Monday, 31 December 2012
Saturday, 29 December 2012
एक रोचक जीवन वृत्त की कहानी शायद आपके आस पास भी कुछ ऐसी ही हो।
यात्रियों से खचाखच भरी ट्रेन में टी.टी.ई. को एक
पुराना फटा सा पर्स मिला। उसने पर्स को खोलकर यह
पता लगाने की कोशिश की कि वह किसका है। लेकिन पर्स
में ऐसा कुछ नहीं था जिससे कोई सुराग मिल सके। पर्स में
कुछ पैसे और भगवान श्रीकृष्ण की फोटो थी। फिर उस
... टी.टी.ई. ने हवा में पर्स हिलाते हुए पूछा -"यह
किसका पर्स है?"
एक बूढ़ा यात्री बोला -"यह मेरा पर्स है। इसे कृपया मुझे
दे दें।"टी.टी.ई. ने कहा -"तुम्हें यह साबित
करना होगा कि यह पर्स तुम्हारा ही है। केवल तभी मैं यह
पर्स तुम्हें लौटा सकता हूं।"उस बूढ़े व्यक्ति ने दंतविहीन
मुस्कान के साथ उत्तर दिया -"इसमें भगवान श्रीकृष्ण
की फोटो है।"टी.टी.ई. ने कहा -"यह कोई ठोस सबूत
नहीं है। किसी भी व्यक्ति के पर्स में भगवान श्रीकृष्ण
की फोटो हो सकती है। इसमें क्या खास बात है? पर्स में
तुम्हारी फोटो क्यों नहीं है?"
बूढ़ा व्यक्ति ठंडी गहरी सांस भरते हुए बोला -"मैं तुम्हें
बताता हूं कि मेरा फोटो इस पर्स में क्यों नहीं है। जब मैं
स्कूल में पढ़ रहा था, तब ये पर्स मेरे पिता ने मुझे
दिया था। उस समय मुझे जेबखर्च के रूप में कुछ पैसे मिलते थे।
मैंने पर्स में अपने माता-पिता की फोटो रखी हुयी थी।
जब मैं किशोर अवस्था में पहुंचा, मैं अपनी कद-काठी पर
मोहित था। मैंने पर्स में से माता-पिता की फोटो हटाकर
अपनी फोटो लगा ली। मैं अपने सुंदर चेहरे और काले घने
बालों को देखकर खुश हुआ करता था। कुछ साल बाद
मेरी शादी हो गयी। मेरी पत्नी बहुत सुंदर थी और मैं उससे
बहुत प्रेम करता था। मैंने पर्स में से अपनी फोटो हटाकर
उसकी लगा ली। मैं घंटों उसके सुंदर चेहरे
को निहारा करता।
जब मेरी पहली संतान का जन्म हुआ, तब मेरे जीवन
का नया अध्याय शुरू हुआ। मैं अपने बच्चे के साथ खेलने के लिए
काम पर कम समय खर्च करने लगा। मैं देर से काम पर
जाता ओर जल्दी लौट आता। कहने की बात नहीं, अब मेरे
पर्स में मेरे बच्चे की फोटो आ गयी थी।"
बूढ़े व्यक्ति ने डबडबाती आँखों के साथ
बोलना जारी रखा -"कई वर्ष पहले मेरे माता-
पिता का स्वर्गवास हो गया। पिछले वर्ष
मेरी पत्नी भी मेरा साथ छोड़ गयी। मेरा इकलौता पुत्र
अपने परिवार में व्यस्त है। उसके पास मेरी देखभाल का क्त
नहीं है। जिसे मैंने अपने जिगर के टुकड़े की तरह पाला था,
वह अब मुझसे बहुत दूर हो चुका है। अब मैंने भगवान कृष्ण
की फोटो पर्स में लगा ली है। अब जाकर मुझे एहसास हुआ है
कि श्रीकृष्ण ही मेरे शाश्वत साथी हैं। वे हमेशा मेरे साथ
रहेंगे। काश मुझे पहले ही यह एहसास हो गया होता।
जैसा प्रेम मैंने अपने परिवार से किया, वैसा प्रेम यदि मैंने
ईश्वर के साथ किया होता तो आज मैं
इतना अकेला नहीं होता।"
टी.टी.ई. ने उस बूढ़े व्यक्ति को पर्स लौटा दिया। अगले
स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही वह टी.टी.ई. प्लेटफार्म पर बने
बुकस्टाल पर पहुंचा और विक्रेता से बोला -"क्या तुम्हारे
पास भगवान की कोई फोटो है? मुझे अपने पर्स में रखने के
लिए चाहिए।
पुराना फटा सा पर्स मिला। उसने पर्स को खोलकर यह
पता लगाने की कोशिश की कि वह किसका है। लेकिन पर्स
में ऐसा कुछ नहीं था जिससे कोई सुराग मिल सके। पर्स में
कुछ पैसे और भगवान श्रीकृष्ण की फोटो थी। फिर उस
... टी.टी.ई. ने हवा में पर्स हिलाते हुए पूछा -"यह
किसका पर्स है?"
एक बूढ़ा यात्री बोला -"यह मेरा पर्स है। इसे कृपया मुझे
दे दें।"टी.टी.ई. ने कहा -"तुम्हें यह साबित
करना होगा कि यह पर्स तुम्हारा ही है। केवल तभी मैं यह
पर्स तुम्हें लौटा सकता हूं।"उस बूढ़े व्यक्ति ने दंतविहीन
मुस्कान के साथ उत्तर दिया -"इसमें भगवान श्रीकृष्ण
की फोटो है।"टी.टी.ई. ने कहा -"यह कोई ठोस सबूत
नहीं है। किसी भी व्यक्ति के पर्स में भगवान श्रीकृष्ण
की फोटो हो सकती है। इसमें क्या खास बात है? पर्स में
तुम्हारी फोटो क्यों नहीं है?"
