Kuch logo ka sigrate pina shouk ban gaya hai, Apne shouk ko itna na badhaye ki aapki jindagi hi simat jaye. No Tobacco. No Smoking. By chiragan
Thursday, 31 May 2012
Kuch log Sigrate ko apni pahchan samajh kar pite hai, Sigrate se apni pahchaan ko itna na banaye ki, aaapka astitva hi samapt ho jaye. No Smoking, No Tobacco. By Chiragan
Kuch log Sigrate ko apni pahchan samajh kar pite hai, Sigrate se apni pahchaan ko itna na banaye ki, aaapka astitva hi samapt ho jaye. No Smoking, No Tobacco. By Chiragan
Kuch Log Sigrate lat me aa kar Pite hai, Sigrate ki lat itna na badhaye ki jindagi ka safar bich raste me hi samapt ho jaye. No Smoking, No Tobacco By Chiragan कुछ लोग सिगरेट लत में आ कर पीते है, सिगरेट की लत को इतना न बढ़ाये की जिंदगी का सफ़र बीच रास्ते में ही समाप्त हो जाये. एक बार सोचे जरूर. चिरागन
Tuesday, 29 May 2012
Monday, 28 May 2012
वर्चस्व और हाशिए की भाषा Varchasva aur hasiye ki bhasha by chiragan
Varchasva aur hasiye ki bhasha by chiragan |
जो भाषाएं अपनी मत-शक्ति से संसद और विधानसभाओं का निर्माण करती हैं, करोड़ों बच्चों को स्कूल जाने और कुछ शिक्षा प्राप्त करने योग्य बनाती हैं, भावी पीढ़ी का निर्माण करती हैं, सामान्य से सामान्य जन के बीच संवाद का माध्यम बनती हैं वे कब तक उस भाषा के सम्मुख हीनताभाव से ग्रस्त रहेंगी, जिसे कुछ मुट्ठी भर लोग अपने निहित स्वार्थों के लिए देश के कंधों पर लादे रखना चाहते हैं?
भारतीय भाषाओं को सम्मान और उचित स्थान दिलाने के लिए प्रयत्नशील लोग, कम से कम पिछले सौ वर्षों से इन प्रश्नों से जूझ रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद से तो यह प्रश्न निरंतर चर्चा और विवाद के केंद्र में रहा है और अनेक कोणों से इस पर विचार किया गया है। इस देश में भाषा के आधार पर राज्यों का गठन ही इसलिए किया गया था कि सभी क्षेत्रीय भाषाओं को अपने-अपने राज्यों में राजभाषा बनने का गौरव प्राप्त हो और उन्हें सभी दृष्टियों से प्रगति का अवसर मिले। इसी के साथ इस बात को भी आवश्यक समझा गया कि सभी भाषाओं में संवाद, पत्र-व्यवहार, अनुवाद और आदान-प्रदान में संपर्क भाषा की भूमिका निभाने का दायित्व हिंदी को हो, जो देश के अधिकतर भागों में बोली और समझी जाती है तथा केंद्र और उत्तर भारत के अनेक राज्यों ने उसे अपनी राजभाषा के रूप में मान्यता दी है।
पिछले कुछ सालों में इस दृष्टि से उल्लेखनीय प्रगति भी हुई है। अब अनेक राज्यों का राजकीय कार्य बड़ी मात्रा में उनकी भाषाओं में होता है। जहां कुछ कमी है वहां उसे पूरा भी किया जा रहा है, पर इस स्थिति की सबसे बड़ी कमी यह है कि जब इन भाषाओं का केंद्र से संपर्क होता है या आपसी संवाद का अवसर आता है तो अंग्रेजी की शरण में जाए बिना इन्हें और कोई विकल्प नहीं सूझता। इस बिंदु पर अंग्रेजी की संप्रभुता स्वीकार कर ली जाती है।
अंग्रेजीदां व्यक्ति यह समझने लगता है कि उसके बिना इस देश में न कोई सार्थक संवाद हो सकता है, न किसी प्रकार का कोई निर्णय किया जा सकता है। वह समझता है कि कार की पिछली पूरी सीट पर मैं अकेला पसर कर बैठूंगा। भारतीय भाषा वाले व्यक्ति को ड्राइवर के साथ वाली आधी सीट पर ही बैठना चाहिए। उसका काम सिर्फ इतना है कि जब कभी भटकने की स्थिति आ जाए तो वह कार की खिड़की से झांक कर सही रास्ते के संबंध में कुछ पूछताछ कर ले। भारत सरकार भी कभी-कभी भारतीय भाषाओं के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करती है।
कुछ साल पहले मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने भारतीय भाषा प्रोन्नयन परिषद की स्थापना का निर्णय किया था। इस परिषद के अध्यक्ष प्रधानमंत्री और उपाध्यक्ष मानव संसाधन विकास मंत्री हैं। देश के विभिन्न भागों से बाईस विद्वानों और भाषाविदों को इस परिषद का सदस्य बनाया गया था। इस परिषद का काम था सरकार को भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भारतीय भाषाओं के विकास, प्रचार-प्रसार और प्रोन्नयन के लिए किए जाने वाले उपायों पर सलाह देना। यह बहुत स्वागतयोग्य कदम था।
