Friday 16 December 2011

और ऊंचे अमीर और नीचे गरीब

तकरीबन दो दशक पहले लागू की गई नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और मुक्त बाजारवादी व्यवस्था का देश की अर्थव्यवस्था पर जो भी असर पड़ा हो, मगर इससे अमीरों और गरीबों के बीच की खाई और चौड़ी हुई है। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन की ताजा रिपोर्ट यह सोचने को मजबूर करती है कि यदि भारत की अर्थव्यवस्था 1990 के दशक के मुश्किल दौर से बाहर निकलकर मजबूत हुई, तो इसका लाभ समाज के निचले तबके तक क्यों नहीं पहुंचा?

बल्कि इन दो दशकों में ऊपरी क्रम के दस फीसदी लोगों और निचले क्रम के दस फीसदी लोगों की आय में अंतर दोगुने से भी बढ़कर 12 गुना हो गया है। जबकि इसी दौर में देश ने दुनिया में अपनी आर्थिक बुलंदी के झंडे गाड़े हैं और फोर्ब्स तथा फॉरचुन जैसी समृद्धि और संपत्ति का ब्योरा देने वाली अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं की सूची में भारतीयों का दबदबा बढ़ा है। मगर तसवीर का दूसरा पहलू यह भी है कि इसी दौर में हम गरीबी से लड़ने में नाकाम रहे हैं, वरना आज भी देश में एक तिहाई से ज्यादा लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन-यापन को मजबूर नहीं होते।

हालांकि इस असमानता को अनेक आर्थिक विशेषज्ञ गरीबी और अमीरी के फासले के तौर पर नहीं देखते, क्योंकि उनका मानना है कि निचले स्तर पर भी औसत आय में वृद्धि हुई है। उनके इस तर्क को यदि मान भी लिया जाए, तो इससे कैसे इनकार किया जा सकता है कि इन दो दशकों में जीवन-यापन की बुनियादी चीजें महंगी हुई हैं। कुछ समय पहले आई मानव विकास रिपोर्ट इसकी भयावह तसवीर पेश करती है, जिसके मुताबिक आमदनी, स्वास्थ्य और शिक्षा तक पहुंच के मामले में भारत की स्थिति बदतर हुई है।

हालत यह है कि 169 देशों की सूची में भारत 119 क्रम पर है। यह स्थिति इसलिए भी आई है, क्योंकि शहरों और गांवों के बीच फासला बढ़ रहा है, कृषि विकास दर में गिरावट आई है और मनरेगा जैसी योजना तक में धांधली के रास्ते ढूंढ लिए गए हैं। यह आर्थिक नियंताओं के लिए सोचने का कारण होना चाहिए कि आय में असमानता की एक बड़ी वजह वेतन में बढ़ती असमानता मानी गई है।

संगठित और असंगठित क्षेत्रों में इसमें भी काफी अंतर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण अफ्रीका ही ऐसी उभरती अर्थव्यवस्था है, जिससे भारत की स्थिति को बेहतर कहा जा सकता है। मगर यह खुश होने की बात नहीं है, क्योंकि उभरती अर्थव्यवस्थाओं में गिने जा रहे चीन और ब्राजील हमसे बेहतर स्थिति में हैं। बहरहाल, खपत बढ़ने जैसे बेतुके तर्क देकर न तो अमीरों और गरीबों के बीच की खाई कम हो सकती है और न ही महंगाई पर काबू पाया जा सकता है। 


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