बूढ़ा व्यक्ति ठंडी गहरी सांस भरते हुए बोला -"मैं तुम्हें
बताता हूं कि मेरा फोटो इस पर्स में क्यों नहीं है। जब मैं
स्कूल में पढ़ रहा था, तब ये पर्स मेरे पिता ने मुझे
दिया था। उस समय मुझे जेबखर्च के रूप में कुछ पैसे मिलते थे।
मैंने पर्स में अपने माता-पिता की फोटो रखी हुयी थी।
जब मैं किशोर अवस्था में पहुंचा, मैं अपनी कद-काठी पर
मोहित था। मैंने पर्स में से माता-पिता की फोटो हटाकर
अपनी फोटो लगा ली। मैं अपने सुंदर चेहरे और काले घने
बालों को देखकर खुश हुआ करता था। कुछ साल बाद
मेरी शादी हो गयी। मेरी पत्नी बहुत सुंदर थी और मैं उससे
बहुत प्रेम करता था। मैंने पर्स में से अपनी फोटो हटाकर
उसकी लगा ली। मैं घंटों उसके सुंदर चेहरे
को निहारा करता।
जब मेरी पहली संतान का जन्म हुआ, तब मेरे जीवन
का नया अध्याय शुरू हुआ। मैं अपने बच्चे के साथ खेलने के लिए
काम पर कम समय खर्च करने लगा। मैं देर से काम पर
जाता ओर जल्दी लौट आता। कहने की बात नहीं, अब मेरे
पर्स में मेरे बच्चे की फोटो आ गयी थी।"
बूढ़े व्यक्ति ने डबडबाती आँखों के साथ
बोलना जारी रखा -"कई वर्ष पहले मेरे माता-
पिता का स्वर्गवास हो गया। पिछले वर्ष
मेरी पत्नी भी मेरा साथ छोड़ गयी। मेरा इकलौता पुत्र
अपने परिवार में व्यस्त है। उसके पास मेरी देखभाल का क्त
नहीं है। जिसे मैंने अपने जिगर के टुकड़े की तरह पाला था,
वह अब मुझसे बहुत दूर हो चुका है। अब मैंने भगवान कृष्ण
की फोटो पर्स में लगा ली है। अब जाकर मुझे एहसास हुआ है
कि श्रीकृष्ण ही मेरे शाश्वत साथी हैं। वे हमेशा मेरे साथ
रहेंगे। काश मुझे पहले ही यह एहसास हो गया होता।
जैसा प्रेम मैंने अपने परिवार से किया, वैसा प्रेम यदि मैंने
ईश्वर के साथ किया होता तो आज मैं
इतना अकेला नहीं होता।"
टी.टी.ई. ने उस बूढ़े व्यक्ति को पर्स लौटा दिया। अगले
स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही वह टी.टी.ई. प्लेटफार्म पर बने
बुकस्टाल पर पहुंचा और विक्रेता से बोला -"क्या तुम्हारे
पास भगवान की कोई फोटो है? मुझे अपने पर्स में रखने के
लिए चाहिए।
भिखारी ठाकुर के जीवन काल पर एक लेख
Bhikhari thakur भिखारी ठाकुर |
भिखारी ठाकुर ने बिदेसिया, भाई-विरोध, बेटी-वियोग, विधवा-विलाप, कलयुग-प्रेम, राधेश्याम बहार, गंगा-स्नान, पुत्र-वध, गबरघिचोर, बिरहा-बहार, नकलभांड के नेटुआ, और ननद-भउजाई आदि नाटकों की रचना की। भजन-कीर्तन और गीत-कविता आदि की लगभग इतनी ही पुस्तकें प्रकाशित हुईं। लोक प्रचलित धुनों में रचे गये गीतों और मर्मस्पर्शी कथानक वाले नाटक बिदेसिया ने भोजपुरीभाषी जनजीवन की चिंताओं को अभिव्यक्ति दी। जीविका की तलाश में दूरस्थ नगरों की ओर गये लोगों की गांव में छूट गयी स्त्रियों की विविध छवियों को उन्होंने रंगछवियों में रूपांतरित किया। अपनी लोकोपयोगिता के चलते बिदेसिया भिखारी ठाकुर के समूचे सृजन का पर्याय बन गया। बेटी-वियोग में स्त्री-पीड़ा का एक और रूप सामने था। पशु की तरह किसी भी खूंटे से बांध दिये जाने का दुख और वस्तु की तरह बेच कर धन-संग्रह के लालच की निकृष्टता को उन्होंने अपने इस नाटक का कथ्य बनाया और ऐसी रंगभाषा रची जिसकी अर्थदीप्ति से गह्वरों में छिपीं नृशंसताएं उजागर हो उठीं। यह अतिशयोक्ति नहीं है और जनश्रुतियों में दर्ज है कि बेटी-वियोग के प्रदर्शन से भोजपुरीभाषी जीवन में भूचाल आ गया था। भिखारी ठाकुर को विरोध का सामना करना पड़ा। पर यह विरोध सांच की आंच के सामने टिक न सका। उनकी आवाज़ और अपेक्षाकृत टांसदार हो उठी। इतनी टांसदार कि आज़ादी के बाद भी स्त्री-पीड़ा का नाद बन हिंदी कविता तक पहुंची। बेटी-वियोग का नाम उन दिनों ही गुम हो गया और जनता ने इसे नया नाम दिया – बेटी-बेचवा। गबरघिचोर नाटक में भिखारी ठाकुर विस्मित करते हैं। उनकी पृष्ठभूमि ऐसी नहीं थी कि उन्होंने खड़िया का घेरा पढ़ा या देखा हो। कोख पर स्त्री के अधिकार के बुनियादी प्रश्न को वह जिस कौशल के साथ रचते हैं, वह लोकजीवन के गहरे यथार्थ में धंसे बिना सम्भव नहीं।
भिखारी ठाकुर पर यह आरोप लगता रहा कि वह स्वतंत्रता संग्राम के उथल-पुथल भरे समय में निरपेक्ष होकर नाचते-गाते रहे। यह सवाल उठता रहा कि क्या सचमुच भिखारी ठाकुर के नाच का आज़ादी से कोई रिश्ता था। उनके नाच का आज़ादी से बड़ा सघन रिश्ता था। अंग्रेज़ों से देश की मुक्ति के कोलाहल के बीच उनका नाच आधी आबादी के मुक्ति-संघर्ष की ज़मीन रच रहा था। भिखारी ठाकुर की आवाज़ अधरतिया की आवाज़ थी। अंधेरे में रोती-कलपती और छाती पर मुक्के मारकर विलाप करती स्त्रियों का आवाज़। यह आवाज़ आज भी भटक रही है। राष्ट्रगान से टकरा रही है। (आलोचना पत्रिका में पूर्व प्रकाशित लेख का संपादित अंश)
गैंगरेप पीड़िता ने ट्यूशन पढ़ाकर पढ़ाई की थी
शनिवार को मौत की नींद में सो जाने वाली दिल्ली की साहसी युवती का सम्बंध
उत्तर प्रदेश के बलिया से था और उसने अपनी स्कूल तथा कॉलेज की शिक्षा का
खर्च ट्यूशन पढ़ाकर निकाला था. युवती को जानने वालों ने कहा कि वह मेहनती
थी और जीवन में आगे बढ़ना चाहती थी.
जानने वालों के मुताबिक युवती
का परिवार करीब 25 साल पहले आकर दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली के एक मध्य वर्गीय
परिवेश में बसा था. वहीं 23 वर्ष पहले युवती का जन्म हुआ था. युवती की
प्रतिभा को देखते हुए उसके पिता ने उच्च शिक्षा के लिए कर्ज लिया था.
कॉलेज की शिक्षा पूरी करने के बाद फिजियोथेरेपिस्ट का प्रशिक्षण लेने के
लिए वह देहरादून गई थी. वहां से लौटने के बाद उसने उत्तरी दिल्ली के एक
निजी अस्पताल में प्रशिक्षु के रूप में काम करना शुरू किया था.
युवती अपने घर की सबसे बड़ी संतान थी और माता-पिता को उम्मीद थी कि उसकी
सफलता से उसके दो छोटे भाइयों को भी आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलेगी.
जानकार ने कहा कि किसी भी परिवार की तरह उसके माता पिता को भी उम्मीद थी
कि उसे अच्छी नौकरी तथा अच्छा वेतन मिलेगा, लेकिन 16 दिसम्बर को सामूहिक
दुष्कर्म की शिकार हो जाने से उसका और उसके परिवार का सपना चूर हो गया.
इसके बाद 13 दिनों तक जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष करते हुए आखिर सिंगापुर
में शनिवार को युवती का निधन हो गया
साभार:- व्यर्थ शास्त्र
दूसरों के नहीं स्वयं के सेवक बनो !!!