भारतीय भाषाओं के विकास प्रचार-प्रसार और प्रोन्नयन के लिए भारत सरकार सभी प्रकार के प्रयास करे, यह बहुत अच्छी बात है, लेकिन मेरी दृष्टि में इससे भी बड़ी समस्या इन भाषाओं में आपसी संवाद, सौहार्द और आदान-प्रदान की है। भारतीय भाषाओं के बीच यह नहीं है और अगर है तो बहुत थोड़ा है। यही कारण है कि हम अभी तक भारतीय साहित्य का कोई समग्र या समन्वित चित्र नहीं उभार सके हैं। साहित्य अकादेमी जैसी संस्थाएं जो कुछ करती हैं, वह अंग्रेजी के माध्यम से करती हैं और भारतीय साहित्य को समर्पित उनके अधिकतर समारोह अंग्रेजी समारोह मात्र होते हैं। भारतीय भाषाओं के मध्य ऐसी संवादहीनता का लाभ अंग्रेजी उठाती है और सूचीबद्ध भाषाओं के बीच वह ‘दाल-भात में मूसलचंद’ कहावत को चरितार्थ करती हुई सबके बीच में अध्यक्ष की कुर्सी अनायास ही प्राप्त कर लेती है। इस स्थिति से निपटना सरल नहीं है।
व्यापक दृष्टि से अंग्रेजी ने हम सभी के अंदर गहरा हीनता भाव उत्पन्न कर दिया है। अंग्रेजी में हम बातचीत करना, अंग्रेजी अखबार और पुस्तकें पढ़ना, अंग्रेजी संगीत सुनना, अंग्रेजी फिल्में देखना और बड़े विश्वास से अंग्रेजी में ही यह मत व्यक्त करना कि यह तो अंतरराष्ट्रीय भाषा है। ज्ञान-विज्ञान की सभी खिड़कियां इसी भाषा के माध्यम से खुलती हैं। इसलिए अंग्रेजी ही हमारे व्यक्तित्व का सही प्रतिबिंब लोगों के सामने रखती है।
हमारे लेखक-आलोचक भी इस हीनता भाव से मुक्त नहीं हैं। वे सभी धाक जमाने के लिए अपने भाषणों और लेखों में जितने उदाहरण और उद्धहरण देते हैं उन सभी में यूरोप और अमेरिका की चर्चा होती है। अनेक अवसरों पर गलत-सलत अंग्रेजी बोलना उन्हें ठीक-ठाक हिंदी बोलने से अधिक तृप्ति देता है। ऐसे हीनता भाव पर किस प्रकार विजय प्राप्त की जा सकती है!
इस साल फरवरी के पहले हफ्ते में महाराष्ट्र के चंद्रपुर में पचासीवां अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन आयोजित हुआ। इस सम्मेलन की विशेषता यह है कि इसमें किसी गैर-मराठी लेखक को विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित कर उसका सम्मान किया जाता है। इस वर्ष सम्मेलन के आयोजकों ने मुझे आमंत्रित किया था।
मुझे यह बात लगातार अनुभव होती रही है कि भारत की विभिन्न भाषाओं में आपसी संवाद नहीं के बराबर है। सभी भाषाओं के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मेलन होते रहते हैं। लेकिन ऐसे सम्मेलन प्राय: उसी भाषा के लेखकों और विद्वानों तक सीमित रहते हैं।
कई विश्व हिंदी सम्मेलनों में मैंने भाग लिया है। अनेक विश्व पंजाबी सम्मेलन भी हो चुके हैं। मैं पंजाबी में लिखता हूं, इसलिए उनमें भी मेरी भागीदारी रही है। पर मुझे यह स्मरण नहीं होता कि ऐसे सम्मेलनों में कभी इतर भाषा के लेखकों को आमंत्रित किया गया हो। साहित्य अकादेमी ऐसे आयोजन अवश्य करती है, पर उनमें संवाद और विचार-विमर्श की भाषा सदैव अंग्रेजी होती है।
इस दृष्टि से अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन का कार्य बहुत सराहनीय है। स्वाभाविक है कि सम्मेलन का सारा कार्य, वक्तव्य और विचार-विमर्श मराठी में हुआ था। मेरे जैसे व्यक्ति ने वहां अपना भाषण हिंदी में दिया था। 20 जुलाई, 2011 को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक हुई थी। उसमें भी मैंने राष्ट्रीय भाषा आयोग के गठन की बात उठाई थी, जिसका अनेक सदस्यों ने समर्थन किया था। बाद में मैंने विस्तार से ऐसे आयोग के गठन की रूपरेखा देते हुए प्रधानमंत्री को एक पत्र भी लिखा था।
यह आवश्यक है कि भारत सरकार एक राष्ट्रीय भाषा आयोग का गठन करे। यह आयोग उसी प्रकार और स्तर का हो जैसे राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग, पिछड़ा वर्ग आयोग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग या मानवाधिकार आयोग है। इस आयोग का दायित्व और कार्य कुछ इस प्रकार हो सकते हैं-
- सभी भारतीय भाषाओं के विकास, प्रचार-प्रसार और प्रोन्नयन के लिए योजनाएं बनाना और उनके कार्यान्वयन के लिए केंद्र और राज्य सरकारों से संपर्क करना और सलाह देना।
सभी भारतीय भाषाओं में आपसी संवाद, आदान-प्रदान और अनुवाद कार्य को प्रोत्साहित करना, उसके लिए योजनाएं बनाना और इसके कार्यान्वयन के लिए साहित्य अकादेमी, नेशनल बुक ट्रस्ट और राज्यों की भाषा और साहित्य अकादमियों से संपर्क करना और सलाह देना।
भारतीय भाषाओं के लेखकों-भाषाविदों-रंगकर्मियों के मिलेजुले सम्मेलन कराना, जिनमें सभी लोग आपस में विचार-विमर्श कर सकें, नई प्रवृत्तियों और रचनाओं से परिचित हो सकें।
एक भाषा के लेखकों को दूसरी भाषा के क्षेत्र में भेजना, जिससे वे उस भाषा और उसके साहित्य का अंतरंग परिचय प्राप्त और क्षेत्रीय संस्कृति की विशेषताओं से अपना तादात्म्य स्थापित कर सकें।
