Monday 5 September 2011

विनाश की कीमत पर बिजली


हिरोशिमा और नगासाकी में हुई तबाही की याद आज भी रोंगटे खड़े कर देती है। इस समय जापान में जो कुछ भी घटित हो रहा है, उसे देखकर पूरी दुनिया हैरान है। विनाशकारी भूकंप और प्रलयंकारी सुनामी के बाद तबाही का सामना कर रहे जापान में फुकुशिमा दायची परमाणु संयंत्रों में परमाणु दुर्घटना की बढ़ती जा रही आशंका से दिल कांप उठता है। जापान द्वारा फुकुशिमा परमाणु संयंत्र के सतर्कता स्तर को बढ़ाकर पांच कर देने से अब यह 1986 में यूक्रेन की चेर्नोबिल परमाणु त्रासदी से दो स्तर नीचे रह गया है।

जापान की यह त्रासदी बार-बार हमारा ध्यान महाराष्ट्र के जैतापुर में बनने वाले परमाणु ऊर्जा संयंत्र की ओर खींच रही है। फुकुशिमा की तरह जैतापुर में भी एक भूकंप जोन पर समुद्री तट के पास एक परमाणु संयंत्र बनने जा रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि यहां प्रौद्योगिकी की गुणवत्ता में इजाफा किए जाने की बात है। पिछले कुछ समय से परमाणु शक्ति को भारत की ऊर्जा समस्या के समाधान के रूप में पेश किया जा रहा है। अमेरिका से परमाणु समझौते के बाद इस दिशा में प्रतिबद्धता ज्यादा नजर आ रही है। देश के कम से कम आठ राज्यों में करीब 31 नए परमाणु रिएक्टर लगाए जाएंगे। इनमें से अधिकतर समुद्र के किनारे घनी आबादी वाले इलाकों में बनेंगे।

इससे इनकार नहीं है कि प्रथम दृष्टया कोयले पर आधारित थर्मल पावर की जगह परमाणु ऊर्जा ज्यादा साफ-सुथरी और कोयले व उड़नराख से निजात दिलाने वाली नजर आती है। पर इसमें रेडिएशन से होने वाले विनाश के बारे में कम ही सोचा जाता है। सच कहें, तो यह विनाश सोचने की शक्ति से बाहर तक अकल्पनीय होता है। लेकिन जापान की त्रासदी के बाद इस दिशा में लोग सोचने लगे हैं। यही वजह है कि जर्मनी में विगत 13 मार्च को हजारों लोगों ने परमाणु-विरोधी प्रदर्शन किया। नतीजतन चांसलर एंजिला मर्केल ने फौरी तौर पर परमाणु कार्यक्रमों पर रोक लगा दी है।

दूसरी तरफ भारतीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल काकोदकर जैतापुर परमाणु ऊर्जा परियोजना को जरूरी ठहरा रहे हैं। उनकी यह दलील गले नहीं उतरती कि फुकुशिमा के रिएक्टर बहुत पुरानी तकनीक और डिजाइन के थे और भविष्य में एहतियात बरतते हुए ऐसे न्यूक्लियर प्लांट बनाए जा सकते हैं, जो भूकंपों और सुनामी को झेल पाएं। वस्तुतः चेर्नोबिल और थ्री माइल आइलैंड हादसों में तो कोई भूकंप नहीं आया था। थ्री माइल आइलैंड हादसे ने तो अमेरिका के परमाणु उद्योग को रुकने पर मजबूर कर दिया। गौरतलब है कि 28 मार्च, 1979 को डाउफिन काउंटी पेंसिल्वेनिया में थ्री माइल आइलैंड परमाणु संयत्र यूनिट के दूसरे रिएक्टर में हादसा हुआ था। भले उससे कोई मानवीय नुकसान नहीं हुआ था, पर वहां इन बीस वर्षों में कोई नया परमाणु ऊर्जा संयंत्र नहीं बना।

परमाणु शक्ति ऊर्जा का एक ऐसा स्रोत है, जिसके नतीजे बड़े भयानक हैं और इसे ऊर्जा का सुरक्षित और स्थायी स्रोत कतई नहीं माना जा सकता। यह दलील भी फिजूल है कि यदि जापान में इतना बड़ा भूकंप और इतिहास की सबसे बड़ी सुनामी न आती, तो फुकुशिमा का हादसा नहीं होता। परमाणु विखंडन के साथ समस्या यह है कि एक बार दुर्घटना होने पर केवल वर्तमान ही खत्म नहीं होता, आनेवाली अनेक पीढ़ियों का जीवन भी दांव पर लग जाता है।

परमाणु ऊर्जा का सबसे बदसूरत पक्ष 1986 में हुए चेर्नोबिल हादसे के बाद ऐसा उभरकर आया कि पूरी दुनिया में इस उद्योग को ग्रहण-सा लग गया। उस हादसे के बाद अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) ने परमाणु दायित्व पर काम शुरू करने का फैसला लिया और विश्वव्यापी मापदंड भी तय किए किए। वर्ष 1988 में वियेना और पेरिस सम्मेलनों में हुए निर्णयों पर अमल के लिए एक संयुक्त प्रोटोकॉल स्वीकार किया गया, जो 1992 में जाकर लागू हो पाया। भोपाल गैस त्रासदी हालांकि परमाणु दुर्घटना नहीं थी, लेकिन भारत के इतिहास में यह अब तक हुए सबसे भयानक हादसों में से एक जरूर है।

सवाल यह है कि भारत मौजूदा परमाणु उद्योग के सुरक्षा संबंधी प्रभावों से निपटने में क्या सक्षम है। दिल्ली के मायापुरी में हुई रेडिएशन की घटना से साबित हो गया है कि भारत के पास विकिरण संबंधी घटनाओं से निपटने के लिए कोई आपातकालीन तैयारी या प्रबंध नहीं है। 
सीमा जावेद

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