Saturday, 18 May 2013

ग्रामसभा के अधिकार

1.            ग्राम संबंधी भूमि व्यवस्था एवं भू-राजस्व संबंधी जो भी अभिलेख, अधिकार आदि आज तहसील (तालुका) या अंचल को हैं, वे सब ग्रामसभा में निहित होंगे, जैसे-ज़मीन की बिक्री, आवंटन आदि के अधिकार.
2.            बड़ी सिंचाई योजनाओं में गांव के खेतों में पानी के बंटवारे का अधिकार या सिंचाई के स्थानीय स्रोतों पर ग्रामसभा का अधिकार होगा.
3.            वैसे ही गांव के अंदर या ग्राम के खेतों को बिजली के आवंटन का अधिकार ग्रामसभा का होगा.
4.            गांव संबंधी सभी करों की वसूली ग्रामसभा द्वारा होगी और ग्रामसभा को 10 प्रतिशत वसूली ख़र्च दिया जाएगा. भू-राजस्व पूरा ग्रामसभा का माना जाएगा.
5.            ग्राम संबंधी अन्य करों में लागत ख़र्च छोड़कर सभी मुनाफ़ा ग्रामसभा का माना जाएगा.
6.            ग्रामसभा को गांव के विकास कार्यों के लिए उसके निवासियों की आय का 30वां भाग या 40वां भाग या जो भाग ग्रामसभा समय-समय पर तय करे, वह ग्राम कोष के लिए वसूल करने का अधिकार होगा.
7.            केंद्र के या राज्य के अप्रत्यक्ष करों का कम से कम 50 प्रतिशत ग्रामसभा को उसकी जनसंख्या के अनुपात में दिया जाए.
8.            ग्राम के विकास के लिए ऋण लेने और पूंजी खड़ी करने का अधिकार ग्रामसभा को होगा.
9.            सिंचाई, गंवाई जंगल, गोचर-भूमि, शिक्षा, आरोग्य एवं सुरक्षा का अधिकार और दायित्व ग्रामसभा को होगा. गांव को लगने वाला एक साल का अनाज ग्रामसभा गांव में रखेगी. उसके बाद का अतिरिक्त अनाज लेवी द्वारा या अन्य तरी़के से ऊपर की सरकारें ग्रामसभा की सम्मति से ले जा सकेंगी.
10.          गांव के अंदर राशनिंग की दुकान चलाने का अधिकार ग्राम सभा को होगा.
11.          ग्राम से संबद्ध लेखपाल, शिक्षक, ट्यूबवेल ऑपरेटर, वन-रक्षक, पतरौल, ग्रामसेवक, पंचायत सचिव, स्वास्थ्य निरीक्षक आदि गांव से संबद्ध सभी कर्मचारी ग्रामसभा के अधीन ही कार्य करेंगे. उनकी पदोन्नति, वेतन वृद्धि आदि के सिलसिले में उनकी चरित्र-पंजिका में आख्या अंकित करना ग्रामसभा के अधिकार में होगा.
12.          गांव के सभी लोगों को पूरे समय अथवा फुर्सत के समय काम देने के लिए ग्रामोद्योगों और कुटीर उद्योगों को ऐसे ढंग से विकसित करना होगा कि गांव में पैदा होने वाले हर कच्चे माल को उसके पक्के रूप में परिवर्तित किया जा सके, ताकि गांव से बाहर कच्चे माल की बजाय पक्के रूप में ही निर्यात हो, ग्राम सभा का उत्तरदायित्व होगा.
13.          गांव में बाहर से आने वाले, गांव के लिए अहितकर अथवा अलाभकर या हानिकर किसी भी माल को प्रतिबंधित करने का अधिकार ग्राम सभा को होगा.
14.          पुलिस-हस्तक्षेप के विशिष्ट वादों को छोड़कर गांव संबंध सभी राजस्व, सिविल एवं क्रिमिनल वादों के निर्णय और निबटारे का अधिकार और दायित्व ग्रामसभा द्वारा चुनी हुई न्याय समिति (लोक अदालत) को होगा.
15.          ग्रामसभा अपनी उन आवश्यकताओं के लिए, जो उसके सीमा क्षेत्र में हल नहीं हो सकती हैं, अपने पड़ोसी ग्रामसभाओं के सहयोग से कार्य करेगी.
16.          ग्रामोद्योगों को बाधा पहुंचाने वाले व्यवसायों को रोकना एवं बंद करना ग्रामसभा का दायित्व और अधिकार होगा.
17.          ग्रामसभा मानव शक्ति एवं पशु शक्ति के उपरांत नई शक्तियों के ऐसे स्रोतों का, जो उसकी समझ और पकड़ में हो, विकास और उपयोग करेगी. जैसे-वायु शक्ति, सौर शक्ति, जल शक्ति, गोबर गैस आदि.
18.          सार्वजनिक निर्माण-क्षेत्र में मेलों, बाज़ारों, क्रय-स्थानों, हाटों, तांगा-स्टैंडों एवं गाड़ियों के ठहरने के स्थानों का नियमन, नियंत्रण और निर्माण ग्रामसभा के अधिकार में होगा.
19.          गांव के हर प्रकार के पशुधन को विकसित करना और मरने के बाद उसका पूरा-पूरा उपयोग करना ग्रामसभा का दायित्व होगा.
20.          गांव के सामाजिक उत्थान के लिए अस्पृश्यता निवारण, नशाबंदी, स्त्री-पुरुष समानता, सर्व धर्म समभाव का शिक्षण और इनको प्रेरित करने वाले कार्यक्रमों का आयोजन करना ग्रामसभा का कर्तव्य होगा.
21.          ग्रामसभा-क्षेत्र में सच्चे भाईचारे, प्रेमभाव और शांति स्थापना के लिए विषमता-निराकरण और आर्थिक समानता का प्रयत्न आवश्यक है, जो ग्रामसभा का पुनीत दायित्व होगा.
22.          शासन की ऊपर की इकाइयां गांव के लोगों से व्यवहार सामान्यतय: ग्रामसभा के मार्फत करेंगी.
23.          ग्रामसभा को भंग करने का अधिकार ग्रामसभा की कार्यसमिति को होगा.
यह तो हुई ग्रामसभा, लेकिन आख़िर गांव कैसा होना चाहिए, यह तय करने का अधिकार और उसे वैसा स्वरूप देने की ज़िम्मेदारी वहां के निवासियों की है. सहयोगात्मक लोकतंत्र में यानी लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण के ऊपर के प्रस्तावित ढांचे में नगर और क़स्बों का कोई जिक्र नहीं किया गया है. निश्‍चय ही यह इस विकेंद्रीकरण को अधूरा रखने वाली चीज होगी. यद्यपि विशालकाय शहरों में आमने-सामने वाला समाज नहीं रहता है, अत: परिस्थिति भिन्न एवं जटिल होने से लोकतंत्र का वैसा का वैसा देहातों के लिए लागू होने वाला ढांचा खड़ा करना कठिन है, तो भी शहरी भारत के

मोहल्लों के निवासियों को यानी मोहल्ला सभा को सत्ता के उचित अधिकार देने होंगे और शहरी क्षेत्र की लोकतंत्रीय संस्थाओं को भी इस ढांचे के साथ शामिल करना होगा. यद्यपि बड़े क़स्बे या शहर प्राथमिक इकाई नहीं हैं, तो भी बड़े शहरों की भी प्राथमिक शहरी समुदायों यानी मोहल्लों या कम्यूनों के रूप में कल्पना की जा सकती है. यूगोस्लाविया के शहर इसी ढांचे पर हैं. ऐसी परिस्थिति में ऊपर या आगे के वर्णन में ग्राम शब्द से मतलब स़िर्फ गांव से ही नहीं होगा. वह एक ऐसी प्राथमिक सामुदायिक इकाई होगी, जिससे गांव अथवा शहर दोनों का बोध होगा. म्यूनिसिपल क़ानूनों को इस प्रकार संशोधित किया जाना चाहिए, जिससे शहरी स्वायत्त संस्थाओं में भी इस सहयोगात्मक लोकतंत्र के सिद्धांतों का समावेश किया जा सके.

