जानते है इस देश मे
सबसे बड़ा अपराध क्या है?
" गरीब होना "
किसी ने लिखा था "कानून" और "न्याय "दो अलग चीज़े है !
जब पुलिस और व्यवस्था ही आपको अपराधी साबित करे और आपको अपने आप को निर्दोष साबित करने के लिए ,अपने "सर्वाइवल" के लिए आपको अदालत में खुद ही लड़ाई लड़नी पड़े .
ये लोकतांत्रिक व्यवस्था की "बुनियाद में डिफेक्ट "आने की निशानी हैं जो लोकतंत्र के उस मूल सिद्दांत से उसे हटाती है जिसमे सबसे अंतिम पायदान पर खड़ा हुआ व्यक्ति भी बराबर है .
ये जरूरी नही के आप इसे जीत जायेगे ,और इसे जीतने में आपको कितने वर्ष लगे ,आपके जीवन के कितने साल इस लड़ाई को लड़ने में जाया होंगे .आर्थिक और सामाजिक मुश्किलों की तो अलग फेरहिस्त है .लोकतंत्र में ताकते अपने हितों और सत्ता के लिए ऐसे ही अपनी ताकत का दुरुपयोग करती है .और प्रतिरोध की अनुपस्थिति उन्हें किसी भी जवाबदेही से मुक्त तो बनाती ही है क्रूर भी. सामाजिक व्यवस्था की कुरीतियों से लड़ते लड़ते हमारे समाज ने दूसरी नई कुरीतियों को ज़िंदा रखने की तरकीबें सीख ली है.
हमारे यहां अदालतों को केंद्र में रखकर , अंतिम पंक्ति के व्यक्ति के लिए न्याय के लिये लड़ाई पर कमोबेश कम फिल्मे बनी है .
गोविंद निहलानी की नसीर ओम पुरी और अमरीश पुरी को लेकर बनाई गई फ़िल्म "आक्रोश",
"जोली एल एल बी" का प्रथम भाग और यथार्थ के बेहद नजदीक अदालतों और सिस्टम के क्रूर उदासीन चेहरे को रिफ्लेक्ट करती मराठी फिल्म "कोर्ट "मुझे याद आती है इसके अलावा
"जोली एल एल बी 2" और" मुल्क" दो ऐसी फिल्में है जो मुख्य धारा के सिनेमा को रिप्रजेंट करती है
"जय भीम "अपने प्रजेंटेशन में मराठी फिल्म "कोर्ट" जितनी यथार्थवादी और दृश्यों को लेकर उतनी सचेत फ़िल्म नही है पर फिर भी मुख्य धारा के सिनेमा के ऑडिएंस की लिमिटेशन को ध्यान में रखकर बनाई गई फ़िल्म है जिसकीं कुछ कमियों को नजरअंदाज किया जा सकता है .
फ़िल्म इसलिए देखी जानी चाहिए
क्योंकि ये कानून की व्यवस्था के मार्गो की पड़ताल करती है जिसमे पुलिस वकील और अदालत है .
जातियों को लेकर पूर्वाग्रह से भरा समाज है .ये वापस रिकॉल कराती अब भी हम एक ऐसी व्यवस्था में रह रहे है जो दो खांचों में विभाजित है .एक "इनविजिबल लाइन!" ने दो खाने बना रखे है एक तरफ अमीर है और दूसरी तरफ गरीब .
गरीबी के हर्डल बहुत है उसे हर आवश्यक चीज़ के लिए एक हर्डल पार करना होता है.गुजरते वक़्त के साथ व्यवस्थाये दुरस्त होने के बजाय और असक्षम होती जा रही हैं,ट्रांसपेरेंट और अंतिम व्यक्ति की रीच में होने के बजाय दूर ओर अधिक ऊंची होती जा रही है.
व्यवस्थाओं पर व्यक्तियों का कब्जा हो रहा है , उन्हें प्लांड वे में और कमजोर किया जा रहा है ताकि उनका लोकतांत्रिक चरित्र और कमजोर किया जा सके .
शहरी समाज का एक हिस्सा जो कंफर्टेबल ज़ोन में रहता आया है वो इस निर्मित व्यवस्था की क्रूरता से अनजान है .
फ़िल्म के कई हिस्से आपको क्रूर लगेंगे पर यही सच है विशेष कर थाने के दृश्य ,घरों से खींच कर सस्पेक्टेड के साथ किया जाने वाला बर्ताव ,पुलिस वालों की बॉडी लैंग्वेज . उनमे गिल्ट का अभाव.
जातियां केवल गांव में ही नही शहरों में भी बेताल की तरह लोगो की पीठ से लदी है .पढ़े लिखे लोगो की पीठ जो बेताल को ही नही छोड़ना चाहती .
फ़िल्म देखिये क्योंकि ये बतायेगी के इसी दुनिया के कई हिस्से है और कुछ हिस्सों की दुनिया मे ईश्वर की उपस्थिति लेट हुई है ,और उस दुनिया को अब भी मनुष्य ही चला रहे है.
Writer : Anurag Arya