केंद्र सरकार जिस तरह अन्ना हजारे की शर्ते मानने और उसके तहत जनलोकपाल के तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर संसद में बहस कराने के लिए तैयार हुई वह जनशक्ति की प्रचंड जीत है। इस जीत के लिए आम जनता को अपने नए नायक अन्ना हजारे का ऋणी होना चाहिए और उनका अभिनंदन करना चाहिए। उसे खुद भी अपनी पीठ थपथपानी चाहिए, क्योंकि उसने अन्ना का साथ देते हुए संयम और अनुशासन का जो परिचय दिया वह अनुकरणीय है। दिल्ली के साथ-साथ शेष देश में जिस तरह लाखों लोग अन्ना के समर्थन में सड़कों पर उतरे और फिर भी शांति बनी रही वह सभी के लिए एक मिसाल है। अन्ना ने अपने दृढ़ निश्चय से न केवल देश की राजनीति को हिला कर रख दिया, बल्कि उसके घोर जनविरोधी रवैये की पोल भी खोल दी। राजनीतिक दलों को इसके लिए लज्जित होना चाहिए कि वे भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के आक्रोश का अहसास क्यों नहीं कर सके? उन्हें यह अनुभूति भी हो जानी चाहिए कि यदि राजनीति के तौर-तरीके नहीं बदले गए तो उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा होने वाली नहीं है। वे बेनकाब हो चुके हैं। उन्हें यह साबित करने के लिए बहुत कुछ करना होगा कि वे वास्तव में जनता की भलाई के लिए काम कर रहे हैं। राजनीतिक दलों को यह भी समझ में आ जाना चाहिए कि वास्तविक जनसमर्थन क्या होता है और वह कैसे जुटाया जाता है? नेता वह नहीं जो भाड़े की भीड़ जुटाकर खुद की ताकत का अहसास कराए। नेता वह है जिसके पीछे जनसमूह स्वयं उठ खड़ा हो। अन्ना हजारे की आवाज पर जिस तरह लाखों लोग उनके साथ हो लिए उससे राजनीतिक दलों की आंखें खुल जानी चाहिए। अब उनके लिए संसद की आड़ लेना भी कठिन होगा, क्योंकि देश ने यह अच्छी तरह देखा-समझा कि किस तरह सत्तापक्ष और विपक्ष ने संसद की सर्वोच्चता को अपने लिए ढाल बनाने की कोशिश की।
अब जब सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्ष ने भी समर्पण की मुद्रा अपनाते हुए जनभावनाओं के अनुरूप कदम उठाने का फैसला कर लिया है तब फिर अन्ना हजारे के लिए उचित यही होगा कि वह अपना अनशन त्याग दें। वह अपने अनशन के जरिए राजनीतिक दलों को जो संदेश देना चाहते थे वह उन तक पहुंच गया और संभवत: कहीं अधिक कठोर रूप में। एक सक्षम एवं कारगर लोकपाल का निर्माण करने के लिए संसदीय प्रक्रिया का पालन होने देने में ही सभी का हित है। इसमें संदेह नहीं कि सत्तापक्ष ने उनके साथ-साथ देश की जनता के साथ भी छल करने की कोशिश की और विपक्ष ने भी अपनी जिम्मेदारी का परिचय देने से इंकार किया, लेकिन इस सबके बावजूद कानून बनाने का कार्य संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप ही होना चाहिए। अन्ना हजारे को अनशन का परित्याग करने के साथ ही आंदोलन जारी रखने के अपने फैसले पर भी पुनर्विचार करना चाहिए, क्योंकि जिस उद्देश्य के लिए वह शुरू हुआ था उसकी पूर्ति होती दिख रही है। इसके अतिरिक्त यह भी एक तथ्य है कि हर एक आंदोलन का प्रभाव एक निश्चित अवधि तक ही रहता है। इस तरह के आंदोलन को लंबे समय तक जारी रखना एक कठिन कार्य है। उन्होंने अपने अनशन-आंदोलन से एक प्रखर चेतना पैदा कर राजनीतिक नेतृत्व को जनता की आवाज सुनने के लिए विवश कर दिया और उन्हें यह भरोसा रखना चाहिए कि नेताओं को इस आवाज की गूंज लंबे समय तक सुनाई देती रहेगी।
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