आरटीआई का इस्तेमाल

सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत सूचना मांगने और भ्रष्टाचार का पर्दाफ़ाश करने वालों को परेशान किए जाने की भी संभावना रहती है. कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनमें सूचना मांगने वालों को शारीरिक रूप से नुक़सान पहुंचाने का प्रयास किया गया है. और ऐसा तब किया जाता है, जब सूचना मांगने से बड़े स्तर पर हो रहे भ्रष्टाचार का ख़ुलासा होने वाला हो, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हर आवेदक को ऐसी धमकी का सामना करना पड़ेगा.
सामान्यत: अपनी शिकायत की स्थिति जानने या फिर किसी दैनिक मामले के बारे में जानने के  लिए आवेदन करने पर ऐसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता है. ऐसा उन मामलों में हो सकता है, जिनकी सूचना मांगने से नौकरशाही और ठेकेदारों के बीच साठगांठ का पर्दाफ़ाश हो सकता है या फिर किसी माफ़िया गठजोड़ के  बारे में पता चल सकता है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि कोई आवेदक ऐसी स्थिति में सूचना के  अधिकार का प्रयोग क्यों करें?
दरअसल, पूरी व्यवस्था इतनी सड़ चुकी है कि यदि हम अकेले या साथ मिलकर इसे सुधारने की कोशिश नहीं करेंगे, तो यह कभी ठीक नहीं होगी. और अगर हम कोशिश नहीं करेंगे, तो सवाल यह उठता है कि और कौन करेगा? इसलिए हमें प्रयास तो करना ही होगा, लेकिन हमें एक योजना बनाकर इस दिशा में काम करना चाहिए, ताकि कम से कम ख़तरों का सामना करना पड़े. अनुभव के साथ कुछ सुरक्षा और योजनाएं भी उपलब्ध हैं. आप आगे आकर किसी भी मुद्दे पर सूचना के अधिकार के तहत सूचना मांगते हैं, तो आवेदन करते ही आप पर कोई हमला नहीं करेगा. पहले तो वह आपको बहलाने या जीतने का प्रयास करेंगे. इसलिए जैसे ही आप कोई असुविधाजनक आवेदन डालेंगे, कोई आपके पास आकर बड़ी विनम्रता से आवेदन वापस लेने के  लिए कहेगा. आप उस आदमी की बातों से यह समझ सकते हैं कि वह कितना गंभीर है और वह क्या कर सकता है. अगर आपको मामला गंभीर लगता है, तो अपने 10-15 परिचितों को उसी सार्वजनिक विभाग में वही सूचना मांगने के  लिए तुरंत आवेदन करने के लिए कहें. यह और भी अच्छा होगा, अगर आपके मित्र देश के  अलग-अलग हिस्सों में रहते हैं. अब किसी को पूरे देश में फैले आपके 10-15 परिचितों को एक साथ नुक़सान पहुंचाना बहुत मुश्किल होगा. देश के  दूसरे हिस्सों में रहने वाले आपके दोस्त डाक के माध्यम से भी आवेदन डाल सकते हैं. इसको ज़्यादा से ज़्यादा प्रचार देने का प्रयास करें. इससे आपको सही सूचना भी मिल जाएगी और ऐसे में आपको कम से कम ख़तरों का सामना करना पड़ेगा. इसके बाद एक और सवाल उठता है कि सूचना प्राप्ति के बाद एक आरटीआई आवेदक को क्या करना चाहिए? इसका कोई एक जवाब नहीं हो सकता. यह इस बात पर निर्भर होगा कि आपको किस प्रकार की सूचना चाहिए और आपका मक़सद क्या है? बहुत से मामलों में केवल सूचना मांगने भर से ही आपका मक़सद हल हो जाता है. उदाहरण के  लिए अपने आवेदन की स्थिति की जानकारी मांगने भर से ही आपका पासपोर्ट अथवा राशन कार्ड आपको मिल जाता है. बहुत से मामलों में सड़कों की मरम्मत पर पिछले कुछ महीनों में ख़र्च हुए पैसे का हिसाब मांगते ही सड़क की मरम्मत हो गई, इसलिए सूचना की मांग करना और सरकार से प्रश्‍न पूछना स्वयं एक महत्वपूर्ण क़दम है. अनेक मामलों में यह स्वयं ही पूर्ण है, लेकिन अगर आपने सूचना के अधिकार का उपयोग करके भ्रष्टाचार तथा घपलों को उजागर किया है, तो आप सतर्कता विभाग और सीबीआई में सबूत के  साथ शिकायत दर्ज कर सकते हैं अथवा एफआईआर दर्ज करा सकते हैं. कई बार देखा जाता है कि शिकायत दर्ज कराने के बाद भी दोषियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं होती. सूचना के अधिकार के अंतर्गत आप सतर्कता एजेंसियों पर भी उनके पास दर्ज शिकायतों की स्थितियों की जानकारी मांगकर दबाव डाल सकते हैं. घपलों को मीडिया द्वारा भी उजागर किया जा सकता है, लेकिन दोषियों को सज़ा मिलने का अनुभव बहुत उत्साहजनक नहीं रहा है. फिर भी एक बात निश्‍चित है कि इस प्रकार सूचना मांगने और दोषियों को बेनक़ाब करने से भविष्य में सुधार होगा. यह अधिकारियों को एक स्पष्ट संकेत है कि लोग सतर्क हो गए हैं और पहले की भांति किया गया कोई भी ग़लत कार्य अब छुपा नहीं रह सकेगा. इस प्रकार उनके पकड़े जाने का ख़तरा बढ़ गया है.
 आवेदन पत्र
किसी भी सरकारी विभाग में रुके  हुए काम के लिए (राशनकार्ड, पासपोर्ट, वृद्धावस्था पेंशन, आयु-जन्म-मृत्यु-आवास प्रमाण पत्र बनवाने या इंकम टैक्स रिफंड मिलने में देरी होने, रिश्‍वत मांगने या बिना वजह परेशान करने की स्थिति में निम्न प्रश्‍नों के  आधार पर सूचना का आवेदन तैयार)
सेवा में,
लोक सूचना अधिकारी
(विभाग का नाम)
(विभाग का पता)
विषय : सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 के तहत आवेदन
महोदय,
मैंने आपके  विभाग में ……………….. तारीख़ को ……………………………. के  लिए आवेदन किया था (आवेदन की प्रति संलग्न है), लेकिन अब तक मेरे आवेदन पर संतोषजनक क़दम नहीं उठाया गया है.
कृपया इसके  संदर्भ में निम्नलिखित सूचना उपलब्ध कराएं
1. मेरे आवेदन पर की गई प्रतिदिन की कार्रवाई अर्थात दैनिक प्रगति रिपोर्ट उपलब्ध कराएं. मेरा आवेदन किन-किन अधिकारियों के  पास गया तथा किस अधिकारी के पास कितने दिनों तक रहा और इस दौरान उन अधिकारियों ने उस पर क्या कार्रवाई की? पूरा विवरण उपलब्ध कराएं.
2. विभाग के नियम के अनुसार मेरे आवेदन पर अधिकतम कितने दिनों में कार्यवाही पूरी हो जानी चाहिए थी? क्या मेरे मामले में उपरोक्त समय सीमा का पालन किया गया है?
3. कृपया उन अधिकारियों के  नाम और पद बताएं, जिन्हें मेरे आवेदन पर कार्रवाई करनी थी? लेकिन उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की.
4. अपना काम ठीक से न करने और जनता को परेशान करने वाले इन अधिकारियों के  ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई की जाएगी? यह कार्रवाई कब तक की जाएगी?
5. अब मेरा काम कब तक पूरा होगा?
6.कृपया मुझे सभी आवेदन/रिटर्न/याचिका/शिकायत की सूची उपलब्ध कराएं, जो मेरे आवेदन/रिटर्न/याचिका/शिकायत के  जमा करने के बाद जमा की गई है. सूची में निम्नलिखित सूचनाएं होनी चाहिए :-
1.आवेदक/करदाता/याचिकाकर्ता/पीड़ित का नाम
2. रसीद संख्या
3. आवेदन/रिटर्न/याचिका/शिकायत की तारीख़
4. कार्रवाई की तारीख़
7. कृपया रिकॉर्ड के  उस हिस्से की छायाप्रति दें, जो उपरोक्त आवेदन/रिटर्न/याचिका/शिकायत की रसीद का ब्यौरा रखते हों?
8. मेरे आवेदन के बाद यदि किसी आवेदन/रिटर्न/याचिका/शिकायत को नंबर आने से पहले क्रियान्वित किया गया हो, तो उसका कारण बताएं?
मैं आवेदन फीस के  रूप में 10 रुपये अलग से जमा कर रहा/रही हूं.
भवदीय
नाम ……………..
पता ……………..

भारतीय जनता अनेकता में एकता की मिसाल

हिंदू संस्कृति जिस धरती पर समृद्ध हुई, उसकी आबादी के बारे में हम जान चुके हैं कि वह मूलतः चार जातियों का मिश्रण रही है. इन्हीं जातियों के बीच के वैवाहिक संबंधों ने हमारी संस्कृति को बहुरंगा स्वरूप प्रदान किया. विविधता में एकता हमारी सांस्कृतिक पहचान रही है. न स़िर्फ जातीय, बल्कि भाषाई आधार पर भी भारत की विविधता ग़ौर के क़ाबिल है. अलग-अलग क्षेत्रों में अलग भाषाएं बोली जाती हैं. उत्पत्ति के लिहाज़ से उन्हें  अलग-अलग भाषाई समूहों में वर्गीकृत किया जाता है. इन भाषाओं की अपनी लिपियां हैं, अपना साहित्य है और एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत भी. भाषाशास्त्रियों ने इस देश में बोली जाने वाली भाषाओं को कई वर्गों में विभाजित किया है. 76.4 फीसदी लोग आर्य भाषा समूह की बोली बोलते हैं, 20.6 फीसदी द्रविड़ और 3 फीसदी लोग शबर-कराती भाषाभाषी माने गए हैं. मंगोल जाति के लोग तिब्बती-चीनी परिवार की भाषाएं बोलते हैं. इस भाषा पर आर्य भाषाओं का प्रभाव भी देखने को मिलता है. तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम द्रविड़ परिवार की मुख्य भाषाएं हैं, जो तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में बोली जाती हैं. द्रविड़ भाषाओं के अनेक शब्द और प्रयोग आर्य भाषाओं में आ गए हैं, जबकि संस्कृत के अनेक शब्द द्रविड़ भाषाओं में मिल गए हैं. फिर भी भारत के दक्षिणी राज्यों में उक्त चार भाषाएं ही प्रचलित हैं. दक्षिण भारत से बाहर भी दो जगहों पर द्रविड़ भाषा बोले जाने के सबूत हैं. यह इस बात का सबूत है कि द्रविड़ लोग कभी भारत के दूसरे हिस्सों में भी फैले थे. उदाहरण के तौर पर, बलूचिस्तान की ब्रहुई भाषा द्रविड़ समूह की भाषा मानी जाती है, जबकि झारखंड के प्रमुख आदिवासी ओरांव जो भाषा बोलते हैं, वह भी द्रविड़ों से मिलती-जुलती है.
हिंदी, उर्दू, बांग्ला, मराठी, गुजराती, उड़िया, पंजाबी, असमी और कश्मीरी आदि आर्य भाषाएं बताई गई हैं, जो संस्कृत की परंपरा से उत्पन्न हुई हैं. भारत से बाहर आर्य भाषाओं का संबंध इंडो-जर्मन भाषा समूह से है. प्राचीन पारसी, यूनानी, लातीनी, केल्ट, त्युतनी, जर्मन और स्लाव आदि भाषाओं के साथ हमारी संस्कृति का बहुत निकट का संबंध था और वह नाता आज भी है. लातीनी प्राचीन इटली की भाषा थी और अब इटली, फ्रांस और स्पेन में उसकी वंशज भाषाएं मौजूद हैं. प्राचीन केल्ट की मुख्य वंशज आजकल की गैलिक यानी आयरलैंड की भाषा है. जर्मन,
ओलंदेज(डच), अंग्रेज़ी, डेन और स्वीडिश आदि भाषाएं जर्मन या त्युतनी परिवार की हैं. आधुनिक रूस एवं पूर्वी यूरोप की भाषाएं स्लाव परिवार की हैं. इन सब भाषाओं का परिवार आर्य वंश कहलाता है. इंडो-जर्मन परिवार की भाषाओं में जो समानता है, उसी से यह अनुमान लगाया गया है कि प्राय: समस्त यूरोपीय भाषाएं उसी भाषा परिवार से निकली हैं, जिस परिवार के भारतीय आर्य थे. यही नहीं, ऋग्वेद केवल भारतीय आर्यों का ही नहीं, बल्कि विश्व भर के आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रंथ है. वेद समूची मनुष्य जाति का प्राचीनतम ग्रंथ है. 19वीं सदी में जब इस सत्य का प्रचार हुआ, तब विश्व भर के अनेक विद्वान संस्कृत का अध्ययन करने लगे और इसी अध्ययन के परिणामस्वरूप आर्य वंश के विस्तृत इतिहास की रचना की जाने लगी. संस्कृत को सभी आर्यों की मूल भाषा सिद्ध करते हुए मैक्समूलर ने लिखा था कि संसार भर की आर्य भाषाओं में जितने भी शब्द हैं, वे संस्कृत की स़िर्फ पांच सौ धातुओं से निकले हैं.
विभिन्न भाषाओं के आधार पर भारत में जातियों की जो पहचान की गई है, उसका उल्लेख करते हुए डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने लिखा है कि भारतीय जनसंख्या की रचना जिन लोगों को लेकर हुई है, वे मुख्यत: तीन भाषाओं-ऑष्ट्रिक अथवा आग्नेय, द्रविड़ और इंडो-यूरोपीय (हिंद-जर्मन) में विभक्तकिए जा सकते हैं. नीग्रो से लेकर आर्य तक इस देश में जो भी आए, उनकी भाषाएं इन भाषाओं के भीतर समाई हुई हैं. असल में, भारतीय जनता की रचना आर्यों के आगमन के बाद ही पूरी हुई. उसे ही हम आर्य या हिंदू सभ्यता कहते हैं. आर्यों ने भारत में जातियों और संस्कृतियों का जो समन्वय किया, उसी से हिंदू समाज और हिंदू संस्कृति का निर्माण हुआ. बाद में मंगोल, यूनानी, यूची, शक, आभीर, हूण और तुर्क जो भी आए, इसमें विलीन होते चले गए. सच में रक्त, भाषा और संस्कृति हर लिहाज़ से भारत की जनता अनेकता में एकता की मिसाल है.
जनचेतना के लिए चौथी दुनिया से साभार 