एक जज साहब कार में जा रहे थे, अदालत की ओर। मार्ग में देखा कि एक कुत्ता
नाली में फंसा हुआ है। जीने की इच्छा है, किंतु प्रतीक्षा है कि कोई आए और
उसे कीचड़ से बाहर निकाल दे। जज साहब ने कार रुकवाई और पहुंचे उस कुत्ते के
पास। उनके दोनों हाथ नीचे झुक गए और कुत्ते को निकाल कर सड़क पर खड़ा कर
दिया। सेवा वही कर सकता है जो झुकना जानता है।
बाहर निकलते ही कुत्ते ने जोर से सारा शरीर हिलाया और पास खड़े जज साहब के कपड़ों पर ढेर सारा कीचड़ लग गया। सारे कपड़ों पर कीचड़ के धब्बे लग गए। किंतु जज साहब घर नहीं लौटे। उन्हीं वस्त्रों में पहुंच गए अदालत में। सभी चकित हुए, किंतु जज साहब के चेहरे पर अलौकिक आनंद की आभा थी।
वे शांत थे। लोगों के बार-बार पूछने पर बोले, मैंने अपने हृदय की तड़पन मिटाई है, मुझे बहुत शांति मिली है। वास्तव में दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं। दूसरों की सेवा हम कर ही नहीं सकते। वे तो मात्र निमित्त बन सकते हैं। उन निमित्तों के सहारे हमें अपने अंतरंग में उतरना होता है, यही सबसे बड़ी सेवा है।
वास्तविक सुख स्वावलंबन में है। आपको शायद याद होगा, उस हाथी का किस्सा जो दलदल में फंस गया था। वह जितना प्रयास करता उतना अधिक धंसता जाता। बाहर निकलने का एक ही मार्ग था कि कीचड़ सूर्य की धूप में सूख जाए। इसी तरह आप भी संकल्पों - विकल्पों के दलदल में फंस रहे हो। अपनी ओर देखने का अभ्यास करो, अपने आप ही ज्ञान की किरणों से यह मोह की कीचड़ सूख जाएगी।
बस अपनी सेवा में जुट जाओ, अपने आपको कीचड़ से बचाने का प्रयास करो।
महावीर ने यही कहा है, 'सेवक बनो स्वयं के।' और खुदा ने भी यही कहा है, 'खुद का बंदा बन।' एक सज्जन जब भी आते हैं , एक अच्छा शेर सुना कर जाते हैं। हमें याद हो गया है :
अपने दिल में डूब कर पा ले सुरागे जिंदगी।
तू अगर मेरा नहीं बनता , न बन , अपना तो बन।।
सेवक मत बनो , स्वयं के सेवक बनो। भगवान के सेवक भी स्वयं के सेवक नहीं बन पाते। खुदा का बंदा बनना आसान है , किंतु खुद का बंदा बनना कठिन है। खुद के बंदे बनो। भगवान की सेवा हम और आप क्या कर सकेंगे , वे तो निर्मल और निराकार हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में अकेले जीने की बात को आत्मविकास का प्रयास माना जाता है , क्योंकि वहां यही चिंतन शेष रहता है कि व्यक्ति अकेला जनमता है , अकेला मरता है। यहां कोई अपना - पराया नहीं। सुख - दुख भी स्वयं द्वारा कृत कर्मों का फल है। क्यों किसी के लिए जीएं ?
सामाजिक दृष्टि से सबके लिए जीने को तत्पर बने।
बाहर निकलते ही कुत्ते ने जोर से सारा शरीर हिलाया और पास खड़े जज साहब के कपड़ों पर ढेर सारा कीचड़ लग गया। सारे कपड़ों पर कीचड़ के धब्बे लग गए। किंतु जज साहब घर नहीं लौटे। उन्हीं वस्त्रों में पहुंच गए अदालत में। सभी चकित हुए, किंतु जज साहब के चेहरे पर अलौकिक आनंद की आभा थी।
वे शांत थे। लोगों के बार-बार पूछने पर बोले, मैंने अपने हृदय की तड़पन मिटाई है, मुझे बहुत शांति मिली है। वास्तव में दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं। दूसरों की सेवा हम कर ही नहीं सकते। वे तो मात्र निमित्त बन सकते हैं। उन निमित्तों के सहारे हमें अपने अंतरंग में उतरना होता है, यही सबसे बड़ी सेवा है।
वास्तविक सुख स्वावलंबन में है। आपको शायद याद होगा, उस हाथी का किस्सा जो दलदल में फंस गया था। वह जितना प्रयास करता उतना अधिक धंसता जाता। बाहर निकलने का एक ही मार्ग था कि कीचड़ सूर्य की धूप में सूख जाए। इसी तरह आप भी संकल्पों - विकल्पों के दलदल में फंस रहे हो। अपनी ओर देखने का अभ्यास करो, अपने आप ही ज्ञान की किरणों से यह मोह की कीचड़ सूख जाएगी।
बस अपनी सेवा में जुट जाओ, अपने आपको कीचड़ से बचाने का प्रयास करो।
महावीर ने यही कहा है, 'सेवक बनो स्वयं के।' और खुदा ने भी यही कहा है, 'खुद का बंदा बन।' एक सज्जन जब भी आते हैं , एक अच्छा शेर सुना कर जाते हैं। हमें याद हो गया है :
अपने दिल में डूब कर पा ले सुरागे जिंदगी।
तू अगर मेरा नहीं बनता , न बन , अपना तो बन।।
सेवक मत बनो , स्वयं के सेवक बनो। भगवान के सेवक भी स्वयं के सेवक नहीं बन पाते। खुदा का बंदा बनना आसान है , किंतु खुद का बंदा बनना कठिन है। खुद के बंदे बनो। भगवान की सेवा हम और आप क्या कर सकेंगे , वे तो निर्मल और निराकार हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में अकेले जीने की बात को आत्मविकास का प्रयास माना जाता है , क्योंकि वहां यही चिंतन शेष रहता है कि व्यक्ति अकेला जनमता है , अकेला मरता है। यहां कोई अपना - पराया नहीं। सुख - दुख भी स्वयं द्वारा कृत कर्मों का फल है। क्यों किसी के लिए जीएं ?
सामाजिक दृष्टि से सबके लिए जीने को तत्पर बने।
Who is a True Indian? read this and think....
Who is a True Indian? read this and think.....
Mr. Narayanaswamy
First Rank in State in Secondary School Examination
First Rank in University in Plus Two
First Rank in IIT Entrance Examination
First Rank in All India IIT Computer Science
First Rank in IAS Entrance Examination
First Rank in IAS Training Institute
On passing out from IIT Chennai Mr. Narayanaswamy was offered scholarship by the prestigious Massachusetts Institute of Technology , USA .. He who came from a middle class family believed that he had a moral obligation to give something in return for the lakhs of rupees the government spent on him as an IIT student. He had the intelligence and conviction to realize that this money came also from the poorest of the poor - who pay up the excise duty on textiles when they buy cloth, who pay up customs, excise and sales tax on diesel when they travel in a bus, and in numerous other ways indirectly pay the government. So he decided to join IAS hoping he could do something for the people of this country. How many young men have the will power to resist such an offer from USA ? Narayanaswamy did never look at IAS as a black money spinner as his later life bears testimony to this fact.
After a decade of meritorious service in IAS, today, Narayanaswamy is being forced out of the IAS profession. Do you know why?
A real estate agent wanted to fill up a paddy field which is banned under law. An application came up before Narayanaswamy who was sub collector the, for an exemption from this rule for this plot of land. Upon visiting the site he found that the complaint from 60 poor families that they will face water logging due to the waste water from a nearby Government Medical College if this paddy field was filled up was correct. Narayanswamy came under intense political pressure but he did what was right - refused permission for filling up the paddy field. That was his first confrontation with politicians.
Soon after his marriage his father-in-law closed down a public road to build compound wall for his plot of land. People approached Narayanaswamy with complaint.
When talking with his own father-in-law did not help, he removed the obstructing wall with police help. The result, his marriage broke up.
As district Collector he raided the house of a liquor baron who had defaulted Rupees 11 crores payment to government and carried out revenue recovery. A Minister directly telephoned him and ordered to return the forfeited articles to the house of the liquor baron. Narayanswamy politely replied that it is difficult. The minister replied that Narayanaswamy will suffer.
