Bal shoshan भारत में बाल शोषण और हम, आप द्वारा चिरागन |
आमतौर पर माना जाता है कि बाल शोषण का मतलब बच्चों के साथ शारीरिक या भावनात्मक दुर्व्यवहार है, लेकिन सीडीसी (कंसलटेंसी डेवलपमेंट सेंटर) के अनुसार, बच्चे के माता-पिता या अभिभावक द्वारा किया गया हर ऐसा काम बाल शोषण के दायरे में आता है, जिससे उसके ऊपर बुरा प्रभाव पड़ता हो या ऐसा होने की आशंका हो या जिससे बच्चा मानसिक रूप से भी प्रताड़ित महसूस करता हो. भारत में हालत ऐसी है कि अक्सर बाल शोषण के वजूद को ही को सिरे से नकार दिया जाता है, लेकिन सच यह है कि ख़ामोश रहकर हम बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की वारदातों को बढ़ावा ही दे रहे हैं.
केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा यूनीसेफ के सहयोग से कराए गए इस अध्ययन में कई संवेदनशील तथ्य सामने आए हैं. यह पहला मौक़ा है, जब सरकार ने इतने विस्तृत पैमाने पर बाल शोषण के विवादित मसले पर कोई पहल की है. अध्ययन के परिणामों से जो बात सबसे ज़्यादा उभर कर सामने आई है, वह यह है कि 5 से 12 साल तक की उम्र के बच्चे बाल शोषण के सबसे ज़्यादा शिकार होते हैं. हैरत की बात यह है कि हर तीन में से दो बच्चे कभी न कभी शोषण का शिकार रहे हैं. अध्ययन के दौरान लगभग 53.22 प्रतिशत बच्चों ने किसी न किसी तरह के शारीरिक शोषण की बात स्वीकारी तो 21.90 प्रतिशत बच्चों को भयंकर शारीरिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा. इतना ही नहीं, क़रीब 50.76 प्रतिशत बच्चों ने एक या दूसरे तरह की शारीरिक प्रताड़ना की बात कबूली. बात इतने पर ही ख़त्म नहीं होती. मंत्रालय की अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक़, देश का हर दूसरा बच्चा भावनात्मक शोषण का भी शिकार है.
आमतौर पर माना जाता है कि बाल शोषण का मतलब बच्चों के साथ शारीरिक या भावनात्मक दुर्व्यवहार है, लेकिन सीडीसी (कंसलटेंसी डेवलपमेंट सेंटर) के अनुसार, बच्चे के माता-पिता या अभिभावक द्वारा किया गया हर ऐसा काम बाल शोषण के दायरे में आता है, जिससे उसके ऊपर बुरा प्रभाव पड़ता हो या ऐसा होने की आशंका हो या जिससे बच्चा मानसिक रूप से भी प्रताड़ित महसूस करता हो. भारत में हालत ऐसी है कि अक्सर बाल शोषण के वजूद को ही को सिरे से नकार दिया जाता है, लेकिन सच यह है कि ख़ामोश रहकर हम बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की वारदातों को बढ़ावा ही दे रहे हैं. देश में बाल शोषण की घटनाओं को ऐसे अंजाम दिया जाता है कि दोषी के साथ-साथ पीड़ित बच्चे भी खुलकर सामने नहीं आते. पीड़ित बच्चे शर्मिंदगी के चलते कुछ भी बोलना नहीं चाहते. इसके पीछे भी हमारी सामाजिक बनावट और मानसिकता काफी हद तक ज़िम्मेदार है. हम भी ऐसे बच्चों को कुछ अलग नज़र से देखने लगते हैं. संभवत: इसी लज्जा के चलते उन्हें दुनिया की निगाहों में ख़ौ़फ नज़र आता है. पश्चिमी देशों में हालात ऐसे नहीं हैं. शिक्षा के कारण वहां का समाज और वहां के बच्चे निडर होकर अपनी बात कह सकते हैं. वहां के बच्चों में कम से कम इतना साहस तो होता ही है कि वे दुनिया को खुलकर अपनी आपबीती बता सकें.
पारंपरिक रूप से भारत में बच्चों के लालन-पालन और उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी परिवार एवं सगे-संबंधियों की होती है. देश के संविधान में बच्चों के लिए कई तरह के मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया गया है, लेकिन इन अधिकारों को व्यवहार में लागू करने के मामले में ज़रूरत के अनुसार अहमियत नहीं दी जाती है. इसके बावजूद बाल शोषण जैसी गंभीर सामाजिक समस्या को देश में अक्सर दरकिनार कर दिया जाता है. शर्म की बात यह है कि संगीन अपराध की श्रेणी में आने वाले इस कृत्य के वजूद से ही हम इंकार कर देते हैं. जबकि सच्चाई यह है कि समस्या की गंभीरता के नज़रिए से इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर पहल करने की ज़रूरत है. देश में बाल शोषण के ख़िला़फ बनाए गए क़ानूनों की भरमार है, लेकिन इसमें कई गंभीर खामियां भी हैं. आज ज़रूरत इस बात की है कि सरकार, समाज एवं आम नागरिक मिलकर बच्चों के अधिकारों के महत्व को समझें और इसे पूरा करने के लिए मिलकर क़दम उठाएं. अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार दिवस (19 नवंबर) या बाल दिवस (14 नवंबर) के मौक़ों पर इसके लिए केवल हामी भर देने से कुछ नहीं हो सकता. इस दिशा में लगातार प्रयास करते रहने की ज़रूरत है, ताकि क़ानून और समाज इसके प्रति जागरूक हों. बाल शोषण से संबंधित अनेक ऐसे तथ्यपरक आंकड़े हैं, जो आगे की कार्रवाई के लिए आधार का काम कर सकते हैं. अब वह समय आ चुका है कि हम बाल अधिकारों के प्रति गंभीर हों.
बाल शोषण से निबटने के लिए जो क़ानूनी ढांचा उपलब्ध है, लोगों को उसकी जानकारी नहीं है और न कोई ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा इस जागरूकता को बढ़ाया जा सके. नतीजतन यह सामाजिक अभिशाप लगातार और गंभीर रूप धारण करता जा रहा है. यह इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि बच्चे ही हमारा भविष्य हैं और उनके हितों की सुरक्षा किए बग़ैर एक सुरक्षित समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती. इसके लिए सबसे पहले हमें अपने नज़रिए में बदलाव लाना होगा, समस्या के वजूद को स्वीकार करना होगा. यह इतना आसान नहीं है. यह भी संभव है कि बदलाव के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी पड़े, लेकिन यदि हम सभ्य समाज होने का दावा करते हैं तो हमें कभी न कभी शुरुआत तो करनी ही होगी.
चौथी दुनिया डोट कॉम से लोगो को जागरूक करने के लिए साभार लिया गया.
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