जल, जंगल और ज़मीन बचाने में जुटे आदिवासी

हमारे देश के कुछ राज्य ऐसे हैं, जिन्हें प्रकृति ने सजाया है, तो कुछ राज्य ऐसे भी हैं, जिन्हें प्रकृति ने अपनी सारी नेमतें प्रदान कर दी हैं. दरअसल, झारखंड भी ऐसा ही एक राज्य है, जहां प्राकृतिक संपदा भरपूर है. यहां से निकलने वाले खनिज पदार्थ विश्‍व में सर्वश्रेष्ठ और उच्च गुणवत्ता वाले होते हैं. यदि इसका नियमानुसार दोहन किया जाए, तो न स़िर्फ देश तरक्क़ी कर सकता है, बल्कि स्थानीय आदिवासी समुदाय का जीवन भी समृद्ध हो सकता है. इसलिए यदि आज़ादी के बाद से अब तक का इतिहास देखें, तो साफ़ ज़ाहिर होता है कि यहां की प्राकृतिक संपदा का केवल अब तक दोहन ही किया गया है. चाहे वह अविभाजित बिहार का अंग रहने के दौरान हो, अथवा 13 वर्ष पूर्व अलग अस्तित्व में आने के बाद की परिस्थितियां. इन वर्षों में राज्य में राजनीतिक उठापटक के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बदला है. सरकारी मशीनरी ने यहां की खनिज संपदा का जमकर दोहन किया और अब झारखंड की भूमि पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गिद्ध दृष्टि है. दरअसल, वे पावर प्लांट और स्टील प्लांट के नाम पर ज़मीन हथियाना चाहती हैं, लेकिन स्थानीय आदिवासी इसका लगातार विरोध कर रहे हैं. राज्य के पूर्वी सिंहभूम के क्षेत्र में स्टील एवं संथाल परगना के दुमका ज़िले के काठीकुंड में पावर प्लांट के नाम पर भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ आदिवासी अपनी आवाज़ें बुलंद करते रहे हैं. काठीकुंड में पावर प्लांट के नाम पर आमगाछी पोखरियाद में एक हज़ार एकड़ ज़मीन के लिए एक निजी कंपनी ज़मीन लेने के लिए प्रयासरत है. हालांकि दोनों ही स्थानों पर कंपनी के प्रतिनिधियों का विभिन्न रूपों में प्रतिकात्मक विरोध किया गया था.
दरअसल, विकास के नाम पर विगत कई वर्षों से झारखंड के आदिवासी विस्थापन का दर्द बहुत झेल चुके हैं और इनसे सबक़ लेकर वे अब जान देंगे, ज़मीन नहीं देंगे, के नारे लगाते हुए कुर्बानी देने से भी पीछे नहीं हट रहे हैं. अहिंसक विरोध कर रहे आदिवासियों को गोली का शिकार होना पड़ा है. हज़ारों आदिवासियों पर म़ुकदमे दर्ज किए गए और गिरफ्तार कर उन्हें जेल में डाला गया. काठीकुंड में प्रस्तावित पावर प्लांट का विरोध झारखंड उलगुलान मंच के बैनर तले किया गया. आमगाछी गांव में गोलीकांड के ख़िलाफ़ प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने भी यहां आकर अपना विरोध दर्ज कराया था. उनका कहना था कि वर्तमान सरकारी विकास का मॉडल आदिवासियों के जीवन और सभ्यता के विरुद्ध है, इसलिए इसे क़तई म़ंजूर नहीं किया जा सकता है. आदिवासियों के विनाश की क़ीमत पर विकास का ख़ाका तैयार करना, अन्याय से अधिक और कुछ भी नहीं है. उन्होंने झारखंड में हुए एमओयू को स्थगित करने और आदिवासी-मूलवासी से मेमोरेंडम ऑफ विजन की बात पर भी ज़ोर देकर नई बहस छेड़ दी. आदिवासियों के अहिंसक आंदोलन पर पुलिस की लाठी और गोली दुर्भाग्यपूर्ण घटना है. उन्होंने आंदोलनकारियों को माओवादी बताए जाने पर कड़ी आपत्ति जताई और कहा कि आंदोलन करने वाले आदिवासियों को इस दृष्टिकोण से देखना क़तई उचित नहीं होगा.
ग़ौरतलब है कि काठीकुंड गोलीकांड और आदिवासियों के जंगल और ज़मीन से विस्थापन की गूंज विधानसभा से निकलकर लोकसभा तक पहुंच चुकी है. ग्राम सभा को, जो अधिकार पेसा ऐक्ट एवं समता जजमेंट द्वारा दिए गए हैं, उसका खुल्लम खुल्ला उल्लंघन हो रहा है. प्रशासन द्वारा धारा 144 का जवाब जनता भी अहिंसक तरी़के से दे रही है. पत्थर उद्योग भी अब ग्राम सभा की अनुमति के बिना चालू नहीं हो रहे हैं. सच तो यह है कि पूंजीवाद, उद्योग, विकास, विस्थापन और सरकारी दृष्टिकोण के इस संघर्ष में कई संगठनों के आने से आंदोलन और तेज़ हो गया है. हालांकि विस्थापन के विरोध में छेड़े गए जन आंदोलन को दबाने का प्रयास सरकार की ओर से लगातार किया जा रहा है. प्रयास इस बात का भी किया गया कि मीडिया में इसकी ख़बरें वैसी ही आएं, जैसा कि उद्योगपति चाहते हैं. मीडिया में इस बात को प्रचारित करने का प्रयास किया जा रहा है कि स्थानीय आदिवासी विकास के ख़िलाफ़ हैं, जबकि उन्हें पूरा मुआवज़ा दिया जा रहा है, जो वास्तविकता से पूरी तरह विपरीत है. इस संबंध में राज्य के नौकरशाहों के साथ साथ जनप्रतिनिधियों का भी मूकदर्शक बने रहना, सबसे अधिक चौंकाने वाला रहा है. एक कटु सच यह भी है कि आदिवासियों के मसीहा कहलाने का दावा करने वाले नेता आदिवासियों के सामने अब बेनक़ाब इसलिए हो चुके हैं, क्योंकि विभिन्न प्रकार की चुनौतियों को सामने लाकर विस्थापन के असल मुद्दे को ही एक साज़िश के तहत हाशिये पर ढकेला जा रहा है. कभी वनों का राज्य कहलाने वाले झारखंड में आज लगभग 27.66 प्रतिशत ही जंगल बचे हैं, और इसलिए पूरा राज्य धीरे-धीरे पर्यावरण असंतुलन का शिकार होता जा रहा है. जल, जंगल एवं ज़मीन आदिवासियों की पहचान है, इसलिए इस पर हमला आदिवासी संस्कृति के साथ अन्याय ही होगा. देखा जाए, तो जंगल केवल आदिवासियों की ही नहीं, बल्कि हम शहरों में रहने वालों के लिए भी आवश्यक हैं. ऐसी स्थिति में यदि प्राकृतिक आपदा को रोकना है, तो जंगल को बचाना अति आवश्यक है. उल्लेखनीय है कि विश्‍व मंच पर सतत विकास की परिकल्पना इसी संदर्भ में परिभाषित की गई थी. इसलिए मात्र विकास के नाम पर जंगल को उजाड़ना अथवा किसी को भी विस्थापित करना, अंतराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन होगा. यदि समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दिया गया, तो न स़िर्फ आदिवासी संस्कृति को नुक़सान होगा, बल्कि आने वाले वर्षों में किसी प्राकृतिक महाआपदा को झेलने के लिए हमें तैयार रहना होगा. (चरखा)
जनचेतना के लिए चौथी दुनिया से साभार 

Monday, 13 May 2013

मां को दें सेहत का गिफ्ट

सिस्ट या फाइब्रॉइड ओवरी में सिस्ट या यूटरस में फाइब्रॉइड आजकल कॉमन समस्या है। सिस्ट आमतौर पर फ्लूइड वाले ट्यूमर होते हैं, फाइब्राइड ठोस ट्यूमर होते हैं। ज्यादातर सिस्ट दवा से ठीक हो जाते हैं। पीरियड्स के दौरान ब्लीडिंग बहुत ज्यादा हो और पीरियड्स 15-20 दिन में हो जाते हों तो फाइब्रॉइड हो सकता है। जब कोई दिक्कत होती है, तो डॉक्टर इसे निकालने की सलाह देते हैं। फाइब्रॉइड या सिस्ट के करीब एक फीसदी मामलों के कैंसर में बदलने की आशंका होती है।