In his district it was a practice to collect crores of rupees for earthen bunds meant for poor farmers, but which were never constructed. A bill for rupees 8 crores came up before Narayanaswamy. He inspected the bund. He found it very weak and said that he will pass the bill after the rainy season to ensure that the bund served the purpose. As expected the earthen bund was too weak to stand the rain and it disappeared in the rain. But he created a lot of enemies for saving 8 crores public money. The net result of all such unholy activities was that he was asked to go on leave by the government. Later such an illustrious officer was posted as "State Co-Ordinator, Quality Improvement Programme for Schools". This is what the politician will do to a honest officer with backbone - post him in the most powerless position to teach him a lesson. Since he found that nothing can be achieved for the people if he continued with the State Service he opted for central service. But that too was denied on some technical ground.
What will you do when you have a brilliant computer career anywhere in the world you choose with the backing of several advanced technical papers too published in international journals to your credit?
When you are powerless to do anything for the people, why should you waste your life as the Co-Ordinator for a Schools Programme?
Mr. Narayanaswamy is on the verge of leaving IAS to go to Paris to take up a well paid United Nations assignment. The politicians can laugh thinking another obstacle has been removed. But it is the helpless people of this country who will lose - not Narayanaswamy. But you have the power to support capable and honest bureaucra ts like Narayaswamy, G.R.Khairnar and Alphons Kannamthanam who have suffered a lot under self seeking politicians who rule us. You have even the power to replace such politicians with these kind of people dedicated to the country. The question is will you do the little you can do NOW? At least a vote or word in support of such personalities?
THINK ABOUT IT GUYS...!!! Chiragan
PLEASE SHARE...!
Mr. Narayanaswamy
First Rank in State in Secondary School Examination
First Rank in University in Plus Two
First Rank in IIT Entrance Examination
First Rank in All India IIT Computer Science
First Rank in IAS Entrance Examination
First Rank in IAS Training Institute
On passing out from IIT Chennai Mr. Narayanaswamy was offered scholarship by the prestigious Massachusetts Institute of Technology , USA .. He who came from a middle class family believed that he had a moral obligation to give something in return for the lakhs of rupees the government spent on him as an IIT student. He had the intelligence and conviction to realize that this money came also from the poorest of the poor - who pay up the excise duty on textiles when they buy cloth, who pay up customs, excise and sales tax on diesel when they travel in a bus, and in numerous other ways indirectly pay the government. So he decided to join IAS hoping he could do something for the people of this country. How many young men have the will power to resist such an offer from USA ? Narayanaswamy did never look at IAS as a black money spinner as his later life bears testimony to this fact.
After a decade of meritorious service in IAS, today, Narayanaswamy is being forced out of the IAS profession. Do you know why?
A real estate agent wanted to fill up a paddy field which is banned under law. An application came up before Narayanaswamy who was sub collector the, for an exemption from this rule for this plot of land. Upon visiting the site he found that the complaint from 60 poor families that they will face water logging due to the waste water from a nearby Government Medical College if this paddy field was filled up was correct. Narayanswamy came under intense political pressure but he did what was right - refused permission for filling up the paddy field. That was his first confrontation with politicians.
Soon after his marriage his father-in-law closed down a public road to build compound wall for his plot of land. People approached Narayanaswamy with complaint.
When talking with his own father-in-law did not help, he removed the obstructing wall with police help. The result, his marriage broke up.
As district Collector he raided the house of a liquor baron who had defaulted Rupees 11 crores payment to government and carried out revenue recovery. A Minister directly telephoned him and ordered to return the forfeited articles to the house of the liquor baron. Narayanswamy politely replied that it is difficult. The minister replied that Narayanaswamy will suffer.
In his district it was a practice to collect crores of rupees for earthen bunds meant for poor farmers, but which were never constructed. A bill for rupees 8 crores came up before Narayanaswamy. He inspected the bund. He found it very weak and said that he will pass the bill after the rainy season to ensure that the bund served the purpose. As expected the earthen bund was too weak to stand the rain and it disappeared in the rain. But he created a lot of enemies for saving 8 crores public money. The net result of all such unholy activities was that he was asked to go on leave by the government. Later such an illustrious officer was posted as "State Co-Ordinator, Quality Improvement Programme for Schools". This is what the politician will do to a honest officer with backbone - post him in the most powerless position to teach him a lesson. Since he found that nothing can be achieved for the people if he continued with the State Service he opted for central service. But that too was denied on some technical ground.
What will you do when you have a brilliant computer career anywhere in the world you choose with the backing of several advanced technical papers too published in international journals to your credit?
When you are powerless to do anything for the people, why should you waste your life as the Co-Ordinator for a Schools Programme?
Mr. Narayanaswamy is on the verge of leaving IAS to go to Paris to take up a well paid United Nations assignment. The politicians can laugh thinking another obstacle has been removed. But it is the helpless people of this country who will lose - not Narayanaswamy. But you have the power to support capable and honest bureaucra ts like Narayaswamy, G.R.Khairnar and Alphons Kannamthanam who have suffered a lot under self seeking politicians who rule us. You have even the power to replace such politicians with these kind of people dedicated to the country. The question is will you do the little you can do NOW? At least a vote or word in support of such personalities?
THINK ABOUT IT GUYS...!!! Chiragan
PLEASE SHARE...!
Friday, 21 December 2012
Thursday, 20 December 2012
गरीब, गरीबी और शिक्षा का अधिकार कानून
गरीब, गरीबी और शिक्षा का अधिकार कानून |
अब प्रश्न यह उठता है शिक्षा के अधिकार का यह कानून क्या व्यवाहरिक रूप में इस देश में लागू हो पायेगा ? क्या वास्तव में इस देश के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए बच्चो को यह अधिकार शिक्षा दिला पायेगा ? क्या उन्हें कभी यह पता चल पायेगा कि उनके पास भी शिक्षा पाने का संवैधानिक अधिकार है? क्या वास्तव में प्राइवेट स्कूल जिनकी महीने की फीस पांच -पांच हजार रूपये है गरीब बच्चो को अपने स्कूल में दाखिला देंगे जिनके माँ – बाप ५००० तो दूर ५०० रूपये की भी फीस दे पाने में असमर्थ है ?कहने का तात्पर्य यह है कि जिस देश में लाखो बच्चे आर्थिक विषमता के चलते बाल श्रम करने को मजबूर हो उस देश में ऐसे अधिकार का क्या मतलब है ?
वास्तव में ऐसे कानून को देकर सरकार ने एक बार फिर देश में भ्रष्टाचार का एक नया रास्ता खोल दिया. जिस प्रकार अभी तक गरीब छात्रों को मिलने वाली छात्रवृति को आर्थिक रूप से संपन्न बच्चो द्वारा लेने तथा स्कूलों द्वारा गरीब बच्चो की छात्रवृति हजम कर लेने का मामला उजागर होता आया है उसी तरह आने वाले दिनों इस अधिकार के तहत मिलने वाली सुविधाए भी गरीब बच्चो का न मिलकर उन बच्चो को मिलेगी जिनके अभिभावक आर्थिक रूप से संपन्न है. अब इस कानून के माध्यम से भी शिक्षण संसथान अवैध धन उगाही का कार्यक्रम चालू करेंगे. इस अधिकार के तहत शिक्षण संसथान आरक्षित सीट पर फर्जी प्रमाण पत्रों के माध्यम से उन बच्चो का एडमिशन करेंगे जिनके माँ बाप मोटी रकम शिक्षण संसथान को दे पाने में सक्षम होंगे. मतलब गरीब का बच्चा तो वही का वही रहा जहाँ वो था. हो सकता इस कानून के माध्यम से १० प्रतिशत गरीब बच्चो को शिक्षा मिल जाये लेकिन उन ९० फीसदी बच्चो का क्या होगा जो आने वाले दिनों में भी वही के वही रहेंगे जहाँ वो आज है.