भारतीय भाषाओं के मिलेजुले विश्व सम्मेलन आयोजित करना और उनमें विदेशों में बसे विभिन्न भारतीय भाषा-भाषियों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना।
भारतीय साहित्य के एक समग्र और समन्वित स्वरूप के विकास की दिशा में ठोस कदम उठाना।
भारतीय भाषाओं के बहुख्यात साहित्यकारों की जयंतियां अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित करना।
एक से अधिक भारतीय भाषाओं में सिद्धता प्राप्त करके एक भाषा से दूसरी भाषा में सीधा अनुवाद कर सकने वालों को प्रोत्साहित करना।
विश्वविद्यालयों में भारतीय साहित्य के समग्र और समन्वित पाठ््यक्रम तैयार कराना और उन्हें स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर अध्ययन के लिए प्रोत्साहित करना। संभव हो तो इस कार्य के लिए एक केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना करना।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि सभी भारतीय भाषाओं के बीच विचार-चर्चा और पत्र-व्यवहार के लिए हिंदी को संपर्क और संवाद की भाषा के रूप में आगे बढ़ाना।
ये कुछ सूत्र हैं, जिन्हें राष्ट्रीय राजभाषा आयोग अपने कार्य क्षेत्र में सम्मिलित कर सकता है। इसमें अन्य अनेक सूत्र और जोड़े जा सकते हैं। ऐसे आयोग की रचना के संबंध में अगर भारत सरकार कदम उठाए तो भारतीय भाषाओं को वह स्थान प्राप्त करना सुलभ हो जाएगा, जिसकी हम सभी कामना करते हैं।
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भाषा के विस्थापन का डर Bhasha ke Vishthapan ka dar. by Chiragan
Bhasha k visthapan ka dar. |
लोकभाषाएं किसी भी मानक भाषा की संजीवनी शक्ति होती हैं। जब तक लोक (जन या अंग्रेजी में फोक यानी आदिम मनुष्य या आदिवासी, जनजाति) जिंदा रहेगा, उसके साथ-साथ उसकी भाषा भी जिएगी। बोलियों के समाप्त होने के खतरे तब बढ़ जाते हैं, जब बोलने वाले समुदाय मिटा दिए जाते हैं, जैसा कि अमेरिका ने अनेक रेड इंडियन समुदायों के साथ किया, आस्ट्रेलिया ने एब-ओरिजिंस और न्यूजीलैंड ने मावरी जनजाति के साथ किया। भाषा-भाषी समुदाय मरता तब है, जब एक तो वह स्वेच्छा से अपनी मूल भाषा का इस्तेमाल परिवार, परिवेश और लोकाचारों में बंद कर दे। यह मात्र एक पीढ़ी में नहीं होता। जब पीढ़ी-दर-पीढ़ी भाषा-समुदाय रोजगार के लिए अन्य भाषा क्षेत्र में जाने लगता है तो वहां की स्थानीयता को न केवल भाषा, बल्कि भोजन, वस्त्र, लोकाचार तक में अपनाने लगता है।
जिस दिन किसान के पास खेत नहीं रहेंगे या देश की सौ प्रतिशत खेतिहर भूमि अंग्रेजी भाषी ‘औद्योगिक किसानों’ के पास चली जाएगी तो खेत और किसान से वंचित होते ही देश की अपनी भाषा या तो मर जाएगी या अन्य भाषा के वर्चस्व से मार दी जाएगी। अगर भारत की सत्तर प्रतिशत आबादी ग्रामीण है और यहां की सत्तर प्रतिशत जमीन में से लगभग साठ प्रतिशत पर खेती होती है तो इसका अर्थ है, खेत अभी जिंदा हैं। यह हो सकता है कि सत्तर प्रतिशत या साठ प्रतिशत जमीन को जोतने वाले सभी किसान नहीं होते। जमीन जोतने वाले किसान तो बड़े किसानों के मजदूर होते हैं। जिनके पास पांच-दस एकड़ जमीन है, वे ही जोतदार हैं, बाकी बड़े किसान तो जमीन के उसी प्रकार मालिक, मैनेजर या मैनेजिंग डायरेक्टर हैं जिस प्रकार उद्योगों में होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वास्तव में देश में कृषक कम और कृषि मजदूर अधिक हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि बड़े-बड़े किसान भले ही शहरों में बाल-बच्चों सहित बस गए हों, उनके बच्चे भले अंग्रेजी माध्यम में पढ़ते हों, पर उन्होंने न तो खेती में खेत के मजदूरों की भाषा छोड़ी है, न वे परिवार में अभी अपनी भाषा छोड़ पाए हैं।
मातृ संस्कृति का जिंदा बने रहनाभाषा के न मरने की उम्मीद का एक और बड़ा आधार है। जब माताएं अपनी मूल भाषा त्याग देंगी, तो बच्चे मां की भाषा से वंचित हो जाएंगे। तब जाकर ‘मदर टंग’ की जगह ‘अदर टंग’ लेने लगेगी। मां की अनन्यता खोकर जब बच्चे अन्य की भाषा अपना लेते हैं तो परिवार से बेदखल भाषा के कारण अन्य भाषा प्रभुत्व जमा लेती है। इसलिए मातृत्व की संस्कृति के साथ मां की मूल भाषा के संस्कार को बचाना आवश्यक है।
