Saturday, 4 December 2021

कोरोना का नया वेरिएंट

 

कोरोना का नया वेरिएंट व्योवहार में कैसा होगा, आने वाले 15 दिनों में ज्यादा पता चलेगा . किसी भी वायरस की प्रवर्ति होती है के वो ज़िंदा रहने के लिए म्यूटेशन करता रहता है ,जाहिर है हमे आने वाले समय मे कई स्ट्रेन मिलेगी . पर ये पेंडेमिक दूसरी पेंडेमिक से अलग इसलिए है ये मनुष्य के "व्योवहार और अनुशासन "पर निर्भर है .और ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया में पहले की अपेक्षा कनेक्टिविटी ज्यादा है , नागरिकों का आवागमन अनेक कारणों से ज्यादा है .ऐसे में हम सब पर एक जिम्मेदारी आ जाती है. 
 
सुबह एक साहब इसलिए नाराज हो गये क्योंकि मेरे स्टाफ ने उन्हें मास्क पहनने को कह दिया .वे पढ़े लिखे व्यक्ति थे ,ऐसी जगह नौकरी करते है जहां पबिलिक डीलिंग होती है .उनसे और अधिक जिम्मेदारी अपेक्षित थी .सुबह सड़क पर 100 में 95 लोगो को सड़क पर बिना मास्क के देखा .मैं नही जानता अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक ना रहने में कैसी बाहुदरी है ! भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से को अभी वैक्सीन की दूसरी डोज़ लगना बाकी है ,बच्चो को अभी तक हमने शुरू किया नही है .हमारे लिए बूस्टर से ज्यादा महत्वपूर्ण अभी पूरी आबादी को वैक्सीन लगाना है .
 

 
घबराये नही पर आने वाले कुछ दिनों में सावधान रहें .
 
Writer : Anurag arya

Friday, 3 December 2021

इनके एक हाथ मे यूरिन बैग है दूसरे में बिस्किट का पैकेट ,ये अपनी" डायलेसिस" का इंतज़ार कर रहे है . नही !!

 

इनके एक हाथ मे यूरिन बैग है दूसरे में बिस्किट का पैकेट ,ये अपनी" डायलेसिस" का इंतज़ार कर रहे है .
नही !!
 

 
 
इस तस्वीर का मतलब आपको इमोशनल करना नही है !
वेटिंग रूम में आज सुबह एक 4 साल के बच्चे से दूसरी फैमिली के 7 साल के बच्चे का खिलौना टूट गया ,उसकी मां ने उसे डांटना शुरू किया तो 7 साल के उस बच्चे ने उन्हें डांटने से मना किया .उन
7 साल के एक साहबजादे को "ज्यूवेनाइल डायबेटिक" है ,दिन में 3 दफे इन्सुलिन लेते हैं.
एक 6 साल की बच्ची को स्टेज पर अपनी बेस्ट परफॉर्मेंस के अवार्ड को लेकर अपने दूसरे क्लासमेट्स को स्टेज पर बुला रही है . नीचे उसकी मां की आंखों में आंसू थे पास बैठी दूसरी मां को लगा वे "ज्यादा सेंसिटिव" है
"फर्स्ट टाइम ऑन स्टेज "उन्होंने पूछा!
मां ने कहा
"जब पैदा हुई थी 450 ग्राम की थी ,छोटी सी .डॉक्टर ने कहा बचेगी नही
पहले दो दिन वो जितनी दफे सांस लेती मैं उसकी छाती पर उतनी दफे हाथ रखती .आज सुबह से जब से उसे तैयार कर रही थी वो दिन याद कर रही हूं इसलिए भावुक हो रही हूं ."
तीनो इसी दुनिया की बाते है .
असल बाते .
दुनिया में कितने ऐसे लोग है जो खामोशी से अपने हिस्से की लड़ाई लड़ रहे है.उन चीज़ों के लिए जिनकी नेमत हमको, आपको हासिल है ,फिर भी वे तल्ख नही है
नाराज नही है और हम ज़िन्दगी में कितना समय बेफज़ूल के गरूर और तल्खी में जाया कर देते है .
 