 मीनोपॉज 40 साल की उम्र से महिलाओं में कई बदलाव होने लगते हैं। ऐसा अचानक नहीं होता, बल्कि इस बदलाव में कुछ साल लगते हैं। इस स्टेज को पेरीमीनोपॉज कहा जाता है। इस दौरान एग्स कम बनने लगते हैं, पीरियड्स बहुत कम या ज्यादा हो जाते हैं, पीरियड्स अनियमित हो जाते हैं और मन चिड़चिड़ा हो जाता है। प्राइवेट पार्ट में सूखापन, बालों का झड़ना, ब्रेस्ट का ढीला होना, सेक्स की इच्छा कम होना, मोटापा बढ़ना जैसे बदलाव भी नजर आते हैं। धीरे-धीरे पीरियड्स पूरी तरह बंद हो जाते हैं। अगर एक साल तक पीरियड्स न आएं तो मीनोपॉज हो जाता है। मीनोपॉज के बाद खून के धब्बे नजर आएं तो फौरन डॉक्टर को दिखाएं क्योंकि इस दौरान ब्लीडिंग होने पर कैंसर की आशंका हो सकती है। बेटी इस दौरान मां की शारीरिक और मानसिक स्थिति को समझ उसका सहारा बन सकती है। इस वक्त महिला के खाने में हरी सब्जियां, दूध और सोयाबीन ज्यादा होने चाहिए।
 ओस्टियोऑर्थराइटिस मीनोपॉज के बाद महिलाओं में जोड़ों में दर्द या जकड़न की समस्या आम देखी जाती है क्योंकि इस दौरान कैल्शियम की कमी या एक्सर्साइज न करने से हड्डियां कमजोर होने लगती हैं। इससे फ्रैक्चर की आशंका बढ़ जाती है। इस दौरान विटामिन सी, डी और बीटा कैरोटीन भरपूर लेना चाहिए। खाने में फैट-फ्री दूध, पनीर, ब्रोकली, बींस, गाजर, पपीता, पालक, अंडा, अखरोट, सेब, चेरी, ग्रीन टी आदि शामिल करने चाहिए। जरूरत पड़ने पर हॉमोर्न रिप्लेस थेरपी भी कराई जा सकती है। मीनोपॉज के बाद लाइफस्टाइल ठीक करें। महिला को ऐसे काम करने चाहिए, जिनमें शारीरिक मेहनत हो, जैसे डांस, बागवानी, चलना आदि। वजन कम करना बहुत जरूरी है।
ये टेस्ट जरूर कराएं महिलाओं को हर साल ब्लड शुगर, यूरिन, ब्लडप्रेशर, कॉलेस्ट्रॉल, पेप स्मियर और मेमोग्रफी टेस्ट जरूर कराने चाहिए। वैसे तो ये टेस्ट 30 साल के बाद ही शुरू कर देने चाहिए लेकिन 40 साल के बाद जरूर रेग्युलर तौर पर ये टेस्ट कराएं। इस उम्र में मां को समझाएं कि वजन कंट्रोल में रखना बहुत जरूरी है। साथ ही नियमित रूप से एक्सर्साइज और योग करने के लिए भी प्रेरित करें।
 पीसीओडी पीसीओडी यानी पॉलिसिस्टिक ओवरी डिसीज 12 से 45 साल की प्रजनन उम्र में होती है। इसके पीछे हॉर्मोंस में बदलाव, लाइफस्टाइल और कई बार जिनेटिक वजहें होती हैं। इसमें ओवरी के आसपास छोटे-छोटे सिस्ट (ट्यूमर) बन जाते हैं। इससे पीरियड्स अनियमित हो जाते हैं और ब्लीडिंग बहुत कम हो जाती है या फिर बहुत बढ़ जाती है। शरीर पर बालों की ग्रोथ बढ़ जाती है, सिर के बाल झड़ने लगते हैं, मुंहासे निकल आते हैं या वजन बढ़ जाता है। गर्भ धारण करने में दिक्कत हो सकती है। वक्त से इलाज हो तो इस प्रॉब्लम को कम किया जा सकता है। डॉक्टर वजन कम करने, नियमित एक्सर्साइज करने की सलाह देते हैं। आमतौर पर लाइफस्टाइल सुधारने से ही इसमें फायदा हो जाता है।
 जांच करवाएं कैंसर की देर से शादी, पहला बच्चा होने में देरी, बच्चे को दूध न पिलाना और जिनेटिक वजहों से ब्रेस्ट कैंसर होने का खतरा है। इससे बचाव का तरीका यह है कि पीरियड्स शुरू होने या खत्म होने पर महीने में एक बार खुद ब्रेस्ट की जांच करें। यह जांच किसी भी उम्र में की जा सकती है, लेकिन 25 साल की उम्र के बाद नियमित रूप से जांच करनी चाहिए। अगर परिवार में किसी को ब्रेस्ट कैंसर है तो 30 साल, वरना 35 साल की उम्र के बाद साल में एक बार मेमोग्रफी जरूर कराएं। मेमोग्रफी पर करीब डेढ़-दो हजार रुपये का खर्च आता है। इसी तरह, जो महिलाएं तीन साल या ज्यादा समय से सेक्सुअली एक्टिव हैं, वे सर्वाइकल कैंसर से बचाव के लिए तीन साल तक लगातार पेप स्मियर टेस्ट कराएं।
 टेस्ट पर 300 से 500 रुपये तक खर्च आता है। अगर तीनों साल तक टेस्ट नेगेटिव आता है तो अगले कुछ साल तक टेस्ट की जरूरत नहीं है। 40-45 साल की उम्र में फिर से यह टेस्ट (तीन साल लगातार) करा लें। कैंसर का पता अगर शुरुआती स्टेज में लग जाता है तो इलाज की संभावना काफी बढ़ जाती है। इसके अलावा, सर्वाकल कैंसर से बचाव के लिए टीका भी मौजूद है। तीन टीकों के इस कोर्स पर 9-10 हजार रुपये का खर्च आता है। टीके लगने के बाद कम-से-कम चार-पांच महीने तक प्रेग्नेंसी प्लान न करें। अगर कोर्स के बीच में प्रेग्नेंट हो जाती हैं तो डिलिवरी के बाद कोर्स पूरा किया जाता है, लेकिन तीनों टीके लगवाना जरूरी है।
 ध्यान दें: टीके लगाने के बावजूद सर्वाइकल कैंसर की आशंका सौ फीसदी खत्म नहीं होती क्योंकि यह कुछ ही वजहों से बचाव करता है। दूसरे, अगर टीके लगने से पहले कैंसर शुरू हो चुका हो तो भी टीकों का कोई फायदा नहीं है। इसलिए भी पेप स्मियर टेस्ट जरूर कराएं। 

बदलें अपनी सोच

पश्चिम के लोगों को लेकर यहां एक धारणा बनी हुई है, जैसे वे जिंदगी भर सिर्फ घूमते-फिरते और ऐश करते रहते हैं। इनका दांपत्य जीवन हम भारतीयों की तरह लंबे समय तक नहीं निभ पाता। संबंध कभी भी टूट जाते हैं और दोनों झटपट दूसरा पार्टनर खोज कर अपने-अपने रास्ते चल देते हैं। मैंने कई जगह यूरोपियनों को देख कर यह महसूस किया कि वे घूमने या तो अकेले या फिर दोस्तों के साथ आते हैं। बीवी बच्चों के साथ मुझे इक्का दुक्का ही नजर आए।
 इसलिए मैं भी ऐसा ही सोचती थी, लेकिन बीते दिनों ऋषिकेश में एक विदेशी महिला के साथ मिलकर मेरी ये सोच काफी हद तक बदल गई। अभी कुछ दिन पहले अपने ऋषिकेश प्रवास के दौरान मैं एक स्थानीय रेस्तरां में लंच करने गई। साथ वाली सीट पर एक विदेशी महिला अकेली बैठी थी। जैसे ही उससे नजर मिली, मैं मुस्कुराई और हाथ उठा कर 'हाय' कहा। जवाब में उसने मुझे हाथ जोड़ कर अपने अंदाज में 'नमस्ते' कहा। बातचीत के दौरान पता लगा कि उसका नाम पिगरेट है। ऋषिकेश वह जर्मनी से अपने घुटने के दर्द का आयुर्वेदिक इलाज करवाने आई थी। उसके किसी दोस्त ने बताया था कि भारत के ऋषिकेश में घुटने के दर्द का बढ़िया आयुवेर्दिक इलाज होता है।
वहां वह एक आश्रम में पिछले दो महीनों से ठहरी हुई थी। कहने को उसकी उम्र 59 साल थी पर वह 40 से ऊपर की नहीं लगती थी। कुछ देर बाद बोली कि तुम्हारे बराबर का तो मेरा बेटा है। फिर मेरे चौदह वर्षीय बेटे को देखकर बोली- इसके जितना मेरा पोता है। अपने पोते के बारे में बात करते हुए उसकी आंखों में वात्सल्य उमड़ता दिख रहा था। पिगरेट के दो बेटे हैं। एक बेटा अपने परिवार के साथ अमेरिका में रहता है क्योंकि वह वहीं नौकरी करता है जबकि दूसरा बेटा अपने परिवार सहित पिगरेट और उनके पति के साथ रहता है।
 मुझे उनसे मिलकर पता चला कि फिरंगी भी भरे-पूरे परिवार में साथ रहते हैं। पिगरेट जर्मनी में एक स्पेशल स्कूल के बच्चों के साथ काम करती हैं। वह भारत अकेली और पहली बार आई थी और अब काफी हद तक ठीक होकर वापस अपने देश जा रही थी। पिगरेट ने बताया कि जर्मनी में भी स्त्री-पुरुष की बराबरी को लेकर हालत बहुत अच्छी नहीं है। वहां की नई पीढ़ी के लड़के तो अब काफी हद तक लड़कियों को बराबर समझने लगे हैं, लेकिन पुरानी पीढ़ी अब भी पुरातनपंथी सोच में ही जी रही है। पिगरेट ने कहा कि जब मैं तुम्हारे जितनी थी, तब मेरे पास नई जगहें घूमने के लिए पैसे नहीं थे, लेकिन अब हैं तो मैंने मौका नहीं गंवाया। उसने जाते-जाते मुझे भी सलाह दी कि जितनी नई जगहें देख सकती हो देखो। किसी जगह को अच्छी तरह से देखकर जो ज्ञान मिलता है वह अनमोल होता है और हमेशा याद रहता है। 

बंद करो हम पर यह अत्याचार

फिर आ गईं गर्मी की छुट्टियां। साल भर की पढ़ाई और परीक्षाओं के बाद आखिर ये कुछ दिन ही तो मौज-मस्ती के होते हैं... जून से फिर अगले साल की पढ़ाई में लग जाना है। बच्चों को इन छुट्टियों का इंतजार पूरे साल रहता है। अमूमन यह भी सोच लिया जाता है कि इस बार इन छुट्टियों में क्या करना है। ज्यादातर बच्चे और उनके परिवार घूमने का कार्यक्रम पहले से तय करके रखते हैं। कोई अपने नेटिव प्लेस जाता है, तो कोई किसी पर्यटन स्थल। किसी को कहीं जाने का मौका नहीं मिलता, तो वह अपने शहर की ही ऐसी जगहें घूम लेना चाहता है, जहां जीवन की आपाधापी में जाना न हो सका हो। इसके बाद भी छुट्टियां बची रहती हैं, तो बच्चे खेल-कूद में लग जाते हैं। 
 यही समय होता है जब बच्चों को अपने मन से कुछ करने का मौका मिलना चाहिए, लेकिन आजकल ऐसा होता नहीं। मैंने अपने पास-पड़ोस के बच्चों पर ध्यान दिया कि वे गर्मियों की छुट्टियों में क्या कर रहे हैं। मैं हैरान रह गया... वे छुट्टियों में भी स्कूली दिनों की तरह ही विभिन्न क्लासों में जूझते दिखे। दस साल का करण सुबह को स्केटिंग क्लास करता है, फिर फुटबॉल क्लास। शाम को स्विमिंग सीखने जाता है। दोपहर को उसका ग्रामर का ट्यूशन लगा है। रात को उसे अगले साल की किताबों में में से एक चैप्टर पढ़कर सोना होता है। मैंने उससे पूछा कि इतनी सारी ऐक्टिविटी करके उसे बहुत मजा आता होगा। वह रुआंसा हो गया। बोला, 'क्या मजा आएगा...? पापा को फुटबॉल में डालना था और ममी को स्केटिंग में। उन्होंने डाल दिया। पढ़ाई छुट्टियों में भी करनी पड़ रही है। हां, स्विमिंग में जरूर अच्छा लगता है। पर वह भी मेरी चॉइस नहीं है।' मैंने पूछा, 'तो बेटा, तुम क्या करना चाहते थे?' जवाब मिला, 'मुझे ड्राइंग पसंद है। ममी-पापा को नहीं। मैं स्टोरी बुक्स पढ़ना चाहता हूं। पर मुझे पढ़नी पड़ रही हैं कोर्स की बुक्स...।' 