एक अन्य तथ्य यह है कि बच्चे जन्मना बहुभाषी होते हैं। परिवार से बाहर वे परिवेश, पड़ोस से जब घुलते-मिलते हैं तो जिस अधिकार से अपने घर की भाषा बोलते हैं वैसा ही स्वाभाविक अधिकार वे परिवेश की भाषा पर कर लेते हैं। बहुभाषी समुदाय में खेलते-खेलते बच्चों के लिए भाषा भी खेल बन जाती है। वे जब स्कूलों में जाने लगते हैं और किशोर उम्र में एक या दो भाषाएं सीखने लगते हैं तो उनका बहुभाषीपन समाप्त होने लगता है। अब वे मातृभाषा में कुछ नहीं सीखते। स्कूल की हर भाषा अन्य भाषा है, चाहे वह हिंदी हो, मराठी, गुजराती या दक्षिण की भाषा ही क्यों न हो।
सीखने की दो प्रणालियां हैं- एक है संवेगात्मक (इंसटिक्टिव), जो बच्चे परिवार से वैसे ही ग्रहण कर लेते हैं, जैसे वे नित्य कर्म करना, नहाना, वस्त्र पहनना, खाना खाना सीख जाते हैं। उसका न तो कोई पाठ्यक्रम होता है, न टाइम टेबल, न टीचर और न परीक्षा। यह डर-मुक्त स्वाभाविक सीखना होता है। जब भाषा स्कूलों में औपचारिक तरीकों से सिखाई जाती है तो बच्चों को अनेक बातें भूलनी होती हैं, जिसे ‘अनलर्न’ कहा जाता है।
अब प्रश्न यह है कि अनलर्न की यह प्रक्रिया, मूल भाषा के साथ क्या परिवारों में भी अपनाई जाती है? उत्तर है, नए-नए पढ़े-लिखे परिवारों में यह प्रक्रिया बहुत तेज है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब माता-पिता और अन्य परिजनों ने मूल भाषा क्षेत्र से बाहर निकल कर अन्य क्षेत्र की भाषा को अपना लिया। रोजगार, परिवेश, मित्र और लोकाचार सब जगह वे अन्य भाषा में अंतरक्रिया करते-करते अन्य भाषा के ही मूलभाषी हो गए। ऐसे में जिन बच्चों का जन्म अन्य भाषा में हुआ, वे यह जानते ही नहीं कि उनकी मूल भाषा क्या है।
अय्यर, नैयर, पटेल, सुब्रमण्यम जब हिंदी क्षेत्र में आ गए तो उनके बच्चों की मूल भाषा हिंदी हो गई और माता-पिता ने भी अपने अस्तित्व की रक्षा में अन्य भाषा को पारिवारिक भाषा बना लिया। इसका एक उदाहरण यह है कि छत्तीसगढ़ में बसे आंध्र के तेलुगू भाषी मूल भाषा भूल कर अब छत्तीसगढ़ी-भाषी हो गए, मालवा-निमाड़ में बसे गुजराती अब मालवी-निमाड़ी भाषी हो गए, ओड़िया और भोजपुरी भाषी छत्तीसगढ़ में आकर ओड़िया, भोजपुरी भूलने लगे।
भाषा का भूत सवार है तीन जगहों पर। उद्योग जगत विश्व-भाषा के नाम पर अंग्रेजी ठूंस रहा है। उसकी दलील है कि अंग्रेजी को अपनाने से खासकर वैश्वीकरण के दौर में हमें बहुत लाभ हुआ है। लेकिन चीन ने बिना अंग्रेजी के ही ऐसी बढ़त हासिल की कि वह दो दशक से ज्यादा समय से सबसे तेज आर्थिक वृद्धि दर वाला देश रहा है। हम औद्योगिक प्रगति को अंग्रेजी से जोड़ने की कितनी भी कोशिश करें, पर इस तर्क में कोई दम नहीं है। क्या जर्मनी और फ्रांस अंग्रेजी के बल पर विकसित देश बने हैं? सच यह है कि टाटा पारसियों से आज भी गुजराती में बात करते हैं, अंबानी गुजराती बोलते हैं, बिड़ला, बांगड़ सिंघानिया के परिवारों या कोलकाता के तमाम मारवाड़ी उद्योगपतियों के घरों में अब भी मारवाड़ी जारी है। यह बात अलग है कि अन्य लोगों ने स्थानीय जरूरत के लिए अन्य भाषा अपना कर मूल भाषा की उपेक्षा कर दी हो। इस प्रकार परिवार, परिवेश और लोकाचार तीनों जगह अभी मूल भाषा मरी नहीं है।
अब एक चर्चा का विषय यह है कि मीडिया की पैठ रसोईघर से लेकर बाजार तक हो गई है। मां-बाप बच्चों को दो साल की उम्र से प्ले स्कूल में भेज रहे हैं; वीडियो गेम्स, कंप्यूटर चैट, मोबाइल टॉक आदि के साधन और अवसर उपलब्ध करवा रहे हैं। क्या वे अपने बच्चों को अपनी मूल भाषा से वंचित कर अंग्रेजी भाषी हो जाने का दुस्वप्न नहीं देख रहे हैं! स्कूल से भाषा सीखते हैं जरूर, मगर कोई स्कूल आपके परिवार की भाषा तब तक नहीं छीन सकता, जब तक परिवार और खासकर मां मूल भाषा का त्याग नहीं करती।
कोई भी भाषा, भाषा या संप्रेषण का माध्यम मात्र नहीं होती। वह एक समूची संस्कृति की प्रतिनिधि और संवाहक भी होती है। उसमें एक समाज की परंपरा, उपलब्धियां, ज्ञान, संस्कार, सोच आदि सब बोलते हैं। राष्ट्र-भाषा तो वह तब बनती है, जब उसमें राष्ट्र के जन-जीवन, राष्ट्र की परंपरा और राष्ट्र के प्रति प्रेम दिखाई दे। उसे मंच की भाषा के बजाय, मन की भाषा बनाना होता है। कोई भी भाषा जब उस समुदाय की आत्म-भाषा बन जाती है तो आत्म-भाषा ही व्यापक रूप से राष्ट्र-भाषा बन जाती है। हिंदी न तो अंग्रेजी की तरह प्रतिष्ठा-प्रतीक बन पाई, न सही अर्थ में आत्म-भाषा या मन की भाषा।
अभी तक हिंदी की जो भी यात्रा है, वह औपचारिक अधिक और आत्मीय कम रही है। बावजूद इसके हिंदी के मरने का कोई डर नहीं पालना चाहिए, भले ही अंग्रेजी आपके बाथरूम, बेडरूम और किचन तक क्यों न फैल गई हो। अगर आॅक्सफर्ड कोश में प्रतिवर्ष हिंदी के सौ-पचास शब्द जुड़ सकते हैं तो हिंदी शब्दकोश में अंग्रेजी के या अन्य भाषाओं के शब्दों को समाहित कर उन्हें हिंदी के ही शब्द बनाया जा सकता है। उसे हम हिंग्लिश क्यों कहें, वह तो हमारी हिंदी ही हो गई।