समझ में नहीं आता सरकार कानून को बनाकर क्या पाती. अगर सिर्फ गरीब बच्चो पर कानून की बात करे तो अकेले बच्चो के उत्थान के लिए सरकार ने कई कानून बनाये. जिसमे बाल श्रम का कानून प्रमुख है. इस कानून को बनाने के पीछे भी सरकार की मंशा यही थी १४ साल के का उम्र तक के बच्चे मजदूरी न करके पढने जाये लेकिन परिणाम क्या निकला. आज भी देश में लाखो बच्चे बाल श्रम करने को मजबूर है क्योकि वो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं उन्हें शिक्षा से ज्यादा रोटी की जरुरत महसूस होती है.
अगर वास्तव में सरकार गरीब बच्चो के भविष्य को सवारना चाहती है तो पहले उसे इन बच्चो के परिवारवालों का भविष्य सवारना होगा. सरकर को ऐसी योजनाये चलानी होगी जिनसे इस बच्चो के माँ बाप को दो वक़्त की रोटी मिले और वो आर्थिक रूप से संपन हो सके जिस दिन इस देश का हर गरीब परिवार आर्थिक रूप से सपन्न होगा बिना किसी अधिकार और कानून के इस देश का हर बच्चा शिक्षा को हासिल करेगा क्योकि कोई भी माँ बाप ये नहीं चाहता की उसका बच्चा पढने लिखने की उम्र में काम करे लेकिन आर्थिक मज़बूरी इन अभिभावकों मजबूर करती है की वो बच्चो से काम कराये इसलिए यदि सरकार वास्तव में इन बच्चो के उत्थान के प्रति गंभीर है तो ऐसी योजनाये चलाये जो जमीनी रूप में इस बच्चो के परिवार को आर्थिक रूप से मजबूर करे और जब तक ऐसा नहीं होता शिक्षा के अधिकार जैसे कानून इस देश में भ्रष्टाचार को बढ़ायेंगे न की गरीब बच्चो को शिक्षित कर पायेंगे.
ये लेखिका के निजी विचार है।
कु0 अन्नू
UPRTOU Allahabad
Sunday, 16 December 2012
कब हम सीखेंगे? क्योकि.... "इतिहास अपने को दोहराता है"
गंगा घाट पर अर्ध्य देती महिला |
किसी भी श्रृष्टि की रचनात्मकता के लिए जीवन जरूरी है और जीवन के लिए जल! इतिहास के झरोखों में हम पलट कर देखे तो, हमे निश्चित यही दिखेगा की जितनी भी सभ्यताए निकली, पनपी, प्राचीन या आधुनिक नगर बसे सब किसी न किसी गतिमान जल स्त्रोत के समीप ही बसे। इन गतिमान जल स्त्रोतों में जो मुख्यतः थी वो हमारी नदिया ही थी। हर नदी ने ना जाने कितनो को जीवन दिया, कितनो को बसाया, उजाडा। अपने आचल में समेटे हुए ना जाने कितनी पीढियों सदियों को गुजरते देखा। कभी बच्चे के जन्म के लिए माओ को मन्नत मागते देखा तो कभी उसी बच्चे के जन्म पे महिलाओं को सोहर गाते। बच्चे की प्राप्ति के बाद भेट स्वरुप बालो को चढाते देखा तो उसीके कुशल क्षेम के लिए नदी के अन्दर समाहित होकर उगते और डूबते सूरज को अर्ध्य देते भी। बच्चा जब किशोरावस्था में पंहुचा तो अपने तट पर बसे गुरुकुलो, स्कुलो में कुशल व्यक्तित्व को पाने के लिए शिक्षा का भिक्षु बनते देखा तो थोडा बड़े होने पर अपने ही तट पर बच्चे का जनेव संस्कार भी होते देखा। जनेव के बाद उसके विवाह संस्कार में भी नदी ने खुद को प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से समाहित देखा। विवाह के उपरांत नवयुगल जोड़े को खुद के समीप आकर अब तक के लिए भेट देने के बाद फिर से कुशल जीवन के लिए, बच्चे के लिए दुआए मांगते देखा। जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुचने से पहले उसी प्राणी को अपने तट पर मोक्ष के लिए, खुद को प्रभु में समाहित करने के लिए राम नाम जपते देखा। अंतिम पड़ाव को प्राप्त करने के बाद उसी बच्चे के अवशेषों को खुद में समाहित कर प्रभु से मिलते भी देखा। इस पूरी प्रक्रिया के बाद भी बच्चे के बच्चो को अपने पूर्वजो के लिए अपने ही तट पर बछिया छु कर पिंड दान कर तर्पण करते देखा। ये तो थी मानव जीवन से जुडी एक सामान्य क्रिया अब आते कुछ और घटनाओं पर। न जाने कितने अन्य जीवो को नदियों ने अपने गोद से जोड़े रखा, कितनो को जीवन यापन के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से रोजगार दिया। अपने तटों पर ही नदी ने न जाने कितनी संस्कृतियों के मिलन में, उत्सवो मेलो के रूप में लोगो को जुटते देखा। न जाने कितने भूखे पेटो को भरने के लिए अन्न उपलब्ध करने के साथ ही कितनो को भूखे पेट सोते भी देखा। नदी ने ही ना जाने कितनी बार प्यासी धरती की प्यास बुझाई ताकि उससे हमारे और आप जैसे ना जाने कितने लोगो के पापी पेट की प्यास बुझ सके। खैर क्या कभी हम इस नदी के बिना इस ससार की कल्पना कर सकते है? एक बार सोचिये जरा। है न भयावह।।।।
संगम घाट पर कुड़ो का अम्बार |
नदी ने ना जाने हमे कितना कुछ दिया, पर, हमने उसे क्या दिया?
शहरो से निकला शिवरेज का गन्दा पानी, कारखानों/फैक्ट्रियो से निकला रासायनिक कचरा, घरो से फेका गया पोलीथिन का कचरा या अपने
स्वार्थ के लिए उसके मार्ग को अवरुद्ध कर बनाया गया बांध।
क्या हमने कभी सोचा इन सब से उस नदी
पर क्या बीत रही
है? शायद नहीं।
अल्लाह्पुर, इलाहबाद में बाढ़ की त्राशदी की एक झलक |
कहते है प्रकृति अपने नियमो को खुद बनाती है। और उसमे किसी और का हस्तक्षेप उसे बर्दाश भी नहीं है। नदिया भी उसी प्रकृति का एक हिस्सा है, वो चंचल तितली की तरह हमेशा शांत इधर-उधर उड़ती रहती है। पर जब उसकी बर्दाश करने की शक्ति, सीमा से बहार हो जाती है तो, उसी नदी को रौद्र काली का रूप धारण करने में जरा भी समय नहीं लगता है। और जब वह काली का रूप धारण करती है तो भष्मासुर की तरह सब कुछ खाती चली जाती है और पूरी की पूरी सभ्यता, संस्कृति को पलट देती है जिसके अवशेष समय के साथ-साथ हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसी खुदाइयो में ही मिलते है।
कौशाम्बी की खुदाई में मिले पुराने नगर के अवशेष |
दो बड़ी प्रचलित कहावते मुझे याद आ रही है जो मेरे हिसाब से शायद सटीक भी है- पहली तो : "जो समाज अपने
अतीत से सबक नही लेता उसको नष्ट होने से कोई नहीं रोक सकता" और दूसरी "इतिहास
अपने को दोहराता है"
इन कहावतो के बाद कुछ सवाल भी मन में आ रहे है। क्या हम इतिहास से कुछ सीखेंगे? उससे कुछ सबक लेंगे? या हम चाहेंगे इतिहास खुद को फिर से दोहराए?