Writer Anurag Arya

Thursday, 2 December 2021

आबादी का बड़ा वरनेबल और मासूम है ,उसे बचाने की कलेक्टिव जिम्मेदारी सभी बड़ो की है

 

7th क्लास में थे तो एक क्लास मैट्स था .खूब क्रिकेट खेलता , साइकिल तेज चलाते मस्ती करता .3 रोज वो लगातार स्कूल नही आया ,मालूम चला उसकी मम्मी नही रही .कई दिनों बाद वो स्कूल आया .पर जैसे अपने आप को कही छोड़ आया था .बेतरतीब कपड़ो में आता ,लंच में टिफिन शेयर नहीं करता ,क्रिकेट के मैदान से दूर रहता साइकिल भी बहुत धीमे धीमे चलाकर घर अकेला लौटने लगा .कुछ महीनों बाद हम देहरादून शिफ्ट हो गये .शहर और स्कूल कुछ वक़्तों के लिए छूट गया. 
 

 
 
अब पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो लगता है वो कितने "दुख" में था .उसे काउंसलिंग की जरूरत थी ,किसी बड़े की ,स्नेह की .सरकारी स्कूलों में काउंसलर के बारे में सोचना भी उस वक़्त अकल्पनीय था .कितने बच्चे, कितने बचपन दुख से अकेले सालो लड़ते है बिना ये जाने के उन्हें कैसे लड़ना है .कल एक 21 साल की लड़की अपने भतीजे को दिखाने आयी कोरोना ने उसके माता पिता ,दादी को उससे छीन लिया .उसके घुंघराले बाल देख अपना वो क्लासमेट्स याद आ गया .दुनिया की कोई ताकत किसी बच्चे को उसकी मां पिता वापस नही दे सकते पर दुख को एब्सॉर्ब करने ,"हरने "में उसकी इनविजिबल मदद कर सकते है .स्नेह ,प्यार ,संवाद और अपेक्षाकृत ज्यादा टॉलरेंट एनवायरमेंट समाज बना कर .
मैं नही जानता किसी स्कूल के कॅरिकुलम में टीचरों को भी मेन्टल हेल्थ के कुछ सेशन की ट्रेनिंग या "Greif Awareness " जैसे विषयों से इंट्रोड्यूस कराया जाता है या नही .या प्राइवेट स्कूलों में अपॉइंटेड कायून्सलर योग्यता के सभी मानक पूरे करते है या नही .पर यकीन मानिए आबादी का ये हिस्सा बड़ा वरनेबल और मासूम है ,उसे बचाने की कलेक्टिव जिम्मेदारी सभी बड़ो की है .
P.S -तस्वीर गूगल से दुख की पांचों स्टेज को दिखाती है .
 
Writer : Anurag Arya

Monday, 29 November 2021

दुनिया के कई हिस्से है और कुछ हिस्सों की दुनिया मे ईश्वर की उपस्थिति लेट हुई है ,और उस दुनिया को अब भी मनुष्य ही चला रहे है

 

जानते है इस देश मे
सबसे बड़ा अपराध क्या है?
" गरीब होना "
किसी ने लिखा था "कानून" और "न्याय "दो अलग चीज़े है !
जब पुलिस और व्यवस्था ही आपको अपराधी साबित करे और आपको अपने आप को निर्दोष साबित करने के लिए ,अपने "सर्वाइवल" के लिए आपको अदालत में खुद ही लड़ाई लड़नी पड़े .
ये लोकतांत्रिक व्यवस्था की "बुनियाद में डिफेक्ट "आने की निशानी हैं जो लोकतंत्र के उस मूल सिद्दांत से उसे हटाती है जिसमे सबसे अंतिम पायदान पर खड़ा हुआ व्यक्ति भी बराबर है .
ये जरूरी नही के आप इसे जीत जायेगे ,और इसे जीतने में आपको कितने वर्ष लगे ,आपके जीवन के कितने साल इस लड़ाई को लड़ने में जाया होंगे .आर्थिक और सामाजिक मुश्किलों की तो अलग फेरहिस्त है .लोकतंत्र में ताकते अपने हितों और सत्ता के लिए ऐसे ही अपनी ताकत का दुरुपयोग करती है .और प्रतिरोध की अनुपस्थिति उन्हें किसी भी जवाबदेही से मुक्त तो बनाती ही है क्रूर भी. सामाजिक व्यवस्था की कुरीतियों से लड़ते लड़ते हमारे समाज ने दूसरी नई कुरीतियों को ज़िंदा रखने की तरकीबें सीख ली है.
हमारे यहां अदालतों को केंद्र में रखकर , अंतिम पंक्ति के व्यक्ति के लिए न्याय के लिये लड़ाई पर कमोबेश कम फिल्मे बनी है .
गोविंद निहलानी की नसीर ओम पुरी और अमरीश पुरी को लेकर बनाई गई फ़िल्म "आक्रोश",
"जोली एल एल बी" का प्रथम भाग और यथार्थ के बेहद नजदीक अदालतों और सिस्टम के क्रूर उदासीन चेहरे को रिफ्लेक्ट करती मराठी फिल्म "कोर्ट "मुझे याद आती है इसके अलावा
"जोली एल एल बी 2" और" मुल्क" दो ऐसी फिल्में है जो मुख्य धारा के सिनेमा को रिप्रजेंट करती है
"जय भीम "अपने प्रजेंटेशन में मराठी फिल्म "कोर्ट" जितनी यथार्थवादी और दृश्यों को लेकर उतनी सचेत फ़िल्म नही है पर फिर भी मुख्य धारा के सिनेमा के ऑडिएंस की लिमिटेशन को ध्यान में रखकर बनाई गई फ़िल्म है जिसकीं कुछ कमियों को नजरअंदाज किया जा सकता है .
 