दुनिया में भाषाएं तब मरती हैं, जब रेड इंडियंस, अफ्रीकी, नैटिव्ज आदि की भाषाओं की तरह हिंदी का भाषा समुदाय भी नष्ट कर दिया जाए, जिसकी आशंका इसलिए नहीं है कि अब किसी विदेशी सत्ता या उपनिवेश की संभावना भारत में नहीं है। बाजार आए, भूमंडल भारत में बिछ जाए, मगर खेत, खेती, खलिहान और देसी खान-पान जब तक जीवित हैं, भाषा भी जीवित रहेगी। हिंदी एक समग्र-संपूर्ण भाषा बने कुल सौ-सवा सौ वर्ष का ही तो इतिहास जी रही है।
अगर हम आत्महीनता से मुक्त होकर, स्कूल, कॉलेज के स्तर पर अंग्रेजी की तरह हिंदी को एक अनिवार्य विषय बना दें, यहां तक कि तकनीकी की शिक्षा में भी, तो पढ़ी-लिखी, अच्छी हिंदी की पीढ़ी खड़ी हो सकती है। अभी तो हालत यह है कि प्राथमिक शिक्षा का माध्यम भी बड़े पैमाने पर अंग्रेजी हो गई है। निजी स्कूलों का कारोबार देश के हर कोने में फैल गया है और इन अधिकतर स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। अगर शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाएं न हों तो वे ज्ञान-विज्ञान का माध्यम कैसे हो सकती हैं?
जिस प्रकार सही अंग्रेजी, शुद्ध अंग्रेजी बोलने को हमने प्रतिष्ठा से जोड़ रखा हैं वैसा भाव हिंदी के प्रति हर स्तर पर होना जरूरी है। हिंदी की पाचन-शक्ति बहुत अच्छी है, वह अन्य भाषाओं की तुलना में अधिक सहिष्णु, उदार और उन्मुक्त है। अगर हमारा पूरा अध्यापक, प्राध्यापक और छात्र समुदाय अपनी भाषा और खासकर हिंदी को जीवन की भाषा बना ले तो एक दिन वह जीविका की भी भाषा बनेगी और हिंदी उस दिन सच्चे अर्थ में आत्मभाषा भी होगी और राष्ट्रभाषा भी।
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Sunday, 27 May 2012
अभिनय से कमाएं नाम व दाम Abhinay se kamaye naam va dam by chiragan
अभिनय से कमाएं नाम व दाम Abhinay se kamaye naam va dam by chiragan |
स्कोप एक्टिंग कोर्स करने के बाद आप टीवी सीरियल्स के साथ-साथ फिल्मों में भी काम हासिल कर सकते हैं। आज के अभिनेताओं को पर्दे पर या रंगमंच पर देखकर अभिनय के आसान होने का भ्रम तो हो सकता है, लेकिन असलियत में यह एक कठिन चुनौती है। अंग्रेजी रंगमंच और सिनेमा के जाने-माने नाम पीटर ब्रूक का मानना है कि अभिनेता के सामने सबसे मुश्किल काम होता है, तटस्थ रहते हुए निष्ठावान होना। इंडियन एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स के डायरेक्टर प्रदीप खरब के मु ताबिक जो लोग अभिनय के रास्ते रंगमंच या सिनेमा का रुख करना चाहते हैं, उन्हें कुछ कसौटियों पर तो निश्चित रूप से खरा उतरना पड़ेगा। मेहनत, लगन, समर्पण जैसे तमाम पारंपरिक गुणों के साथ-साथ आज के अभिनेता को इस दौर को जीना पड़ता है। लिहाजा जन्मजात गुणों का गुलदस्ता होने के बावजूद ट्रेनिंग के बगीचे से गुजरना जरूरी है। इसके लिए देश के हर कोने में अभिनय, सिनेमा और रंगमंच से जुड़ी अन्य विधाओं की बारीकियां सिखाने के लिए संस्थान मौजूद हैं।
कोर्स एक्टिंग के लिए इन दिनों र्सटििफकेट, डिप्लोमा, डिग्री कोर्सेज चलाए जा रहे हैं। एफटीआईआई, पुणो में दो साल का पीजी डिप्लोमा इन एक्टिंग, एनएसडी में तीन साल का डिप्लोमा, सत्यजीत रे इंस्टीट्यूट ऑफ फिल्म एंड टेलीविजन में तीन साल का पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन सिनेमा जैसे कोर्स कराए जाते हैं। इसके अलावा जो प्राइवेट संस्थान हैं, जैसे एशियन फिल्म एकेडमी, आईएडीए, पद्मिनी कोल्हापुरी स्कूल ऑफ एक्टिंग वगैरह से कुछ महीने से लेकर साल-दो साल के कोर्स किए जा सकते हैं।
योग्यता एक्टिं ग के लिए यूं तो किसी शैक्षणिक योग्यता की जरूरत नहीं होती। एडमिशन का आधार स्क्रीन टेस्ट, एंट्रेंस एग्जाम या अंक कुछ भी हो सकता है। लेकिन देश के जो भी प्रमुख संस्थान हैं, उनमें ग्रेजुएट्स को ही दाखिला मिलता है। इस फील्ड में सबसे ज्यादा जरूरत है, लगन और रचनात्मकता की। आपमें किसी चीज को समझने की क्षमता कितनी औ र कैसी है, यह बहुत अहम है। धैर्य बनाए रखें। आप कामयाब एक्टर बन सकते हैं।
अवसर अभिनय के क्षेत्र में अवसरों की कमी नहीं है। रंगमंच है, टेलीविजन है, सिनेमा है, विज्ञापन फिल्में हैं। इन सभी में उन लोगों के लिए भरपूर जगह है जो अपनी प्रतिभा से अभिनय की नई पटकथा लिखने की क्षमता रखते हैं। दिल्ली, मुंबई, चेन्नै, कोलकाता या अन्य स्थानों पर वहां की भाषा के मुताबिक काम ही काम है।