 ऐसा ही हाल 12 साल की तन्वी का है। उसका मन था ऐक्टिंग कोर्स करने का। पर माता-पिता की इच्छा के अनुसार उसे पेंटिंग, डांस और सिंगिंग क्लास करनी पड़ रही हैं। टेबल टेनिस खेलने की उसकी इच्छा जरूर पूरी हो रही है। वह स्टोरी लिखना चाहती है, लेकिन उसे स्टोरी पढ़ने भी नहीं दी जातीं। बहुत से बच्चों के ऐसे ही अनुभव होते हैं। एक तो हमारी शिक्षा प्रणाली बच्चों को हुनरमंद नहीं बनाती, दूसरे परिवार का दबाव पारंपरिक करियर चुनने का होता है। ज्यादातर घरों में बच्चों को बनी-बनाई लीक पर चलने को विवश किया जाता है। उनके मन की खुशी को अपेक्षाओं तले रौंद दिया जाता है। हालांकि अगर बच्चों को कुछ नए काम सिखाने की कोशिश की जाए, तो वे बहुत खुशी से करते हैं। इससे उनमें आत्मविश्वास बढ़ता है और नया हुनर सीखने का मौका भी मिलता है।
मेरे एक परिचित गर्मियों में बच्चों के लिए समर कैंप चलाते हैं। हर साल गर्मियों की छुट्टियों में वे गरीब बच्चों को इकट्ठा करके उन्हें कई काम सिखाते हैं। यह काम वे अपने खर्चे से करते हैं। इस बार उन्होंने अपने कैंप में बच्चों को कहानी कहने की कला सिखाने के लिए मुझे बुलाया। मैंने परंपरागत कहानियों के बजाय अपने आसपास होने वाली घटनाओं की कहानियां बनाकर उन्हें सुनाना शुरू किया। ऐसी घटनाएं, जो खबरों के रूप में आमने चुकी हों। मेरे अचरज का ठिकाना नहीं रहा, जब 12-13 साल के बच्चों ने अपनी रोजमर्रा की जिंदगी की कहानियां सुनाईं। ये झोपड़पट्टी, गलियों, बाजारों, स्कूल, ठेले वालों, सब्जी बेचने वालों और उन बच्चों के घरों की कहानियां थीं। इनमें मुर्गियां, साइकिल, किताबें, गटर और गंदगी भी पात्र थे। ऐसा नहीं है कि इन बच्चों को जीवन के नकारात्मक पक्ष ही दिखते हों, ये अपनी कल्पना से कीचड़ में कमल भी खिलाकर दिखाते हैं। उन बच्चों के बीच अपनी छुट्टी के चार घंटे बिताकर मुझे बहुत सुकून मिला। लौटते हुए मन में यही आया कि हमें बच्चों को खिलने-खुलने का मौका देना चाहिए। इसी से उनका नैसर्गिक विकास होता है।

चींटियों की फौज में भी होता है प्रोमोशन

बचपन में मेरे छोटे भाई की किसी जिद पर गुस्से में दादी ने उसकी तुलना चींटी से कर दी थी, 'बिल्कुल चींटी है यह, जहां से हटाओ घूम-फिर कर वहीं आ जाएगा।' दादी के इस वाक्य ने मेरे मन में चींटियों के प्रति बड़ा कौतूहल पैदा किया। और मैं जब-तब चींटियों पर गौर करने लगा। हालांकि उस उम्र में ज्यादा कुछ पता नहीं कर सका। हां यह जरूर जान गया कि कभी कोई चींटी आराम करती हुई नहीं दिखती। कुछ खाती रहेगी या कहीं जा रही होगी या फिर कुछ ढो रही होगी। आते-जाते दूसरी चींटियों से टकराती भी है, लेकिन सबसे हलो-हाय नहीं करती। जो दोस्त-मित्र हुए उनसे दो बात जरूर कर लेती है, वह भी बिना रुके। बचपन में चींटियों को लेकर बनी यह राय कमोबेश आज भी वैसी ही है, पर हाल में इनके बारे में कुछ दिलचस्प रिपोर्टें पढ़ने को मिली हैं। चींटियां सिर्फ मेहनत करना ही नहीं, मेहनत करवाना भी जानती हैं। इसके लिए उनके यहां पुरस्कार और दंड की व्यवस्था भी है। साइंस नामक पत्रिका में प्रकाशित एक रिसर्च में स्विट्जरलैंड की युनिवसिर्टी ऑफ लाउसैन के शोधकर्ताओं ने चींटियों की छह अलग-अलग कॉलोनियों को शामिल किया। अध्ययन की सुविधा के लिए ये कॉलोनियां लैब में ही तैयार की गई थीं। इसके बाद इन कॉलोनियों की एक-एक चींटी की निगरानी शुरू की गई। इसके लिए सारी चींटियों को अलग-अलग टैग करके इन पर बेहद छोटे-छोटे कैमरे लगाए गए, जो मेन कंप्यूटर से जुड़े थे। ये कैमरे हर सेकंड दो तस्वीरें भेज रहे थे। इस तरह 41 दिन इन सारी चींटियों को ऑब्जर्व किया गया। प्रयोग में शोधकर्ताओं के पास 2.4 अरब रीडिंग्स जमा हुईं। इन सबके विश्लेषण में लंबा समय लगेगा, लेकिन कुछ निष्कर्ष बिल्कुल स्पष्ट सामने आए और वे खासे चौंकाने वाले हैं।

तस्वीरों के विश्लेषण से पता चला कि अपनी कॉलोनी में चींटियों के बीच काम का बड़ा व्यवस्थित विभाजन होता है। वे सिर्फ मेहनत नहीं करतीं बल्कि अलग-अलग तरह से मेहनत करती हैं और उम्र तथा अनुभव के अनुरूप उनका काम बदलता रहता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक 40 फीसदी चींटियां नर्स होती हैं जो अमूमन रानी चींटी और उसके अंडों के आसपास ही रहती हैं। अन्य 30 फीसदी चींटियां भोजन इकट्ठा करने का काम करती हैं। ये इधर-उधर घूमकर खाना लाती हैं और प्राय: कॉलोनी के प्रवेश (इंट्रेंस) के आसपास रहती हैं। बाकी बची चींटियां साफ-सफाई का काम देखती हैं। वही कॉलोनी में कूड़ों के ढेर की ओर जाती हैं और गंदगी दूर करती हैं।

इस सारे काम का विभाजन यों ही नहीं होता। इसका व्यवस्थित तरीका होता है। रिसर्च के मुताबिक चींटियां उम्र के हिसाब से जॉब बदलती हैं। सबसे कम उम्र की चींटियां नर्स का काम देखती हैं। जब उनकी थोड़ी उम्र हो जाती है तब उन्हें साफ-सफाई का काम सौंपा जाता है। बड़ी हो जाने के बाद उन्हें कॉलोनी से बाहर जाकर भोजन जुटाने का काम सौंपा जाता है। स्पष्ट है कि बाहर जाने में रिस्क है। इसलिए शरीर में ताकत आने और दुनियादारी की समझ होने के बाद ही उन्हें यह काम दिया जाता है।

 मगर, शोधकर्ताओं ने पाया कि अलग-अलग कार्य समूहों में उम्र का ऐसा सख्त विभाजन नहीं था। अगर नर्सों में थोड़ी ज्यादा उम्र की चींटियां थीं तो सफाई के काम में कम उम्र की चींटियां भी लगी दिखीं। ऐसे ही भोजन जुटाने वाले समूह में अपेक्षाकृत कम उम्र की कुछ चींटियां भी दिख रही थीं। इसका मतलब संभवत: यह है कि प्रमोशन की व्यवस्था में उम्र एक पैमाना जरूर होता है, मगर यही एकमात्र पैमाना नहीं होता। काम को देखते हुए समय से पहले प्रमोशन मिल सकता है और काम अच्छा न हो तो उम्र हो जाने के बाद भी पुराने कैडर में ही रहना हो सकता है। इस अध्ययन के नतीजों को देख कर एक तरह का सुखद आश्चर्य भी हुआ, क्योंकि मधुमक्खियों के बारे में यह पहले से मालूम था। मगर चींटियों के यहां भी ऐसा होता है, इसकी जानकारी नहीं थी। इस अध्ययन के पहले कोई आधिकारिक जानकारी तो कतई नहीं थी।
 मगर, चींटियों की दुनिया में होने वाले श्रम के शोषण और इसके खिलाफ उनके यहां पनपने वाले गुस्से के नतीजों पर कुछ बेहद दिलचस्प जानकारी देने वाली एक और रिसर्च रिपोर्ट चार-पांच साल पहले आ चुकी है। इसकी जानकारी जर्मनी के जोहानेस गुटनबर्ग विश्वविद्यालय के प्रफेसर डॉ. सूसान फोइट्जिक ने 2009 में अपनी एक रिपोर्ट में दी थी। इसे उन्होंने 'गुलामी से विद्रोह की प्रवृत्ति' (स्लेव रिबेलियन फिनॉमनन) कहा था। बाद की कुछ और स्टडीज में उनकी इन बातों की न केवल पुष्टि हुई, बल्कि यह भी मालूम हुआ कि यह प्रवृत्ति उनके बताए इलाके या प्रजाति तक सीमित नहीं है बल्कि अन्य इलाकों और प्रजातियों की चींटियों में भी यह पाई जाती है।
 रिपोर्ट में चींटियों की दो प्रजातियों का जिक्र किया गया है। टेमनोथोरैक्स लॉन्जिस्पिनोसस चींटियां छोटे आकार की होती हैं। इनसे थोड़े ही बड़े आकार और ताकत वाली होती हैं प्रोटोमैगनैथस चींटियां। बड़ी चींटियों के समूह छोटी चींटियों की कॉलोनी पर बाकायदा धावा बोलते हैं, वहां छोटी चींटियों को मार डालते है और उनके अंडों को अपनी कॉलोनी में ले आते हैं। अंडों से निकलने वाली इन चींटियों को गुलाम बना लिया जाता है। इन्हें न केवल भोजन जुटाना पड़ता है बल्कि कॉलोनी (जो अमूमन कोई बड़ा बीज या पेड़ की सूखी टहनी का कोई हिस्सा होता है) की साफ-सफाई के साथ-साथ अंडों की देखभाल का भी काम करना होता है।
 इन चींटियों को अंडों की ही अवस्था में यहां लाया गया होता है, इसलिए वे अपनी प्रजाति के साथ तो रहे नहीं होते हैं। मगर, फिर भी इन बड़ी चींटियों के व्यवहार से इनमें गुस्सा पनपने लगता है। डॉ. सूसान फोइट्जिक और उनकी टीम के मुताबिक अंडों की देखभाल ये चींटियां शुरू में करती हैं, क्योंकि तब वे उन्हें पहचान नहीं पातीं। मगर, बाद में जब यह साफ हो जाता है कि ये तो गुलाम बनाने वाली प्रजाति की चींटियां हैं तो वे बाकायदा सामूहिक हमला करके बच्चों को मार डालती हैं। कुछ मामलों मे बच्चे इन चींटियों की लापरवाही से भी मरते हैं। लेकिन, इसका नतीजा यह होता है कि गुलाम बनाने वाली चींटियों की आबादी बढ़ने की रफ्तार बहुत कम होती है। 
रिसर्च के मुताबिक जहां गुलाम चींटियां नहीं होतीं, वहां भ्रूण से बच्चे विकसित होने का प्रतिशत 80-85 तक होता है, लेकिन जहां ये होती हैं वहां यह 35 फीसदी तक गिर जाता है। इसका सीधा फायदा गुलाम चींटियों को तो नहीं मिलता, मगर आसपास की कॉलोनियों में रह रही इनकी रिश्तेदार चींटियों को जरूर मिलता है, जो गुलाम बनाने वाली चींटियों की आबादी के कम होने की वजह से ज्यादा समय तक सुरक्षित रहती हैं।

