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प्रकृति का महत्व और हमारे जीवन का आधार important of nature and our life |
इंसान ही नहीं दुनिया की कोई भी नस्ल जल, जंगल और ज़मीन के बिना ज़िंदा
नहीं रह सकती. ये तीनों हमारे जीवन का आधार हैं. यह भारतीय संस्कृति की
विशेषता है कि उसने प्रकृति को विशेष महत्व दिया है. पहले जंगल पूज्य थे,
श्रद्धेय थे. इसलिए उनकी पवित्रता को बनाए रखने के लिए मंत्रों का सहारा
लिया गया. मगर गुज़रते व़क्त के साथ जंगल से जु़डी भावनाएं और संवेदनाएं भी
बदल गई हैं. राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक बादलों के रंग हवाओं के
संग में लेखक अमरेंद्र किशोर ने जल, जंगल और ज़मीन के मुद्दे को बेहद
प्रभावशाली तरीक़े से उठाया है. पुस्तक के छह अध्याय हैं, जिनमें वन-उपवन,
बूंदों की बातें, पंचवटी की छांह में, जंगल का मंगल-लोक, बादलों के रंग
हवाओं के संग और परंपराओं के सच्चे साधक शामिल है. किताब में इंसान के लिए
जल, जंगल और ज़मीन के महत्व पर रौशनी डाली गई है. इसके साथ ही लेखक ने
प्रकृति के साथ मनव के संबंध और प्रकृति के विनाश में मानव की भूमिका का
ज़िक्र करते हुए इसे बचाने का आह्वान किया है. लेखक का कहना है कि सभ्यता के
एक खास दौर में जब पशुपालन के साथ बस्तियां अस्तित्व में आईं तो इंसान
जंगल की सभ्यता के बेहद क़रीब हो चुका था. आदिवासी और ग़ैर आदिवासी समाज के
बीच सौहार्द्रपूर्ण संबंध बन चुके थे, क्योंकि जंगलों में जाकर तपस्या
करना, आश्रम बनाना और ज़रूरत प़डने पर आदिवासियों से संपर्क साधकर उनसे मदद
लेने के ढेरों प्रसंग और आख्यान प्राचीन धर्मग्रंथों में प़ढने को मिलते
हैं. यह बात तो स्पष्ट है कि जिन पे़डों की पूजा आदिवासी सदियों से करते
चले आ रहे थे, उन्हीं पे़डों को हिंदू धर्म में भी विशेष स्थान मिला. यदि
वनवासी समाज की मान्यता है कि पे़डों पर उनके देवता बोंगा रहते हैं तो
वैदिक काल से हिंदू धर्म ने इसी तथ्य को खास तर्क के साथ पूजनीय साबित
किया. हर पे़ड को किसी न किसी देवी-देवता के साथ संबंधित किया गया.
आदिवासियों के बीच बहुसंख्यक देवी-देवता नहीं होते. वे प्राकृतिक संसाधनों
को पूजते हैं. नदी, पहा़ड, जंगल, पत्थर और जीव-जंतु, इन सबकी आराधना करते
हैं, जबकि हिंदुओं के 33 करो़ड देवी-देवताओं के अलावा अपने पूजन के लिए,
आराधना के लिए पे़ड-पौधों से लेकर नदी-पहा़ड के साथ संबंध जो़डते गए. मगर
इसके मूल में कहीं किसी धर्म समुदाय को पीछे छो़ड देने जैसी बातें नहीं
थीं. हिंदुओं के साथ आदिवासियों तक सौहार्द्रपूर्ण रिश्ते रहे. यह बात
दूसरी है कि विकास के दौर में आदिवासी पीछे रह गए. ज़माना बदला. जंगल कभी
सबके लिए होते थे. समाज के लिए, परिवार के लिए और इंसान के लिए. व्यक्तिगत
ज़रूरतों के लिए, सामुदायिक ज़रूरतों के लिए, धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर
भरण-पोषण के लिए. लेकिन प्रकृति की सुंदरता को, जंगलों की सघनता और इंसान
की शालीनता को लील गई आधुनिक जीवन शैली. क़ुदरती सौंदर्य से लदे जंगलों और