आमदनी इस फील्ड में आमदनी की कोई सीमा नहीं है। अगर एक फिल्म, सीरियल या विज्ञापन फिल्म हिट हो गया तो आप रातों रात स्टार बन जाते हैं और आपकी वैल्यू अचानक बढ़ जाती है। वैसे इसमें सैलरी के बजाय कॉन्ट्रैक्ट पर काम मिलता है। हां, किसी प्रोडक्शन या नाटक कंपनी या फिर किसी ऐक्टिंग स्कूल में टीचर बन कर सैलरी से भी आमदनी हो सकती है।
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हमारी पर्सनालिटी खिल उठेगी Humari Personality khil Uthegi by Chiragan
Personality development by Chiragan |
Personality development by Chiragan |
बाद ही करें। जब तक काम को अपनी समझ में शामिल नहीं करेंगे, तब तक आपको काम में मन नहीं लगेगा।
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बाल मजदूरी देश और हम Bal Majdoori Desh aur Hum by chiragan
यह माना जाता है कि भारत में 14 साल के बच्चों की आबादी पूरी अमेरिकी
आबादी से भी ज़्यादा है. भारत में कुल श्रम शक्ति का लगभग 3.6 फीसदी हिस्सा
14 साल से कम उम्र के बच्चों का है. हमारे देश में हर दस बच्चों में से 9
काम करते हैं. ये बच्चे लगभग 85 फीसदी पारंपरिक कृषि गतिविधियों में
कार्यरत हैं, जबकि 9 फीसदी से कम उत्पादन, सेवा और मरम्मती कार्यों में लगे
हैं. स़िर्फ 0.8 फीसदी कारखानों में काम करते हैं.
आमतौर पर बाल मज़दूरी अविकसित देशों में व्याप्त विविध समस्याओं का नतीजा
है. भारत सरकार दूसरे राज्यों के सहयोग से बाल मज़दूरी ख़त्म करने की दिशा
में तेज़ी से प्रयासरत है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार ने
राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना (एनसीएलपी) जैसे महत्वपूर्ण क़दम उठाए हैं. आज
यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि इस परियोजना ने इस मामले में का़फी अहम कार्य
किए हैं. इस परियोजना के तहत हज़ारों बच्चों को सुरक्षित बचाया गया है. साथ
ही इस परियोजना के तहत चलाए जा रहे विशेष स्कूलों में उनका पुनर्वास भी
किया गया है. इन स्कूलों के पाठ्यक्रम भी विशिष्ट होते हैं, ताकि आगे चलकर
इन बच्चों को मुख्यधारा के विद्यालयों में प्रवेश लेने में किसी तरह की
परेशानी न हो. ये बच्चे इन विशेष विद्यालयों में न स़िर्फ बुनियादी शिक्षा
हासिल करते हैं, बल्कि उनकी रुचि के मुताबिक़ व्यवसायिक प्रशिक्षण भी दिया
जाता है. राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना के तहत इन बच्चों के लिए नियमित रूप
से खानपान और चिकित्सकीय सहायता की व्यवस्था है. साथ ही इन्हें एक सौ रुपये
मासिक वजी़फा दिया जाता है.
ग़ैर सरकारी संगठनों या स्थानीय निकायों द्वारा चलाए जा रहे ऐसे स्कूल इस परियोजना के अंतर्गत अपना काम भलीभांति कर रहे हैं. हज़ारों बच्चे मुख्य धारा में शामिल हो चुके हैं, लेकिन अभी भी कई बच्चे बाल मज़दूर की ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं. समाज की बेहतरी के लिए इस बीमारी को जड़ से उखाड़ना बहुत ज़रूरी है. एनसीएलपी जैसी परियोजनाओं के सामने कई तरह की समस्याएं हैं. यदि हम सभी इन समस्यायों का मूल समाधान चाहते हैं तो हमें इन पर गहनता से विचार करने की ज़रूरत है. इस संदर्भ में सबसे पहली ज़रूरत है 14 साल से कम उम्र के बाल मज़दूरों की पहचान करना. आख़िर वे कौन से मापदंड हैं, जिनसे हम 14 साल तक के बाल मज़दूरों की पहचान करते हैं और जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मान्य हों? क्या हमारा तात्पर्य यह होता है कि जब बच्चा 14 साल का हो जाए तो उसकी देखभाल की जिम्मेदारी राज्य की हो जाती है? हम जानते हैं कि ग़रीबी में अपना गुज़र-बसर कर रहे बच्चों कोपरवरिश की ज़रूरत है. कोई बच्चा जब 14 साल का हो जाता है और ऐसे में सरकार अपना सहयोग बंद कर दे तो मुमकिन है कि वह एक बार फिर बाल मज़दूरी के दलदल में फंस जाए. यदि सरकार ऐसा करती है तो यह समस्या बनी रह सकती है और बच्चे इस दलदल भरी ज़िंदगी से कभी बाहर ही नहीं निकल पाएंगे. कुछ लोगों का मानना है और उन्होंने यह प्रस्ताव भी रखा है कि बाल मज़दूरों की पहचान की न्यूनतम आयु बढ़ाकर 18 साल कर देनी चाहिए. साथ ही सभी सरकारी सहायताओं मसलन मासिक वजी़फा, चिकित्सा सुविधा और खानपान का सहयोग तब तक जारी रखना चाहिए, जब तक कि बच्चा 18 साल का न हो जाए.