डेढ़ हजार वर्ष पहले भारत से यूरोप रवाना हुए थे जिप्सी

यूरोप के जिप्सियों का संबंध भारत से है, यह कोई नई जानकारी नहीं है। नई बात यह है कि यूरोप में इन लोगों की जड़ें पिछले अनुमानों से कहीं ज्यादा गहरी हैं। जीन वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि उतरी पश्चिमी भारत (संभवत: आज का पंजाब) से एक ही आबादी के लोगों ने करीब 1500 वर्ष पहले यूरोप जाना शुरू कर दिया था। आज ये लोग यूरोप के प्राय: हर देश में रहते हैं, अलग-अलग बोलियां बोलते हैं और अलग-अलग धर्मों का पालन करते हैं। जिप्सी समुदाय यूरोप का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग है। इनकी आबादी करीब 1.1 करोड़ है। उनकी संख्या यूरोप के कई देशों की आबादी की बराबरी करती है।

जिप्सी लोगों को रोमा अथवा रोमानी भी कहा जाता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक ये लोग भारत से सबसे पहले यूरोप के बाल्कन प्रायद्वीप (रोमानिया, बुल्गेरिया, सर्बिया, स्लोवाकिया आदि) पहुंचे थे। वहां से करीब 900 साल पहले उन्होंने यूरोप के दूसरे देशों में फैलना शुरू किया। ये लोग संभवत: 1513 में ब्रिटेन पहुंचे थे। स्पेन के पोम्पेयु फाब्रा विश्वविद्यालय के जीव-विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने जिप्सी लोगों के आनुवंशिक स्रोतों पर अनुसंधान किया है।

संस्थान के एक प्रमुख वैज्ञानिक, प्रो. डेविड कोमास का कहना है कि यूरोप के रोमानी समुदाय यूरोपीय आबादी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसी वजह से हम उनकी आबादी का इतिहास जानना चाहते हैं। इन लोगों का अभी तक वैज्ञानिक अध्ययन नहीं हो पाया है क्योंकि इन लोगों के उद्गम और दूसरे देशों में उनके फैलाव के बारे कोई लिखित इतिहास नहीं है। अत: रिसर्चरों ने उनका आनुवंशिक इतिहास जानने के लिए यूरोप में फैले हुए 13 रोमानी समूहों के आनुवंशिक आंकड़े एकत्र किए। इन आंकड़ों के विस्तृत अध्ययन के बाद उन्होंने इस बात की पुष्टि कर दी कि यूरोपीय रोमानी लोगों का मूल स्थान भारत ही है।

'करेंट बायलॉजी' पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन के सह-लेखक, डच वैज्ञानिक प्रो. मैन्फ्रेड कैसर का कहना है कि यूरोपीय लोगों की संपूर्ण आनुवंशिक तस्वीर तैयार करने के लिए रोमानी लोगों की आनुवंशिक विरासत को समझना बहुत जरूरी है। मानव के विकास क्रम और स्वास्थ्य विज्ञान जैसे विभिन्न क्षेत्रों के लिए भी इस तरह का अध्ययन आवश्यक है। ब्रिटेन के लोग शुरू-शुरू में यह मानते थे कि रोमानी लोग मिस्र से आए हैं। प्रारंभिक यूरोपीय इतिहास में जिप्सियों का उल्लेख खानाबदोश समुदाय के रूप में किया गया है। इन लोज्जें की संगीत में प्रवीणता और उनके अद्भुत घुड़सवारी कौशल का भी उल्लेख मिलता है। जिप्सियों का सबसे पुराना उल्लेख 15 वीं शताब्दी में स्पेन से आया था। जिप्सी लोगों को पारंपरिक रूप से खानाबदोश के रूप में जाना जाता है। यूरोप की संस्कृति के विभिन्न रूपों, खासकर संगीत और लोक नृत्यों पर जिप्सियों ने गहरी छाप छोड़ी है। मशहूर स्पेनी डांस, फ्लेमेंको रोमानी प्रभाव की जीती जागती मिसाल है।

सदियों से यूरोपीय महाद्वीप में रहने के बावजूद जिप्सियों को आज भी समाज में सम्मानजनक स्थान नहीं मिला है। हिटलर के समय करीब पांच लाख जिप्सियों का नरसंहार हुआ था। वे आज भी विभिन्न देशों में नफरत, उत्पीड़न और भेदभाव के शिकार हैं। फ्रांस में सार्कोजी प्रशासन और इटली में बर्लुस्कोनी प्रशासन के दौरान जिप्सियों को चुन कर निशाना बनाया गया। इटली में तो उन्हें जबरन बेदखल भी किया गया। ज्यादातर जिप्सी परिवार गरीबी से जूझ रहे हैं। हंगरी में यूरोपीय रोमा अधिकार केंद्र के प्रमुख रॉबर्ट कुशनर का कहना है कि हंगरी में छठी शताब्दी से जिप्सी लोग बसे हुए हैं। इतनी सदियां गुजरने के बावजूद उनके प्रति भेदभाव जारी है।

ये लोग नौकरियां पाने और अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में भेजने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यूरोपीय धरती पर गहरी जड़ों के बावजूद उन्हें मुख्यधारा से अलग रखा जाता है। नेताओं के भाषणों में उनके प्रति अक्सर जहर उगला जाता है। कुशनर के अनुसार आने वाले समय में अनेक यूरोपीय देशों के कार्यबल में करीब 25 प्रतिशत लोग जिप्सी होंगे। अत: आर्थिक, नैतिक और सामाजिक कारणों से जिप्सियों के प्रति भेदभाव की समस्या से निपटना बहुत जरूरी है। समाज में जिप्सियों को प्रतिष्ठित स्थान दिलाने के लिए उनके मानव अधिकार बहाल किए जाने चाहिए।