पहा़डों से जु़डे साहित्य के प्रसंग आज सपने हो गए या परी-लोक के आख्यान
लगने लगे. इतना ही नहीं, जंगलों की महत्ता समझाने वैसे लोग हमारे पास आ
धमके जो समूचे विश्व में नियमों की आ़ड में वनों का नाश कर रहे थे. जंगल
बचाने और ब़ढाने की तरकीबें बताने वैसे लोग सामने आए जो पूरे विश्व में जैव
संपदाओं की तबाही मचा चुके थे. कमाल की बात है कि ऐसे लोग ब़डी सहजता से
सरकार और सत्ता में अपनी पैठ जमाने में सफल रहे. मतलब वनों को बचाने और
ब़ढाने का गुणगान करने वाली हमारी संस्कृति उनके विचारों और तर्कों से
बेमानी और बेकार हो गई. उनकी भोगवाद की संस्कृति हमारी परंपराओं और सोच पर
भारी प़डी. अपनी सोच से जंगलों के प्रति बेहद संवेदनशील और परंपरा प्रिय
समाज आज वनों से दूर धकेला जा चुका है. उसके सामने ही समूचा देश बाज़ार बन
चुका है. हम, हमारी संस्कृति, हमारे जंगल और हमारे जंगलों से जु़डी भावनाएं
तथा संवेदनाएं, ये सबके सब इसी बाज़ार में बिकाऊ हो चुकी हैं, क्योंकि
हमारी ज़िंदगी से जु़डे छोटे या ब़डे मुद्दे जब बाज़ार और व्यापार के संसर्ग
में आते हैं तो उन्हें बिकने से कोई बचा नहीं पाता. इसलिए वन्य संसाधन आज
वैश्विक बाज़ार के सौदागरों के निशाने पर हैं. इस हाल में जंगल और प्रकृति
से जु़डी इंसानी भावनाएं एवं संवेदनाएं सौदेबाज़ों के पैरों तले रौंदी जा
रही हैं. यह निष्ठुरता की पराकाष्ठा है. खेद की बात है कि हम यह सब विवशता
के साथ देखने को, सहने को मजबूर हैं. हमारी तमाम वन नीतियां, उनसे जु़डे
क़ायदे-क़ानून इन सबमें जंगलों को बचाने की पवित्र चिंताएं और प्रतिज्ञाएं
हैं. मगर फिर भी जंगल कट रहे हैं. उन्हें बचाने की तरकीबें हमारी सोच से
जुदा हैं, क्योंकि ये तरकीबें पश्चिमी सभ्यता की उपज हैं. सरकारी फाइलों के
अनुसार, जंगलों के सबसे ब़डे लुटेरे आदिवासी हैं. मगर सच और इस दलील के
बीच कोई संबंध नहीं है. यह दावा बेहद खोखला और लिजलिजा है. वे वैसे लोग
हैं, जो जंगलों के बिना अपने को, अपने धर्म को और अपनी संस्कृति को अधूरा
मानते हैं. वे आदिवासी हैं. भारत के मूल बाशिंदे. मगर सबसे लाचार. समय के
हाशिये पर धकेले गए श्रांत-कलांत लोग. जंगल बचाने और ब़ढाने की चिंता में
जुटी सरकार ने आदिवासियों को जंगलों से दरकिनार कर दिया. उन्हें उनके
टोला-टप्परों से दूर कर दिया. इतने उपायों के बावजूद जंगल फिर भी कट रहे
हैं. देश की धरती से हरियाली की चादर सिकु़डती जा रही है. वनों से वहां के
लोग दूर धकेले जा रहे हैं. प्राचीन ग्रंथों में सामाजिक वानिकी की बातें
नहीं हैं और न ही जन-वन प्रबंधन की बातें हैं, क्योंकि पुराने ख्याल ऐसे
रहे हैं कि जंगल लगाए नहीं जाते, बल्कि ये क़ुदरत की देन होते हैं. इनकी
सघनता किसी पादप विज्ञानी की मेहनत की उपज नहीं होती. क़ुदरती जंगल बेतरतीब
होते हैं. इसलिए सुखद होते हैं. सुंदर होते हैं. वहां के पे़ड स्वयंभू होकर
भी संगठित होते हैं. इंसान के हाथों उपजाए गए वन-उपवन पर्यावरण के अनुरूप
नहीं होते. हम व्यापार और बाज़ार की ज़रूरत को ध्यान में रखकर वन रोपण करते
हैं.