मौजूदा नियमों के मुताबिक़, जब बच्चा मुख्य धारा के स्कूलों में दाख़िला ले लेता है तो ऐसा माना जाता है कि मासिक सहायता बंद कर देनी चाहिए. जबकि बच्चे या उसके माता-पिता नहीं चाहते हैं कि वित्तीय सहायता बंद हो. ऐसे में उनका अकादमिक प्रदर्शन नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है. यही वजह है कि हर कोई सोचता है कि जब बच्चा मुख्य धारा के स्कूल में प्रवेश कर जाए तो उसके बाद भी उसे सहायता मिलती रहनी चाहिए.
आख़िरकार अतिरिक्त पैसे के लिए ही तो माता-पिता अपने बच्चों से मज़दूरी करवाते हैं. इसीलिए किसी भी तरह आर्थिक सहायता जारी रहनी चाहिए. यह तब तक मिलनी चाहिए, जब तक कि वह बच्चा पूर्ण रूप से मुख्य धारा में शामिल होने के क़ाबिल न हो जाए. हालांकि पुनर्वास पैकेज की पूरी व्यवस्था की गई है, फिर भी बच्चे के माता-पिता सरकारी सुविधाओं के हक़दार नहीं माने गए हैं. ऐसे में हर किसी को यह लगता है कि इस संदर्भ में एक सामान्य नियम होना चाहिए, ताकि ऐसे लोगों के लिए एक विशेष वर्ग निर्धारित हो सके. जैसे एससी, एसटी, ओबीसी, सैनिकों की विधवाओं, पूर्व सैनिक और अपाहिज लोगों के लिए एक अलग वर्ग निर्धारित किया जा चुका है.
बाल श्रमिकों की पहचान के संबंध में एक दूसरी समस्या सामने आई है, वह है उम्र का निर्धारण. इस परियोजना ने चाहे जो कुछ भी किया है, लेकिन कम से कम यह बाल मज़दूरी के संदर्भ में पर्याप्त जागरूकता लाई है. अब यह हर कोई जानने लगा है कि 14 साल के बच्चे से काम कराना एक अपराध है. इसीलिए आज जब कोई बाल मज़दूरी की रोकथाम को लागू करना चाहता है तो एक बच्चा ख़ुद अपनी समस्याओं को हमें बताता है. उसके मुताबिक़, काम करने की न्यूनतम आयु 14 साल से कम नहीं होनी चाहिए. लेकिन इसकी जांच-पड़ताल का कोई उपाय नहीं है. ऐसे में हर कोई ऐसे बच्चों के पुनर्वास के लिए ख़ुद को असहाय महसूस करता है. ये बच्चे न तो स्कूल जाते हैं और न ही इनके जन्म का कोई प्रमाणिक रिकॉर्ड होता है. इसीलिए ये कहीं से भी अपने जन्म प्रमाणपत्र का इंतज़ाम कर लेते हैं और लोगों को उसे मानने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं होता. लोगों को यह भी लगता है कि माता-पिता द्वारा बच्चों को काम करने की छूट देने या उनके कारखानों में काम करने पर प्रतिबंध लगना चाहिए, क्योंकि माता-पिता द्वारा काम पर लगाए जाने वाले ऐसे बच्चों की तादाद भी का़फी अधिक है. इन बच्चों को छोटी उम्र में ही काम पर लगा दिया जाता है और ऐसे लोगों की वजह से ही इन बच्चों पर नकारात्मक असर पड़ता है.
एक बार फिर कहना होगा कि इन विशिष्ट स्कूलों में दिए जाने वाले व्यवसायिक प्रशिक्षणों में भी कुछ ख़ामियां हैं. हालांकि मौजूदा नियमों के मुताबिक़ व्यवसायिक प्रशिक्षण का प्रावधान तो है, लेकिन इसके लिए धन का अलग से आवंटन नहीं होता है, जिससे इस तरह के कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक चलाने में कई मुश्किलें आती हैं. बाल मज़दूरी ख़त्म करने और व्यवसायिक प्रशिक्षण का लक्ष्य हासिल करने के लिए सबसे पहले हमें उपर्युक्त पहलुओं को समझना बेहद ज़रूरी है. व्यवसायिक प्रशिक्षण के दौरान जिन उत्पादों का निर्माण होता है, उनका विपणन यदि ठीक ढंग से हो तो उसकी लागत पर आने वाले ख़र्च को हासिल किया जा सकता है. लेकिन यह सब परियोजना विशेष, उसके विस्तार और उत्पाद की गुणवत्ता पर निर्भर करता है. साथ ही यह परियोजना का कार्यान्वयन करने वाले व्यक्तिपर भी निर्भर करता है कि वह इन सबका प्रचार-प्रसार ठीक ढंग से कर पा रहा है या नहीं.
