Thursday, 2 December 2021

आबादी का बड़ा वरनेबल और मासूम है ,उसे बचाने की कलेक्टिव जिम्मेदारी सभी बड़ो की है

 

7th क्लास में थे तो एक क्लास मैट्स था .खूब क्रिकेट खेलता , साइकिल तेज चलाते मस्ती करता .3 रोज वो लगातार स्कूल नही आया ,मालूम चला उसकी मम्मी नही रही .कई दिनों बाद वो स्कूल आया .पर जैसे अपने आप को कही छोड़ आया था .बेतरतीब कपड़ो में आता ,लंच में टिफिन शेयर नहीं करता ,क्रिकेट के मैदान से दूर रहता साइकिल भी बहुत धीमे धीमे चलाकर घर अकेला लौटने लगा .कुछ महीनों बाद हम देहरादून शिफ्ट हो गये .शहर और स्कूल कुछ वक़्तों के लिए छूट गया. 
 

 
 
अब पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो लगता है वो कितने "दुख" में था .उसे काउंसलिंग की जरूरत थी ,किसी बड़े की ,स्नेह की .सरकारी स्कूलों में काउंसलर के बारे में सोचना भी उस वक़्त अकल्पनीय था .कितने बच्चे, कितने बचपन दुख से अकेले सालो लड़ते है बिना ये जाने के उन्हें कैसे लड़ना है .कल एक 21 साल की लड़की अपने भतीजे को दिखाने आयी कोरोना ने उसके माता पिता ,दादी को उससे छीन लिया .उसके घुंघराले बाल देख अपना वो क्लासमेट्स याद आ गया .दुनिया की कोई ताकत किसी बच्चे को उसकी मां पिता वापस नही दे सकते पर दुख को एब्सॉर्ब करने ,"हरने "में उसकी इनविजिबल मदद कर सकते है .स्नेह ,प्यार ,संवाद और अपेक्षाकृत ज्यादा टॉलरेंट एनवायरमेंट समाज बना कर .
मैं नही जानता किसी स्कूल के कॅरिकुलम में टीचरों को भी मेन्टल हेल्थ के कुछ सेशन की ट्रेनिंग या "Greif Awareness " जैसे विषयों से इंट्रोड्यूस कराया जाता है या नही .या प्राइवेट स्कूलों में अपॉइंटेड कायून्सलर योग्यता के सभी मानक पूरे करते है या नही .पर यकीन मानिए आबादी का ये हिस्सा बड़ा वरनेबल और मासूम है ,उसे बचाने की कलेक्टिव जिम्मेदारी सभी बड़ो की है .
P.S -तस्वीर गूगल से दुख की पांचों स्टेज को दिखाती है .
 
Writer : Anurag Arya

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