अध्याय बूंदों की बातें में लेखक ने पानी के महत्व को ब़खूबी पेश किया
है. सभ्यताएं पानी की देन हैं. संस्कृतियां नदियों से पनपी हैं. नदियों से
पोषित हुई हैं. नदियां ही संस्कृतियों की पालनहार हैं. जंगलों ने जीव मंडल
को जीवन दिया है. सांसें दी हैं. ताक़त दी है. इससे जंगलों से व्यापार पनपा
तो साथ में समाज के नियम-विधान बने. सामाजिक व्यवस्था ग़ढी गई. संचालित की
गई. जंगलों को जीवन देने वाले बादल हैं. इन बादलों में पानी है. पानी से
जंगल है और जंगल से पानी है. जंगल है तो बादल आएंगे, बरसेंगे. तभी नदियों
की धार जंगलों से निकलेगी. पहा़डों से निकलेगी, झरना बनकर. नाला बनकर, जो
नाला छोटी नदियों का रूप लेता है. छोटी नदियों का संजाल ब़डी नदियों में
तब्दील होता है. पहा़डों से चली पानी की मनचली धार आगे ब़ढकर समुद्र में जा
मिलती है.
वैदिक युग में हमारे देश में जल देवता के रूप में वरुण को पूजा जाता था.
आज भी पोखरों और कुंओं को पूजने की परंपरा है. सुहागनें पोखरों को पूजती
हैं. वे कुएं पूजती हैं. गांवों में तालाबों और कुंओं के विवाह होते थे.
सुहागिनें गाती हैं-
राजा जनक रीसी कुइया खनावले
कुइयां के निर्मल पानी जी
ताही तर राजा हो
जइ करावले कुंड दाहा दही जस
कुंड पइसी राजा हवन करावले निकलेली कन्या कुंआर जी
कथी ये के दुधावा पइइब हो बाबा
काई धरब हमरो नाम हो
केकरा कुलवे बइहब हो बाबा
केइ होइहे स्वामी हमार
गुलरी के दुधावा पइइबो हो बेटी सिता धरणी तोहरो नाम
दशरथ कुलवे बिआहब हो बेटी स्वामी होइहन श्रीरामजी
घर के शुभ काम की शुरुआत के साथ कुएं की भी पूजा का रिवाज गांव के लोक समाज में आज भी है, चाहे विवाह या कोई और मंगल कार्य.
पर्यावरण असंतुलन पर चिंता ज़ाहिर करते हुए पर्यावरणविद् सुंदरलाल
बहुगुणा कहते हैं, हमने हर बात और काम में यूरोप का अनुसरण किया. मगर यूरोप
में क्या है. वे मिट्टी में रसायन डालते हैं. माटी एक ज़िंदा पदार्थ है,
उसमें रसायन जैसी मुर्दा चीज़ वे डाल रहे हैं. अधिक उपज लेने के इरादे से
हमने भी मुर्दा को अपनाया. हमने मिट्टी को अपने स्वार्थ के कारण नशेबाज़
बनाया-रासायनिक उर्वरकों से. गाय की सेवा करने वाला, पे़ड लगाने वाला और
उन्हें पूजने वाला पुण्य प्राप्त करता है, ऐसा हमारे धर्मशास्त्रों में
लिखा है. पुण्य का अलग सुख है. बात चाहे गांव बसने की हो, उसके नामकरण की
हो या खेती की. पे़ड से अलग कुछ भी नहीं है. गांव के नाम पे़डों से जु़ड
जाते हैं. जहां जिन पे़डों की बहुलता है, वहां के गांवों के नाम उन पे़डों
के नाम से जाने जाते हैं. उसी तरह पानी से जु़डे गांव के नाम, माटी के
प्रकार से जु़डे गांव के नाम, कितना अद्भुत है अपना देश.
यह किताब प्रकृति के बेहद क़रीब रहने वाले आदिवासियों की जीवनशैली और
उनकी समस्याओं पर भी रौशनी डालती है. पर्यावरण संरक्षण के नाम पर
आदिवासियों को उनके मूल स्थान से उजा़डना अमानवीय है, इसे रोका जाना चाहिए.
यह किताब भारत के लोकज्ञान और कालातीत परंपरा का बेहतरीन दस्तावेज़ है.
लेखक परिचय फ़िरदौस ख़ान
firdaus@chauthiduniya.com
फ़िरदौस ख़ान पत्रकार, शायरा और कहानीकार हैं. आपने दूरदर्शन केन्द्र
और देश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में कई वर्षों तक सेवाएं दीं हैं. ऑल
इंडिया रेडियो, दूरदर्शन केन्द्र से समय-समय पर कार्यक्रमों का प्रसारण
होता रहता है. आपने ऑल इंडिया रेडियो और न्यूज़ चैनल के लिए एंकरिंग भी की
है. देश-विदेश के विभिन्न समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं के लिए लेखन. आपकी
'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नामक किताब प्रकाशित हो चुकी है.
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