकते हैं।
आजाद नेता, बेडि़यों में जनता
भरत मिश्र प्राची। आज देश के जो हालात सामने हैं, उससे कोई अनभिज्ञ नहीं है। देश की सुरक्षा और अस्मिता दिनोदिन खतरे में पड़ती जा रही है। देश के संवैधानिक पद की भी गरिमा दिन पर दिन धूमिल होती जा रही है। स्वतंत्रता उपरांत स्वयंभू की प्रवृत्ति आज इतनी बढ़ चली है कि राष्ट्रहित से स्वहित सर्वोपरि दिखने लगा है, जबकि स्वतंत्रता पूर्व देश की आजादी की लड़ाई में सभी के दिल में राष्ट्रहित की भावना सर्वोपरि बनी हुई थी। फिर आज यह क्या हो गया?
आजादी मिलते ही हम इतने स्वार्थी हो गए कि आजाद कराने वाले अनेक गुमनाम शहीदों की कुर्बानियों को भूलकर उनके आदर्श सपनों को मटियामेट करते हुए देश की अस्मिता को भी दाव पर लगाते जा रहे है। भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, आतंकवाद, महंगाई, बेईमानी और धोखाधड़ी की घटनाएं बेहिसाब बढ़ती जा रही हैं। इन पर कोई लगाम नहीं है। जनसेवा का संकल्प लिए लोकतंत्र के जनप्रतिनिधि वेतनभोगी हो गए हैं। वे अपनी सेवा का वेतन देश के अन्य वेतनभोगियों की तरह लेने लगे हैं। हत्या, लूट, अपराध में लिप्त लोग आज हमारे जनप्रतिनिधि बनकर लोकतंत्र के पवित्र आगन को अपने अलोकतात्रिक आचरण से अपवित्र किए जा रहे हैं और हम इनका विरोध करने के बजाए अभिनंदन करते जा रहे हैं।
आज कोई संसद-विधानसभा में बाहुबल का खुला प्रयोग कर संविधान की धज्जिया उड़ा रहा है। आज देश फरेबियों के जाल में फंसता जा रहा है।
जाली नोटों का गोरखधंधा इस तरह अपना पग पसार चुका है, जिससे आज रिजर्व बैंक भी अछूता नहीं रहा। नकली सामानों और नकली दवाओं की तो चारों ओर भरमार है। उद्योग धंधे तो बंद होते जा रहे हैं, रोजगार के नाम हर जगह लूट-खसोट की राजनीति पनाह ले रही है। न्याय की तलाश में आज भी लोग भटक रहे हैं, जहा अंग्रेजों की ही नीतिया कायम है। अंग्रेज तो चले गए, पर आज भी अंग्रेजियत हावी है, जिसका खुला नजारा हर सरकारी कार्यालयों और हर संसदीय कार्यवाही में देखने को मिल सकता है। आज इसी कारण देश की संसद ही नहीं, अनेक जगहों का स्वरूप भी विदेशी-सा दिखाई देता है।
आजादी के उपरांत देश में अपहरण, भ्रष्टाचार, बलात्कार, अनैतिकता के मामले दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। आतंकवाद से देश को चुनौतिया मिलने लगी हैं। देश के विकास स्तंभ सरकारी, अर्द्धसरकारी संस्थाएं सफेद हाथी बन चुकी हैं। जो जहा है, वहीं अपने-अपने तरीके से देश को लूट रहा है। आजादी से पूर्व इस देश को विदेशियों ने लूटा, आजादी के बाद देश वाले लूट रहे हैं। फिर देसी-विदेशी, आजादी-गुलामी की परिभाषा इस संदर्भ में किस तरह परिभाषित हो पाएगी, विचार किया जाना चाहिए।
जहा इस तरह के जनप्रतिनिधियों की संख्या लोकतंत्र में बढ़ती जा रही है। जहा आज आम जनता पर विभिन्न तरह के टैक्स के बोझ का दायरा बढ़ता जा रहा है। सुरसा की तरह बढ़ती जा रही महंगाई अनियंत्रित होती जा रही है, वहीं अनेक लोग राजनीतिक छाव में अवैध रूप से धन बटोरने और राजनीतिज्ञों को सुख सुविधा के तमाम संसाधन जुटाने में तत्पर हैं।
देश का सर्वोच्च पद भी स्वार्थ से प्रेरित अनैतिक राजनीति का शिकार बन चुका है। लोकतंत्र के इस सर्वोच्च पद पर भी राजनीतिक शिकंजा कसता नजर आ रहा है। हत्या, अपहरण, अवैध गतिविधियों में लिप्त आज लोकतंत्र के सम्मानित सासद, विधायक हैं। जेल में बंद हैं, फिर भी सासद हैं। जो जंगल में घूम रहे हैं, वे संसद में दिख रहे हैं। आखिर आजादी के बाद उभरे इस तरह के परिदृश्य के लिए कौन जिम्मेवार है?
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या देश के इन्हीं हालातों के लिए लाखों लोगों ने कुर्बानिया दी? इस तरह के उभरते हालातों पर आज मंथन करने की विशेष जरूरत है। वर्ष 1857 से लेकर 9 अगस्त 1947 के मध्य छिड़ी आजादी की जंग पर एक नजर डालें, जहा देश की आजादी के लिए अनोखी जंग छिड़ गई थी। एक तरफ अंग्रेजों को छक्के छुड़ाने वाली लक्ष्मी बाई तो दूसरी ओर जीवन के अंतिम पड़ाव पर पड़े बूढ़े शेर बाबू कुंवर सिंह के बाजुओं की ताकत के आगे निढाल पड़ी अंग्रेजी हुकूमत।
साथ ही साथ देश भक्ति में सराबोर हुए आजादी के दीवानों का जत्था, जिनकी कुर्बानियों के आगे अंग्रेजी हुकूमत को यहा से बिदा होना पड़ा।
हम याद करें, मंगल पाडे की कहानी, जिन्होंने निस्स्वार्थ भाव से अंग्रेजों के विरूद्ध अलख जगाकर आजादी की जंग छेड़ दी। राम प्रसाद विस्मिल, भगत सिंह, आजाद आदि के त्याग एवं बलिदान की कहानी को इतना जल्दी कैसे भूल गए? आज गाधी, बाल गंगाधर तिलक, के साथ-साथ देश की आजादी की जंग में सक्रिय भूमिका निभाने वाले अनेक गुमनाम शहीद हर भारतीय से पूछ रहे हैं, क्या भारत के इसी स्वरूप के लिए हम सबने बलिदान दिया?
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