इन्ही सवालो के साथ आपको छोड़े जा रहा
हु। सोचियेगा जरूर। इस पूरे लेख में कुछ पसंद आये या गलत लगे तो प्रतिक्रिया जरूर दीजियेगा, ताकि मै अपनी गलतियों को सुधार सकू। आभार!
ये लेखक के निजी विचार है।
Kinjal Kumar
Saturday, 1 December 2012
बच्चे के व्यक्तित्व के विकास में माता पिता का योगदान
बच्चे के व्यक्तित्व के विकास में माता पिता का योगदान |
सायकोलोजी में एक बेहद दिलचस्प विषय है- ट्राँसैक्शनल अनालिसिस (TRANSACTIONAL aNALYSIS) । इसके अनुसार किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व तीन खंड़ों ( इगो स्टेट्स) में बाँटा जा सकता है। एडल्ट(वयस्क),चाईल्ड(शिशु) और पेरन्ट(जनक)। 'चाईल्ड' हमारे व्यक्तित्व का शिशु है। नैसर्गिक, निर्दोष, मासूम। यह भावनाओं और अवस्था को ज्यों का त्यों महसूस करता है और उसी के अनुसार प्रतिक्रिया करता है। अनुभव से दूर , और दूरदर्शिता की चिंता बिना का व्यवहार कभी बहुत ही प्यारा और कभी बेहद लापरवाह लगता है।
कुछ लोग कभी बड़े नहीं होते। मस्त रहते हैं और किसी बात की जिम्मेदारी नहीं लेते। ऐसे लोगों के व्यक्तित्व का एक बड़ा हिस्सा चाईल्ड इगो स्टेट है । जहाँ इनका बिंदास होना सुहाता है,वहीं इनकी लापरवाही खलती है।
कुछ इस चाईल्ड को बहुत कम अहमियत देते हैं। वक्त से पहले संजीदा,गँभीर, बेहद जिम्मेदार हो जाते हैं। वे जीवन के बदलते रंगों में आत्मा नहीं डुबो पाते और मासूमियत और नये तरीके की सोच और खोज से दूर रहते हैं।
एडल्ट यानी वयस्क इगो स्टेट हमारे व्यक्तित्व का वह इगो स्टेट है जो समय के साथ बड़ा होता है। अनुभव को अपने व्यक्तित्व में समेट सोच समझ कर व्यवहार करता है।
पेरंट इगो स्टेट हमारे व्यक्तित्व का वो तिहाई हिस्सा है जो हमारे अंदर का जनक है। यह हिस्सा अक्सर बिना किसी फेर बदलाव के हम अपने माता पिता और उन लोगों से जिनका प्रभुत्व हम पर है उनसे ग्रहण करते हैं। और इसीलिए हम अपने माता पिता की तरह चलते हैं, हँसते हैं, खाँसते हैं, त्योहार में कोई खास मिठाई बनाते हैं..किसी खास अंदाज़ में तौलिया रखते हैं, खाने की मेज़ पर बैठते हैं।
माता पिता का एक तिहाई हिस्सा हम में यू ही शामिल हो जाता है। सोचने की बात है कि हम जो और जैसे हैं वह हमारे बच्चे का एक तिहाई व्यक्तित्व तय करता है। इसीलिए अपने व्यवहार से सही उदाहरण देना आवश्यक है। हमारे या उसके चाहे अनचाहे उसका व्यक्तित्व इसे आत्मसात कर लेता है।
हमारे बच्चों में हम जैसे व्यक्तित्व की कामना करते हैं, जरूरी है कि स्वयं हमारे अंदर वैसा व्यक्तित्व हो।
इन्ही इगो स्टेट्स के संदर्भ में समझा जा सकता है कि माता पिता की भूमिका एक शिशु को एक योग्य वयस्क बनाना है। और जहाँ हमारा व्यक्तित्व इस पर असर करता है वहीं हम किस वातावरण में इन्हे पालते हैं भी बेहद महत्वपूर्ण है।
बच्चों में माता पिता का अंश जरूर है किंतु वह हमारा हिस्सा या फैलाव नहीं हैं। उनकी अपनी एक अनुपम उपस्थिति है जो महज हमारे सपनों का विस्तार नहीं है। उनका अपना एक प्रवाह ,एक गति है.....हमारी जिम्मेदारी उसे सही दिशा और मजबूत किनारे देना है।
माता पिता जो कहते हैं वह किसी रेकॉर्डड टेप की तरह हमारे जहन में चलता रहता है। क्या करना चाहिए और क्या नहीं की एक लंबी लिस्ट हम सभी के पास रहती है। बचपन से कही सुनी कितनी बातें हमारे मस्तिष्क में चलती रहती हैं। घर के बाहर चप्पल उतारो,सच बोलो, खाना खाते वक्त बात मत करो, ऊपर बैठ कर पाँव मत हिलाओ, टी वी पास से नहीं देखो वगैरह। कई विचार भी हमें विरासत में मिलते हैं। लड़कियाँ ठहाके मार कर नहीं हँसती, लड़के खाना नहीं परोसेंगे, नैप्पी बदलने का काम माँ का है, माँ बाप से सवाल करना बदतमीज़ी है, औरतों के लिए सीट खाली करनी चाहिए, औरतें चुगली करती हैं,परीक्षा के पहले दही खाकर जाना चाहिए। धर्म, लिंग ,देश,रंग के कितने ही पूर्वाग्रह के लिए यह टेप जिम्मेदार हैं।
करेन होर्नी (Karen Horney)नाम की सायकोअनालिस्ट ने टायरेनी ऑफ शुड्स (Tyranny of Shoulds) का विचार रखा था। इसमें इसी टेप का जिक्र है जो हमारे व्यक्तित्व पर राज़ करता है। जाहिर है यह टेप कई गलत कामों को करने से रोकता है। वँही कई बार इस टेप के चलते हम समर्थ, उनमुक्त राय कायम करने में सक्षम नहीं रहते। अगर माँ और पिता की तरफ से मिला टेप अलग अलग बात कहता हो तो बच्चा उलझ भी सकता है।
माता पिता होने के नाते हमारा कर्तव्य बनता है कि सही टेप अपने बच्चे तक पहुँचायें। और उसे खुद सोचने और समझने और अपने निर्णय सही लेने में सक्षम बनाये।
टायरेनी ऑफ शुड्स की तरह उसके विचार और व्यक्तित्व को परीमित ना करें।
हमें हमारे बच्चे किस वक्त कहाँ और किस हाल में है जानना जरूरी है। आज़ादी की कोई भी गुहार की वजह से हमें इस बात पर लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए। बच्चा किस के साथ है, टी वी में क्या देख रहा है, कौन सी पुस्तक पढ़ रहा है, किस तरह का संगीत सुन रहा है ...सब जानकारी रखना ना केवल महत्वपूर्ण है बल्कि समय रहते सचेत होने के लिए आवश्यक भी।
ये लेखक के निजी विचार है! लेखक का परिचय:
Pinki Devi
Teacher
स्वाइन फ्लू Swine flu
स्वाइन फ्लू Swine flu
सर्दी, खाँसी और फ्लू