 

 
फ़िल्म इसलिए देखी जानी चाहिए
क्योंकि ये कानून की व्यवस्था के मार्गो की पड़ताल करती है जिसमे पुलिस वकील और अदालत है .
जातियों को लेकर पूर्वाग्रह से भरा समाज है .ये वापस रिकॉल कराती अब भी हम एक ऐसी व्यवस्था में रह रहे है जो दो खांचों में विभाजित है .एक "इनविजिबल लाइन!" ने दो खाने बना रखे है एक तरफ अमीर है और दूसरी तरफ गरीब .
गरीबी के हर्डल बहुत है उसे हर आवश्यक चीज़ के लिए एक हर्डल पार करना होता है.गुजरते वक़्त के साथ व्यवस्थाये दुरस्त होने के बजाय और असक्षम होती जा रही हैं,ट्रांसपेरेंट और अंतिम व्यक्ति की रीच में होने के बजाय दूर ओर अधिक ऊंची होती जा रही है.
व्यवस्थाओं पर व्यक्तियों का कब्जा हो रहा है , उन्हें प्लांड वे में और कमजोर किया जा रहा है ताकि उनका लोकतांत्रिक चरित्र और कमजोर किया जा सके .
शहरी समाज का एक हिस्सा जो कंफर्टेबल ज़ोन में रहता आया है वो इस निर्मित व्यवस्था की क्रूरता से अनजान है .
फ़िल्म के कई हिस्से आपको क्रूर लगेंगे पर यही सच है विशेष कर थाने के दृश्य ,घरों से खींच कर सस्पेक्टेड के साथ किया जाने वाला बर्ताव ,पुलिस वालों की बॉडी लैंग्वेज . उनमे गिल्ट का अभाव.
जातियां केवल गांव में ही नही शहरों में भी बेताल की तरह लोगो की पीठ से लदी है .पढ़े लिखे लोगो की पीठ जो बेताल को ही नही छोड़ना चाहती .
फ़िल्म देखिये क्योंकि ये बतायेगी के इसी दुनिया के कई हिस्से है और कुछ हिस्सों की दुनिया मे ईश्वर की उपस्थिति लेट हुई है ,और उस दुनिया को अब भी मनुष्य ही चला रहे है.
 
Writer : Anurag Arya

Sunday, 28 November 2021

खुदा जैसी कोई शै है भी तो बड़ी तकलीफ में है

 

एक रोज पीडिएट्रिक वार्ड में एक 2 दिन का बच्चा आया ,ना मालूम किसका ! कोई उसे छोड़ गया था .
"मै उस मां के बारे में सोच रहा हूँ जो उसे छोड़ गयी ,वो सारी उम्र इसे नहीं भूलेगी !" उसने कहा
"तुम खुदा में यकीन करते हो " मैंने उससे पूछा था जैसे अपने यकीन को टटोल रहा था .
"खुदा जैसी कोई शै है भी तो बड़ी तकलीफ में है "
उस रात हम उसी पुल पर बैठे. तकलीफों में आपको कुछ जगहों की आदत हो जाती है. हमने सिगरेट का सारा पैकेट ख़त्म कर दिया था. अपने- अपने कमरों में हम दोनों उस रात सोये नहीं थे .
 