Saturday, 11 May 2013

किंजल की कलम से किंजल सिंह और न्याय की देवी

        न्याय की देवी की जब भी परिकल्पना हुई होगी तो शायद यही सोच कर हुई होगी की समाज में सामंजस्य बना रहे। लोगो के अन्दर अपराध, बुराई के प्रति एक डर बना रहे। ताकि लोग चैन और सुकून से समाज में सास ले सके। हमने बचपन से ही न्याय के ना जाने कितने ही किस्से, कहानिया अपने बड़े बुजुर्गो से सुनी होंगी, ताकि हम भी उन गलत राहो पे ना जाये जैसा की उन किस्सों कहानियो में अपराधी जाते थे, अगर गलती से भी हम उधर जाने की सोचे तो अपराधियों को मिली सजा का डर हमे अपने कदमो को वापस खीचने पर विवश कर दे। कालांतर से लेकर अब तक न्याय के नियम और न्याय की देवी का रूप न जाने कितनी ही बार बदला। जिसकी सत्ता रही, प्रभाव रहा उसने उन्हें अपने अनुसार ढाल लिया, आज की न्याय की देवी ने अपनी आँखों पर काली पट्टी शायद इशी लिए बधवाना स्वीकार किया होगा ताकि वो सबको एक सामान नजर से देख सके, वो आमिर-गरीब, जात-पात, धर्म-संप्रदाय में लोगो को न देख केवल सत्य, तथ्य और सबूतों को अपने उस तराजू में रख कर तौल सके जिसको उन्होंने अपने हाथो से संतुलित अवस्था में पकड़ा हुआ है और परिणाम स्वरुप सत्य, कर्तव्य, निष्ठा में लोगो का विश्वाश न्याय से, न्याय के प्रति, समाज के प्रति जगा सके।
        न्याय के हमने ना जाने कितने ही किस्से सुने, जिनमे हमने कभी पल में न्याय होते देखा तो कभी न्याय की आशा में सदियॊ को गुजरते, पीढियों को मरते। कभी न्याय के किस्सों को सुनकर मन हर्ष से भर उठता तो कभी न्याय के कुछ दुसरे किस्सों को सुनकर वही मन शर्म से भर उठता। मन में अक्सर एक वेदना भी उठती की आखिर ऐसा क्यों होता है ? क्या कारण है? की मन को शर्म से भरना पड़ता है।
        तो सोचा क्यों ना न्याय के मंदिर से निकले, न्याय के किस्सों रूपी संग्रह के कुछ पन्नो को पलट कर देखा जाये। जब पन्नो को पलटा तो महसूश हुआ की, न्याय के इन संग्रहों के पन्नो को जब भी हम पलट कर देखेंगे तो उसमे न जाने कितने ही ऐसे काले अध्याय लिखे मिलेंगे, जो हमे ना चाहते हुए भी अपनी इस व्यवस्था को कोसने को मजबूर करेंगे। ऐसे किस्सों को सुनाने बैठू तो शायद सदिया गुजर जाये पर वो किस्से ना ख़त्म होगे। और फिर सदियों का समय ना आप दे पाएंगे और ना ही मै उन्हें संभाल। न्याय के मंदिर से, न्याय की देवी का, कहने को न्याय रूपी निकला केवल एक ही किस्सा आपको सुनाता हु। जो अभी कुछ दिनों पहले आया है। और शायद अब भी आपकी जहाँ में जिन्दा होगा। जो शायद इश न्याय व्यवस्था का वो दूसरा चेहरा भी आपको दिखायेगा।
        ये किस्सा है: 13 मार्च 1982 के उत्तर-प्रदेश के गोंडा जिले के मधवापुर गाव का, जब स्वार्थवश एक फर्जी मुठभेड़ में तत्कालीन गोंडा के DSP स्वर्गीय श्री कृष्ण प्रताप सिंह समेत दर्जन भर निर्दोष गाव वालो को उन्ही के विभाग के भ्रष्ट सहयोगियों ने गोली का सिकार बना हत्या कर दी थी। कृष्ण प्रताप सिंह सिंह जी के परिवार में उस समय उनकी पत्नी विभा सिंह  और दो बच्चिया किंजल गोद में और प्रांजल माँ के पेट में थी। उनकी पत्नी के लिए न्याय की लड़ाई लड़ना कितना कठिन हो गया होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। वो भी तब जब फर्जी मुडभेड को अससली का रूप दिया जा चूका हो, जाच करने वाले और आरोपी कोई और नहीं बल्कि खुद पुलिश वाले ही हो। दुनिया की रीत है अगर अपवादों को छोड़ दे तो बुरे वक़्त में जाने पहचाने तो क्या अपने भी साथ छोड़ देते है पर यहाँ भी माँ नहीं घबराई और जीवन में केवल तीन ही मकसद ठान लिया। पहला तो अपनी बच्चियों का अच्छा लालन-पालन कर एक सफल इंसान बनाना, दूसरा अपने पति और उनके साथ मरे गए निर्दोष ग्रामीणों के साथ दोषियों को कठोर सजा दिलाना और तीसरा अपनी बच्चियों के द्वारा उस आवाज को बुलंद करना जिसको बुलंद करते-करते उनके पति ने अपने प्राणों की आहुति दे दी मतलब भ्रसटाचार के खिलाफ आवाज।
        ये पूरी राह आशान न थी। उन्होंने दोनों को न जाने कितनी ही राते जागते हुए, आचल की आड़ में सिसकिया लेते हुए, गैरो से ज्यादा अपनों से मिले जख्मो को सुखाते हुए जीवन संघर्षो के बीच उन्हें पाला। पर शायद खुदा को इतने में भी सबर न था, या यु कहे की बच्चियों को कुंदन बनने के लिए अभी और आग में तपना था। दोनों बच्चियों ने अभी ठीक से होश भी ना संभाला था की माँ को कैन्सर ने जकड लिया था। अब उस माँ के सामने कई और चुनौतिया आन खड़ी थी। चुनौतियों का सामना करते हुए उस माँ ने अपनी दोनों बच्चियों को उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली भेज दिया। अभी पढाई चल ही रही थी की अक्टूबर 2004 में माँ भी चल बसी। उनके निधन के दो दिनों बाद किंजल का पेपर था। दुखो से दबी पर साहस से भरी किंजल ने हर चुनौती का सामना किया और न सिर्फ पास हुई बल्कि गोल्ड मैडल भी हाशिल किया। दुखो के घोर अधेरो के बिच दोनों ने पढाई जारी रक्खी और ठान लिया IAS बनने का। अपने माँ पापा के आशीर्वाद से और उनके दिए साहस से दोनों ने एक साथ परीक्षा दी और दोनों का एक साथ चयन अखिल भारतीय सिविल सेवा में हुआ। दोनों की आँखे आशुओ से नम थी, उनमे कुछ ख़ुशी के थे तो कुछ गम के, ख़ुशी माँ बाप के सपनो को पूरा करने की और गम उनके साथ न होने का। आज दोनों के पास सब कुछ है, धन, दौलत, रुतबा, सोहरत, ताकत और वो रिश्तेदार भी जो कस्ट के समय दामन छुड़ा के चले गए थे और आज गर्व करते नहीं अघाते की हमारे रिश्तेदार किंजल UP IAS कैडर से बहराइच जिले की DM है। जबकि प्रांजल चंडीगढ़ में कस्टम कलेक्टर।
        शायद सही ही कहा है, "हर दिन होत ना एक समान" पर लड़ाई अब भी बाकी थी, माँ के पहले मकसद को पूरा कर चुकी बेटियों के सामने, पिता और निर्दोष ग्रामीणों को न्याय दिलाने की लड़ाई अब भी जारी थी। दिन पड़ता, तारीख पड़ती, मजमा लगता और वक्त गुजर जाता। फिर वो 5 अप्रैल 2013 का दिन भी आया जब CBI कोर्ट ने UPP के वर्तमान दरोगा पाण्डेय सहित तीन अन्य को फासी व अन्य कई को उम्रकैद की सजा सुनाई।
अपने माँ के दुसरे मकसद को भी बेटिया लगभग आधा पूरा कर चुकी है, आधा बाकि है, पर हा सफ़र लम्बा है। CBI कोर्ट में सजा तो मिल गयी लेकिन उस सजा और क्रियान्वयन के बीच में कई और न्याय के मंदिर मिलेंगे और जरुरी नहीं हर जगह न्याय की देवी का प्रसाद एक सामान हो। जहा तक रही माँ के तीसरे मकसद की बात, तो ये आने वाला वक़्त ही बताएगा की वो बच्चिया कितनी बड़ी हो चुकी होगी? वो अपने पिता के आदर्शो को, माँ के सपनो को किश रूप में प्रस्तुत करेंगी।
        न्याय के इश किस्से को सुनाने का मेरा मूल मकसद ये था की आप जाने एक व्यक्ति की अपने कर्मो के प्रति समर्पण, ईमानदारी के बारे में। एक माँ की त्याग और लड़ाई के बारे में। दो लडकियों के जीवन संघर्स के बारे में। और सबसे ज्यादा हमारी न्याय व्यवस्था के बारे में। आप सोच रहे होंगे कितनी अच्छी न्याय व्यवस्था है, न्याय तो मिल गया। लेकिन आइये अब आपको दिखाता हु, इशी किस्से में, इशी न्याय व्यवस्था का एक दूसरा रुख। फिर आप कहियेगा क्या यही है हमारी न्याय व्यवस्था।
        श्री K.P. सिंह जी के साथ जब घटना घटी तब तारीख थी 13 मार्च 1982 और CBI कोर्ट से जो फैसला आया उस दिन तारीख थी 5 अप्रैल 2013 । न्याय की आश में 31 साल गुजर गए। इश दौरान कई आरोपी फरियादी इश लोक से उस लोक चले गए जहा से कोई लौट कर नहीं आता, वही दूसरी तरफ उस समय के कई बच्चो के अब बच्चे जवा हो गए। कइयो के लगाये पेड़ो ने अब फल देना बंद कर दिया। पर हा देर से ही सही न्याय के मंदिर से, न्याय की देवी की कलम से, न्याय रूपी फल भी निकला। पर सवाल ये उठता है की ये फल अब है किस लायक? क्या इससे अब किसी फरियादी की भूख मिटेगी? इतने सालो बाद तो CBI कोर्ट से फैसला आया है, अब ये केस हाईकोर्ट में जायेगा, वह भी न जाने कितनो के कितने बसंत बीतेंगे। उसके बाद भी जो फल आएगा वो भी खाने लायक नहीं रहेगा, क्योकि तब वो चढ़ेगा सुप्रीम कोर्ट रूपी न्याय के मंदिर में। फिर वहा भी ये केस न जाने कितने मेजो पर मथ्था टेकेगा। और उसके पस्चात अगर सच में न्याय रूपी फल निकला तो वो कटने के लिये न जाने कितने साल तो महामहिम की चौखट पर घंटिया बजाएगा। पर मुझे कहने में संकोच नहीं हो रहा है की इश व्यवस्था से गुजरने के बाद वो फल मात्र आभाशी फल से अधिक कुछ नहीं रह जायेगा। न कोई असली आरोपी रह जायेंगे न कोई फरियादी। क्योकि निचली अदालत से फैसला आने में अगर 31 साल लग गए तो किसी को ये मानने में संकोच न होगा की अगले दो मंदिरों से गुजरने में कुल मिला कर कम से कम 31 साल और लगेंगे। और उसके बाद महामहिम के पास कम से कम 5 साल। कुल मिलाकर देखे तो एक न्याय को पाने में लग गए 67 साल। और भारत की जनता की औसत आयु है मात्र 64 साल। वैसे भी घटना के वक्त सभी आरोपी व्यस्क थे मतलब अंतिम फैसला आने तक कोई ना बचेगा। वैसे भी उनमे से अधिकतर अभी ही स्वतः मृतुलोक को जा चुके है, या फिर उनके बिच मात्र चंद कदमो का फासला रह गया है। तो हुआ न आभाशी फल।
        ये स्थिति तब है जब हमला हुआ था खुद पुलिश पर वो भी DSP रैंक के अधिकारी पर, फरियादी मौजूदा समय की PCS ऑफिसर थी और वर्त्तमान फरियादी IAS और जिले की मुखिया है।मात्र इशी से कल्पना की जा सकती है की भारत में हमारे आप जैसे आम आदमी के लिए न्याय के मंदिर से, न्याय की देवी द्वारा, न्याय पाना कितना कठिन है।
आखिर क्या कारण है की मंदिर की चौखट से अन्दर जाने के बाद बहार आने में इतना वक्त लग जाता है? इश पूरी व्यवस्था को किसने बनाया? क्यों बनाया? अगर कही कुछ कमिया है तो उसे कोइ दूर क्यों नहीं करता? खुद सोचिये। और मुझसे जानने के लिए पढ़िए इश न्याय व्यवस्था पर कुठाराघात करता मेरा अगला लेख। हो सकता है मेरे इश लेख में कुछ कमिया रह गयी हो या फिर आपका कुछ सुझाव हो तो मुझसे मिले.......