साधारण सर्दी खाँसी और फ्लू में बहुत सारी बातें एक सी हैं। किसी भी वायरस के संक्रमण पर शरीर उसे बाहर फेंकने की कोशिश करता है। खाँसना, छींकना, जाड़ा, उल्टियाँ यह सब इसमें मदद करती हैं। साधारण सर्दी जुकाम के लक्षण नाक के आसपास होते हैं। इनके लिए जिम्मेदार होते हैं नोस वायरसस। रेस्पिरेटरी सिनसायटियल वायरस खास तौर पर जिम्मेदार माना गया है। कभी कबार इनफ्लूएंज़ा वायरस भी सर्दी खाँसी के जिम्मेदार हो सकते हैं। कॉमन कोल्ड के मुख्य लक्षण नाक बंद होना, छींके आना और नाक का बहना है। बड़े लोगों और बड़े बच्चों में बुखार अक्सर नहीं आता। छोटे बच्चों में 100 से 102 फैरनहीट जितना बुखार आता है। गले में खराश अक्सर पाई जाती है पर गला खराब नहीं होता और उसमे लाली नही दिखती। साल भर में बच्चों में तीन से आठ बार तक सर्दी खाँसी हो सकती है। ठंडी और बरसात के मौसम में इसकी संभावना अधिक हो जाती है। बहती हुई नाक में यह वायरस बड़ी संख्या मे होता है। खाँसने, छींकने, नाक साफ करने पर, किसी संक्रमित जगह छूने के बाद चेहरा छूने पर यह वायरस फैलता है। सर्दी के वायरस के संपर्क में आने के एक से पाँच दिन के भीतर लक्षण शुरु हो जाते हैं। एक से तीन दिन में नाक से बहता पानी, हरे या पीले रंग का हो जाता है। बच्चों के कान के पर्दे लाल हो जाते हैं। करीबन सात दिन में सर्दी का असर खत्म हो जाता है।
साधारण सर्दी के सभी लक्षण गले से ऊपर के हिस्से में होते हैं। फ्लू का असर पूरे शरीर पर होता है। फ्लू इन्फ्लूएंज़ा वायरस से होता है। अधिकतर सभी को साल में एक से तीन बार तक हो सकता है। साथ में तेज बुखार होता है - बच्चों में भी और बड़ों में भी। इसके लक्षणों से तकलीफ तो होती है किंतु यह कोई भयानक रोग नहीं है। फ्लू में अचानक से तेज़ बुखार आ जाता है (102-106), चेहरा लाल , गाल सुर्ख हो जाते हैं,शरीर में दर्द उठता है ,थकान होती है और ऊर्जा की कमी महसूस होती है। कभी कबार चक्कर भी आते हैं और उल्टियाँ भी हो सकती हैं। बुखार एक दो दिन तक रहता है और कभी कबार पाँच दिन तक भी। दूसरे दिन से शरीर की तकलीफ कम होने लगती है और श्वास से संबंधित तकलीफ बढ़ जाती है। यह वायरस जहाँ केन्द्रित होते है उसके अनुसार् सर्दी, खाँसी, गले मे दर्द ,कान मे इंफेक्श्न, ब्रोंकिओलिटिस या नयूमोनिया के लक्षण दर्दी मे पाये जाते है। फ्लू का सबसे आम लक्षण है सूखी खांसी आना। अधिकतर लोगो मे सरदर्द और गले का लाल होना भी शामिल है। नाक का बहना और छींके आना भी आम है। यह सभी लक्षण चार से सात दिन के भीतर बेह्तर हो जाते है। कभी कभी इस दौरान बुखार फिर चड़ने लगता है। हफ्तों तक फ्लू से उत्पन्न कमज़ोरी रह सकती है। दर्दी सर्दी, खांसी से इस वायरस के सपर्क मे आते है। एक से सात दिन मे लक्षण दिखने शुरु होते है। हवा मे फैलने की वजह से फ्लू की संक्रमण शक्ति बेहद अधिक होती है। देखते ही देखते बडी संख्या मे बहुत लोग एक साथ बीमार हो जाते है।
फ्लू वैक्सीन
फ्लू से जूझने के लिये फ्लू वैक्सीन उप्लब्ध है। यह वैक्सीन किसी भी साल मे हुए फ्लू वायरस के स्ट्रैन पर आधारित है। जब फ्लू के नये स्ट्रैन होते है तो यह वैक्सीन कारगर नही रहती। जाहिर है कुछ सालो मे यह वैक्सीन बाकी सालों के मुकाबले अधिक कारगर रहती है।
फ्लू के स्ट्रैन में परिवर्तन होने पर यह घातक रूप धारण कर सकती है। इस शतक के शुरु मे इससे काफी जानलेवा महामारी फैली थी। ऐसी ही महामारी बीच बीच मे फैलती रहती है। साधारण तौर पर भी अकेले अमेरिका मे ही करीबन तीस से चालीस हज़ार लोग इससे ग्रस्त होकर जान से हाथ धो बैठते है। जिन लोगो मे पहले से कोई कमज़ोरी होती है वो गभीर रूप से बीमार हो सकते है। अगर काफी कम या ज़्यादा उम्र , कैंसर या डायबिटिस जैसे रोग, श्वास संबंधित रोग वगैरह हों तो इसका संक्रमण अधिक जोर पकड़ता है।
फ्लू और फ्लू महामारी
जब से मेक्सिको में स्वाइन फ्लू वायरस की खबर मिली इसमें महामारी फैलाने की क्षमता का अंदेशा होने लगा। दक्षिणी और उत्तरी गोलार्ध में फ्लू का मौसम अलग अलग समय है। फ्लू वायरस लगातार बदलते हैं। और इसीलिए दोनो गोलार्ध में एक से वायरस नहीं पाये जाते। महामारी फैलाने वाले फ्लू वायरस का आचरण साधारण फ्लू वायरस की तरह नहीं होता। यह उससे अधिक घातक होते हैं। अधिक आसानी से संक्रमित करते हैं। सही परिस्थिति में चिड़िया, सूअर वदैरह के फ्लू वायरस के जीन ह्यूमन फ्लू वायरस का अंश बन जाते हैं। चूँकि हमारी रोगप्रतिकारक शक्ति को इसका कोई परिचय नहीं होता, उसका प्रतिकार सक्षम नहीं होता। ऐसे में फ्लू वायरस शरीर पर आसानी से कब्जा जमा सकता है।
फ्लू वायरस के कितने प्रकार
तीन प्रकार। ए, बी, सी। ए से अधिकतर फ्लू के केसस होते हैं। सी के लक्षण बेहद कम होते हैं और यह पाया भी सबसे कम जाता है।
ए- इसमें 16 H और 9 N प्रकार शामिल हैं। H का मतलब हीमअग्लूटिनिन, N का मतलब न्यूरामिनिडेस। यह वायरस पर पाये जाने वाले डाँचे हैं जिनसे इनकी पहचान सँभव है। बर्ड फ्लू का वायरस है H5N1 । मनुष्यों में फिलहाल जो तीन वायरस फ्लू फैला रहे हैं वे हैं ए वायरस( two A viruses) – (A) H1N1 और (A)H3N2 – तथा एक बी (B ) वायरस. इंसानों में जो H1N1 वायरस पाया जाता है वो सवाइन फ्लू के H1N1 वायरस से अलग है।
महामारी का मतलब जानलेवा नहीं
यह समझना बेहद जरूरी है कि महामारी का मतलब जानलेवा बीमारी नहीं है। WHO ने जब स्वाइन फ्लू को महामारी कहा उनका तात्पर्य इस वायरस के फैलने की तेज़ी और क्षमता से था। दोनो गोलार्ध में एक साथ पाया जाना, मौसम और तापमान से संबन्ध ना होना - यह बातें इसे महामारी बनाती हैं।
फ्लू सर्दी के मौसम में अधिक क्यों
-अधिक समय घर के अंदर, धूप से दूर
-विटामिन डी की कमी