 
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वो कहती है" तुमने अगर ज़िन्दगी में कुछ फैसले अलग लिए होते तो शायद किसी और तरह के होते "
"यकीन से नही कह सकता"
"तुम डेस्टीनेशन में यकीन करते हो"
"हम अपने फैसलों का ही हासिल होते है ,आदमी के मिजाज की कई वजहें होती है .
मैं उसकी नाइत्तेफाकी महसूस कर लेता हूँ . पर इस उम्र तक आते आते मैंने अपने मिज़ाज़ में बहुत सी चीज़ों को देखा था कमाल की बात थी जिन्हें मैंने नही चुना था पर वे मेरे मिजाज का हिस्सा था . शहर भी आदमी के मिजाज की तबियत तय करने में शामिल होते है
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कोई कहता है "तुम अपना वक़्त कागजो में जाया करते हो "
मै कहता हूँ "दरसल मै शनाख्त कर रहा हूँ खुद की , और आसान नहीं होती शनाख्त। हर आदमी एक उम्र में अपने अपने तरीके से अपनी शनाख्त करता है कोई दौड़ कर ,कोई गिटार बजा कर ,कोई कैमरों के संग. मै कागजो में अपने हमशक़्ल को ढूंढ रहा हूँ !

Monday, 8 November 2021

8 नवम्बर 2016-8 नवम्बर 2021 : देश की आर्थिक बर्बादी के पाँच साल पूरे

 

8 नवम्बर 2016-8 नवम्बर 2021 : देश की आर्थिक बर्बादी के पाँच साल पूरे
आज नोटबन्दी को पाँच साल पूरे हुए हैं, कमाल की बात यह है कि बीजेपी इस बात का कोई उत्सव नही मना रही है दरअसल अंदर ही अंदर सब जानते है कि हमने नोटबन्दी कर पाया तो कुछ नही बल्कि खोया बहुत कुछ है, मीडिया में जो आज के दिन के बारे में लेख छपे है उनमें सिर्फ यही बात कही जा रही है कि 8 अक्टूबर 2021 तक 28.30 लाख करोड़ रुपये का कैश था जोकि 4 नवंबर 2016 को उपलब्ध कैश के मुकाबले 57.48 फीसदी अधिक है. इसका मतलब हुआ कि लोगों के पास पांच साल में कैश 57.48 फीसदी यानी कि 10.33 लाख करोड़ रुपये बढ़ गया. 
 

 
 
4 नवंबर 2016 को लोगों के पास 17.97 लाख करोड़ रुपये की नगदी थी जो नोटबंदी का ऐलान (8 नवंबर 2016) होने के बाद 25 नवंबर 2016 को 9.11 लाख करोड़ रुपये रह गई. इसका मतलब हुआ कि 25 नवंबर 2016 के लेवल से 8 अक्टूबर 2021 तक आने में 211 फीसदी नगदी बढ़ गई. जनवरी 2017 में लोगों के पास 7.8 लाख करोड़ रुपये की नगदी थी.
 
लेकिन यह तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है इस आँकड़े से कैश बबल पर फैलाए गए मोदी सरकार के झूठ के कलई खुलती ही है साथ ही यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि नोटबन्दी के जीडीपी ग्रोथ पूरी तरह से बैठ गई है 2015-1016 के दौरान जीडीपी की ग्रोथ रेट 8.01 फ़ीसदी के आसपास थी वो पिछले साल 2020-21 में माइनस में 7.3% दर्ज की गयी 
 
मनमोहन सिंह ने नोटबन्दी के एक साल बाद सात नवंबर, 2017 को भारतीय संसद में कहा था कि ये एक आर्गेनाइज्ड लूट है, लीगलाइज्ड प्लंडर (क़ानूनी डाका) है......अर्थशास्त्री ज्या द्रेज ने कहा था कि नोटबन्दी एक पूरी रफ्तार से चलती कार के टायरों पर गोली मार देने जैसा कार्य हैं नोटबन्दी के पाँच साल बाद उनकी बात पूरी तरह से सच साबित हुई .....
 
writer : Girish Malviya