एक छोटी सी यात्रा बिठुर की

मैंने अक्सर महर्षि बाल्मीकि और उनके आश्रम के बारे में सुन और पढ़ रखा था, मन में सवाल भी आता था की क्या कभी मै वह जा पाउँगा? अभी कुछ दिनों पहले मेरा कानपूर जाना हुआ तो लगा आज मौका भी है दस्तूर भी, फिर क्या निकल पड़ा मै अपने दोस्त के साथ बिठुर के लिए। अब बिठुर क्या है? खुद पढ़िए और जानिए....
महर्षि वाल्मीकि की तपोभूमि बिठूर को प्राचीन काल में ब्रह्मावर्त नाम से जाना जाता था। यह शहर उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहर कानपुर से 22 किमी. दूर कन्नौज रोड़ पर स्थित है। शहरी शोर शराबे से उकता चुके लोगों को कुछ समय बिठूर में गुजारना काफी रास आता है। बिठूर में ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के अनेक पर्यटन स्थल देखे जा सकते हैं। गंगा किनार बसे इस नगर का उल्लेख प्राचीन भारत के इतिहास में मिलता है। अनेक कथाएं और किवदंतियां यहां से जुड़ी हुईं हैं। इसी स्थान पर भगवान राम ने सीता का त्याग किया था और यहीं संत वाल्मीकि ने तपस्या करने के बाद पौराणिक ग्रंथ रामायण की रचना की थी। कहा जाता है कि बिठूर में ही बालक ध्रुव ने सबसे पहले ध्यान लगाया था। 1857 के संग्राम के केन्द्र के रूप में भी बिठूर को जाना जाता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा नदी के किनार लगने वाला कार्तिक अथवा कतकी मेला पूर भारतवर्ष के लोगों का ध्यान खींचता है।
वैसे तो वहा पर देखने के लिए कई स्थल है पर जो मुख्य है आइये आपको उसके बारे में बताता हु।


वाल्मीकि आश्रम- हिन्दुओं के लिए इस पवित्र आश्रम का बहुत महत्व है। यही वह स्थान है जहां रामायण की रचना की गई थी। संत वाल्मीकि इसी आश्रम में रहते थे। राम ने जब सीता का त्याग किया तो वह भी यहीं रहने लगीं थीं। इसी आश्रम में सीता ने लव-कुश नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। यह आश्रम थोड़ी ऊंचाई पर बना है, जहां पहुंचने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। इन सीढ़ियों को स्वर्ग जाने की सीढ़ी कहा जाता है। आश्रम से बिठूर का सुंदर दृश्य देखा जा सकता है।
ब्रह्मावर्त घाट- इसे बिठूर का सबसे पवित्रतम घाट माना जाता है। भगवान ब्रह्मा के अनुयायी गंगा नदी में स्‍नान करने बाद खडाऊ पहनकर यहां उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। कहा जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने यहां एक शिवलिंग स्थापित किया था, जिसे ब्रह्मेश्‍वर महादेव के नाम से जाना जाता है।
पाथर घाट- यह घाट लाल पत्थरों से बना है। अनोखी निर्माण कला के प्रतीक इस घाट की नींव अवध के मंत्री टिकैत राय ने डाली थी। घाट के निकट ही एक विशाल शिव मंदिर है, जहां कसौटी पत्थर से बना शिवलिंग स्थापित है।
ध्रुव टीला- ध्रुव टीला वह स्थान है, जहां बालक ध्रुव ने एक पैर पर खड़े होकर तपस्या की थी। ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उसे एक दैवीय तारे के रूप में सदैव चमकने का वरदान दिया था।
इन धार्मिक स्थानों के अलावा भी बिठूर में देखने के लिए बहुत कुछ है। यहां का राम जानकी मंदिर, लव-कुश मंदिर, हरीधाम आश्रम और नाना साहब स्मारक अन्य दर्शनीय स्थल हैं।
ये सब जानने के बाद मन में एक बार वहा जाने का विचार तो आ ही गया होगा, पर अब सवाल ये उठ रहा होगा की वहा जाये कैसे और रुके कहा? तो आइये उसको भी बताता हु।
वायु मार्ग- बिठूर का नजदीकी एयरपोर्ट कानपुर व लखनऊ है। यहाँ दिल्ली से नियमित सुविधा उपलब्ध है।
रेल मार्ग- कल्याणपुर यहां का नजदीकी रेलवे स्टेशन है। कानपुर जंक्शन यहां का निकटतम बड़ा रेलवे स्टेशन है, जो की भारत के लगभग सभी बड़े सहरो से जुड़ा हुआ है।
सड़क मार्ग- बिठूर आसपास के शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। लखनऊ, कानपुर, आगरा, कन्नौज, दिल्ली, इलाहाबाद आदि शहरों से बिठूर के लिए नियमित बस सेवा उपलब्ध है।
बिठुर एक छोटा नगर है, इसलिए वहा पर ठहरने के लिए अच्छे होटल नहीं मिलेंगे पर कानपुर यहाँ से मात्र 22 किलोमीटर की दूरी पर है। जहा पर आप अपनी सुविधा अनुसार कोई भी होटल ले सकते है।
बिठुर के भौगोलीक स्थिति की बात करे तो ये लगभग 5 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और समुद्र तल से इसकी ऊंचाई लगभग 126 मीटर है। जबकि इस पूरे छेत्र में समानाय्तः हिंदी और अवधी बोली जाती है।
तो कब जा रहे है आप बिठुर? आशा है आपको मेरी ये यात्रा पसंद आई होगी।


किंजल कुमार 

शारदा चिटफंड घोटाला और मीडिया

शारदा चिटफंड घोटाले मामले में आजकल चारो तरफ हडकंप मचा है। हज़ारों करोड़ रुपये के इस गोलमाल ने पश्चिम बंगाल ही नहीं बल्कि पूर्वोत्तर भारत के लाखो गरीबों की जिंदगियों को पटरी से ही उतार डाला है। इस मायने में ये घोटाला महज़ एक आर्थिक अपराध न होकर एक जघन्यतम कृत्य बनकर उभरा है, जिसमें गरीबों से उनके मुंह का निवाला छीना गया है जो पहले से दो जून की रोटी नहीं जुटा पा रहे थे, उनको भीख मागने पर मजबूर कर दिया है। इसको केवल इशी आकडे से समझिये की ये घोटाला लगभग तीस हजार कड़ोड़ का है।
मीडिया ने शुरुआत में तो इस मामले को बड़ी सक्रियता के साथ उठाया और शायद ये मीडिया के शोर का ही परिणाम था की तक़रीबन महीने भर से फरार चल रहे इस पूरे घोटाले के कर्ता-धर्ता सुदिप्तो सेन मीडिया सक्रियता के पांच दिनों के भीतर ही पकड़े गये। लेकिन इस पूरे मामले की रिपोर्टिंग ने ये भी साबित कर दिया है मीडिया उसे तो गले से पकड़ लेती है जिसकी ताकत या पहुंच नहीं होती लेकिन जब बात पहुंच वाले या प्रभुत्व और प्रभावशाली लोगो तक पहुचती है तो मीडिया कैसे अपना रास्ता बदल लेती है।
ये चिटफंड घोटाला इस बात का उदहारण है साथ ही इश बात का भी की इंसान इस हद तक नीचे गिर गया है कि अपने फायदे के लिए भिखारी को भी लूट सकता है। मीडिया का रवैया अलग-अलग स्तर के (सामाजिक और राजनीतिक प्रभुत्व के सन्दर्भ में) संदिग्धों के लिए किस कदर अलग अलग हो सकता है। एक ही मामले में लगभग एक ही तरह की भूमिका के लिए अलग-अलग लोगों से मीडिया किस प्रकार अलग अलग तरीकों से डील करती है- ये मामला इस सन्दर्भ में एक अच्छा केस-स्टडी हो सकता है।

दरअसल चौतरफा दबाव बढ़ने पर और किसी भी समय अपना खेल पूरी तरह ख़त्म होने के आशंकाओं के बीच शारदा ग्रुप के मालिक सुदिप्तो सेन ने 6 अप्रैल, 2013 को सीबीआई को एक चिट्ठी लिखी थी जिसमें उन्होंने पूरे विस्तार से ये बताया था कि किस तरह कुछ मीडिया के लोगों और राजनेताओं ने उसे हर मुसीबत में बचाया और इसकी तगड़ी कीमत वसूली। जिन तीन बड़े नामों का मुख्यतः इस पत्र में उल्लेख था उनमे दो तृणमूल कांग्रेस के सांसद हैं और तीसरा नाम है वित्त मंत्री पी चिदंबरम की पत्नी नलिनी चिदंबरम का। चूँकि तृणमूल कांग्रेस का प्रभुत्व क्षेत्रीय है और अभी वो दिल्ली के सत्ता-समीकरणों से भी बाहर है तो हमारा मीडिया उन पर तो पिल पड़ा पर किसी भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उल्लेख मात्र के लिए भी इस पूरे मामले में नलिनी चिदंबरम का नाम नहीं लिया।
चिट्ठी में इस बात का साफ़ उल्लेख किया गया है कि नलिनी चिदंबरम ने पूर्वोत्तर-भारत में एक क्षेत्रीय चैनल खोलने के लिए सुदिप्तो सेन पर 42 करोड़ देने का दबाव बनाया था। ये उस समय की बात है जब सुदिप्तो सेन वित्त मंत्रालय और सेबी के राडार पर थे। किसी भी इलेक्ट्रॉनिक चैनल ने इस बात का रत्ती भर भी उल्लेख नहीं किया जबकि इसी तरह के आरोपों के लिए दिन भर ये चैनल तृणमूल कांग्रेस के उन दो सांसदों की मिट्टी पलीद करते रहे। ऐसा कहने का मकसद तृणमूल कांग्रेस का किसी तरह का समर्थन नहीं है बल्कि जो भी इस काम में रत्ती भर भी शामिल रहे हैं, उन्हें सार्वजनिक मंचों पर इसी तरह जलील किया जाना चाहिए।
दरअसल इस मामले के "मेरिट" पर यदि बात की जाये तो चिटफंड केन्द्रीय वित्त मंत्रालय के अधिकार-क्षेत्र में आता हैं और राज्यों या स्थानीय प्रशासन की भूमिका तभी आती है जब किसी गड़बड़ी की शिकायत की जाये. इस लिहाज़ से किसी पूर्व वित्त मंत्री और अगले वित्त मंत्री होने के प्रबल दावेदार की पत्नी का आरोपी से पैसे की मांग करना निश्चित रूप से ज्यादा बड़ी खबर है बनिस्पत स्थानीय प्रशासन के मिलीभगत से. यही पत्रकारिता का तकाजा भी है। लेकिन किसी भी चैनल ने इस तथ्य को प्राथमिकता नहीं दी। प्रिंट मीडिया ने भी ऐसी ही कारस्तानी दिखाई। सबसे पहले तो नलिनी चिदंबरम "हेड-लाइन" से गायब रहीं और बीच में कही हल्का उल्लेख कर दिया गया। कुछ ने तो एक कदम आगे बढ़- "यूपीए सरकार के एक ताकतवर मंत्री की पत्नी" जैसे जुमले का प्रयोग किया, जबकि तृण-मूल कांग्रेस के दोनों सांसदों के बाकायदा नाम दिए गए।
यदि नलिनी चिदंबरम के नाम का उल्लेख न करने का कारण ये था कि ये धोखेबाजी के एक आरोपी का आरोप है जो विश्वसनीय नहीं माना जा सकता तो ये तर्क फिर तृणमूल कांग्रेस के उन दो सांसदों पर भी लागू होता है। मीडिया का ये दोहरा चेहरा खुद उसके लिए ही घातक है।
पर मेरा सबसे बड़ा सवाल सीधे आपसे: क्या इतना बड़ा घोटाला बिना राजनीतिक, प्रशासनिक सहयोग के केवल सुदिप्तो सेन के बस की बात थी? जवाब शायद आपको मिल गया होगा।
मै यहाँ पर किसी का समर्थन नहीं कर रहा हु। मै तो केवल ये सवाल उठा रहा हु की आखिर क्यों बाते पूरी तरह से उभर कर सामने नहीं आ पाती है? क्या कारण है की पत्रकारिता अपना पूरा धर्म नहीं निभाती है? कही सब लक्ष्मी की माया तो नहीं है? जवाब मिले तो मुझे भी बताइयेगा। मुझसे मिले......!

किंजल कुमार