-हवा में सीलन की कमी जिससे श्वास के अवयव शुष्क जाते हैं और रोगाणु आसानी से पकड़ पा लेते हैं
क्या हाल की फ्लू वैक्सीन आपकी रक्षा करने में सक्षम है
मनुष्यों और स्वाइन फ्लू में पाया गया H1N1 स्ट्रैन एक दूसरे से काफी अलग है इसलिए यह कहना मुष्किल है कि हाल की वैक्सीन कितनी सुरक्षा दे सकता है।
फिर भी 65 से ऊपर के सभी, आरोग्य कार्यकर्ता, हृदय संबंधित रोगों,डायबीटिस, अस्थमा से पीड़ित लोगों का, गर्भवति स्त्री वगैरह का इस वैक्सीन का लेना जायज़ है। CDC (Centre of Disease Control) के हाल के निर्देश के हिसाब से सभी को खास तौर से बच्चों को यह वैक्सीन लेनी चाहिए।
फ्लू से स्वस्थ नौजवानों की मृत्यु क्यों
सही कारण मालूम नहीं है। किंतु अंदेशा लगाया जाता है कि इसका कारण सायटोकीन स्टार्म (cytokine storm) है। फ्लू के वायरस के दावा बोलते ही रोग प्रतिकारक शक्ति पूरी सेना उसके खिलाफ छोड़ देती है। इससे बुखार, शरीर में दर्द और अवयवों का विफल होना शुरु हो जाता है। वायरस की साफ पहचान ना होने की वजह से उसका बाल भी बाँका नहीं होता।
फिर भी यह कहना गलत होगा कि फ्लू से अधिक नौजवानों की मौत होती है। मृत में 90 फीसदी लोग 65 की उम्र के ऊपर पाये जाते हैं।
क्या वजह है कि फ्लू वायरस की इतनी दहशत है
वायरस जीव और निर्जीव के बीच की एक अवस्था है। कालांतर से यह बदलते जा रहे हैं। खुद के जैसों के उत्पादन में यह लगातार भूल करते हैं। जो भूल जिंदा रहने में सक्षम होती है आगे बड़ जाती है। यह हवा में धूल की तरह फैल कर शरीर तक पहुँचते हैं और वहाँ पहुँच कर सँख्या में बढ़ते हैं और दावा बोल देते हैं। यह इतनी जल्दि और लगातार बदलते हैं कि शरीर के लिए इनकी पूरी पहचान सँभव नहीं हो पाती। शरीर हर बार इसका नया रूप देखता है। जब तक वह खुद को इससे लड़ने को तैयार करता है यह फिर बदल जाता है।
H प्रोटीन इसे गले, श्वास नलियों की कोशिकाओं में चिपकने में मदद करता है और N प्रोटीन इन कोशिकाओ में पनप कर इन्हे तोड़ कर बाहर निकल बाकी कोशिकाओं पर हमला करने में सँभव।
टैमीफ्लू जैसी दवा इन HN प्रोटीन्स पर हमला करते हैं । किंतु अगर इनका डाँचा और बदल जाये तो जरूरी नहीं कि यह सक्षम रह सके।
ये कहाँ आ गये हम साथ साथ चलते
स्वाइन फ्लू एक महामारी है
स्वाइन फ्लू साधारण तौर पर जानलेवा नहीं है
स्वाइन फ्लू जानलेवा बन सकती है
फ्लू के बाकी वायरस की तरह ही यह भी हवा में और हवा से फैलती है
खाँसने, छींकने और बहती नाक हाथ से पोँछने से वायरस को फैलने में आसानी होती है
कड़ी धूप में यह नहीं पनप सकती
साबुन और पानी के सामन नहीं टिक सकती
बंद कमरे , भीड़ , सफाई की कमी में यह जोर पकड़ती है
स्वस्थ शरीर में अक्सर नहीं टिक पाती है
यह बदल रही है....बुरे के लिए भी हो तसकता है और अच्छे के लिए भी
वैक्सीन की खोज समझो पूरी हुई
वैक्सीन के आते ही वायरस बदलेगा नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं
हम क्या करें...क्या कर सकते हैं
1. साफ सफाई रखें और नियमित हाथ धोये।
2.चेहरे पर बेवजह बार बार हाथ ना ले जाये
3. सर्दी खाँसी होने पर टिश्यू इस्तेमाल करें, नहीं तो बाँह ;और टिश्यू को लोगों के संपर्क में ना आने दें
4.सात से आठ घँटों की नींद, अच्छा भोजन जिसमें विटामिन सी और डी पर्याप्त मात्रा में हो
5.घर में धूप आने दें, ठंड से बचें और भीड़ में ना जायें
6.मास्क एक बैरियर का काम कर सकता है और भीड़ में आपके श्वास अवयवों तक वायरस को पहुँचने से रोक सकता है।
अगर घर में कोई स्वाइन फ्लू से ग्रसित है तो उसे एक कमरे तक सीमित रखें और कम से कम लोगों के संपर्क में उसे आने दें।
7. पर्याप्त मात्रा में पानी पियें।
8.हल्की सर्दी खाँसी का घर रह कर ही उपचार करें।
9. फ्लू के लक्षण दिखने पर अस्पताल से संपर्क करें और सिर्फ दर्दी को अस्पताल ले जायें।
10. स्वाइन फ्लू जानलेवा नहीं है और इसीलिए साधारण इलाज से भी बेहतर हो सकती है।
11. श्वास संबंधित लक्षणों के दिखने पर ( तेज साँस चलना, साँस लेने में तकलीफ होना), लगातार बहुत तेज बुखार होने पर, बेहोशी की अवस्था होने पर, या और कोई भी चिंताजनक गँभीर लक्षण दिखने पर देरी ना करें और डॉक्टर से मिलें।
स्वाइन फ्लू और मेरा अनुभव
स्वाइन फ्लू के केस अब नई बात नहीं रह गई है। करीबन पाँच कनफर्म्ड केस देखे हैं, सभी पाँच साल से छोटे, तीन बच्चे दो साल से छोटे। दो को टैमीफ्लू नहीं दिया गया था और बाकी को दिया गया था। सभी स्वस्थ हैं। मैं भी....अब तक। :-))
हर बीमारी हमारी अवस्था का बखान करती है। बीमारी से पता चलता है समाज की अवस्था का। प्लेग से दौड़ते चूहे याद आते हैं और एड्स से नैतिकता पर सवाल उठता है। कोलेरा से पीने के पानी की और ध्यान जाता है और मलेरिया से जमे हुए पानी पर। डायबिटिस और ब्लडप्रऐशर से जंक फुड्स की बाढ़ याद आती है।
स्वाइन फ्लू गरीबों और अमीरों दोनो पर हावी है-
गरीब कमज़ोर है, साफ नहीं है, भीड़ में रहता है, अच्छे खाने से वँचित है
अमीर ए सी गाड़ियों और घरों में रहता है,धूप से दूर रहता है हाथ धोने से ज्यादा टिश्यू पोंछने में विश्वास रखता है, देश विदेश जा सकता है और इन वायरस के संपर्क में आता है....
इलाज और रस्सी तक हम पहुँच ही गये हैं......हवादार कमरे, हाय से नमस्ते, साफ सुथरे हो जायें तो जीवित वायरस को निर्जीव करना इतना मुश्किल भी नहीं।
ये लेखक के निजी विचार है! लेखक का परिचय:
Mamta Maurya
M.sc
Allahabad University
Subscribe to:
Posts (Atom)