यह देखने में आया है कि बाल मज़दूरी रोकने संबंधी नियम बन चुके हैं, लेकिन अभी भी इसे ज़मीनी स्तर पर लागू नहीं किया गया है. बाल मज़दूरी को बढ़ावा देने वाले ख़ुद समाज के ग़रीब तबके से आते हैं, इसलिए ऐसे लोगों को हिरासत में लेने या दंडित करने के प्रति भी हमारी कोई रुचि नहीं दिखती. जहां लोग बाल मज़दूरी से परिचित होते हैं, वे इस अपराध से बच निकलने में सफल हो जाते हैं. अत: हमें यहां सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि बाल श्रम अधिनियम (निषेध एवं विनियमन) को सही मायनों में लागू किया जा रहा है या नहीं.
यह भी देखा जा रहा है कि जिन बाल मज़दूरों को मुक्त कराया जाता है, उनका पुनर्वास जल्द नहीं हो पाता, नतीजतन वे फिर इस दलदल में फंस जाते हैं. ऐसे में हमें इसके ख़िला़फ कड़े क़दम उठाने की आवश्यकता है. साथ ही 20 हजार रुपये की राशि एक बाल मज़दूर के पुनर्वास के लिए बेहद ही मामूली राशि है, जिसे बढ़ाए जाने की भी ज़रूरत है. ज़मीनी स्तर पर पुनर्वास को सही ढंग से लागू करने के लिए वित्तीय सहायता के साथ-साथ एक बेहतर पुनर्वास ख़ाका भी बनाया जाना चाहिए.
कई सरकारें बाल मज़दूरों की सही संख्या बताने से बचती हैं. ऐसे में वे जब विशेष स्कूल खोलने की स़िफारिश करती हैं तो उनकी संख्या कम होती है, ताकि उनके द्वारा चलाए जा रहे विकास कार्यों और कार्यकलापों की पोल न खुल जाए. यह एक बेहद महत्वपूर्ण पहलू है और आज ज़रूरत है कि इन सभी मसलों पर गहनता से विचार किया जाए. यदि सरकार सही तस्वीर छुपाने के लिए कम संख्या में ऐसे स्कूलों की स़िफारिश करती है तो यह नियमों को लागू करने एवं बाल श्रमिकों को समाज की मुख्य धारा में जोड़ने की दिशा में एक गंभीर समस्या और बाधा है. जब तक पर्याप्त संख्या में संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जाएंगे, ऐसी समस्याओं से निपटना मुश्किल ही होगा.
यहां बाल श्रम से निपटने की दिशा में न स़िर्फ नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है, बल्कि इसके लिए कार्यरत विभिन्न परियोजनाओं को वित्तीय सहायता आवंटित करने की भी ज़रूरत है. कुछ मामलों में बाल श्रमिकों की पहचान की ज़रूरत तो नहीं है, लेकिन इन परियोजनाओं में कुछ बुनियादी संशोधन की आवश्यकता ज़रूर है. इस देश से बाल मज़दूरी मिटाने के लिए अधिक समन्वित और सहयोगात्मक रवैया अपनाने की सख्त आवश्यकता है.
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Child bal majdoor aur hum by Chiragan |
ग़ैर सरकारी संगठनों या स्थानीय निकायों द्वारा चलाए जा रहे ऐसे स्कूल इस परियोजना के अंतर्गत अपना काम भलीभांति कर रहे हैं. हज़ारों बच्चे मुख्य धारा में शामिल हो चुके हैं, लेकिन अभी भी कई बच्चे बाल मज़दूर की ज़िंदगी जीने को मजबूर हैं. समाज की बेहतरी के लिए इस बीमारी को जड़ से उखाड़ना बहुत ज़रूरी है. एनसीएलपी जैसी परियोजनाओं के सामने कई तरह की समस्याएं हैं. यदि हम सभी इन समस्यायों का मूल समाधान चाहते हैं तो हमें इन पर गहनता से विचार करने की ज़रूरत है. इस संदर्भ में सबसे पहली ज़रूरत है 14 साल से कम उम्र के बाल मज़दूरों की पहचान करना. आख़िर वे कौन से मापदंड हैं, जिनसे हम 14 साल तक के बाल मज़दूरों की पहचान करते हैं और जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मान्य हों? क्या हमारा तात्पर्य यह होता है कि जब बच्चा 14 साल का हो जाए तो उसकी देखभाल की जिम्मेदारी राज्य की हो जाती है? हम जानते हैं कि ग़रीबी में अपना गुज़र-बसर कर रहे बच्चों कोपरवरिश की ज़रूरत है. कोई बच्चा जब 14 साल का हो जाता है और ऐसे में सरकार अपना सहयोग बंद कर दे तो मुमकिन है कि वह एक बार फिर बाल मज़दूरी के दलदल में फंस जाए. यदि सरकार ऐसा करती है तो यह समस्या बनी रह सकती है और बच्चे इस दलदल भरी ज़िंदगी से कभी बाहर ही नहीं निकल पाएंगे. कुछ लोगों का मानना है और उन्होंने यह प्रस्ताव भी रखा है कि बाल मज़दूरों की पहचान की न्यूनतम आयु बढ़ाकर 18 साल कर देनी चाहिए. साथ ही सभी सरकारी सहायताओं मसलन मासिक वजी़फा, चिकित्सा सुविधा और खानपान का सहयोग तब तक जारी रखना चाहिए, जब तक कि बच्चा 18 साल का न हो जाए.
मौजूदा नियमों के मुताबिक़, जब बच्चा मुख्य धारा के स्कूलों में दाख़िला ले लेता है तो ऐसा माना जाता है कि मासिक सहायता बंद कर देनी चाहिए. जबकि बच्चे या उसके माता-पिता नहीं चाहते हैं कि वित्तीय सहायता बंद हो. ऐसे में उनका अकादमिक प्रदर्शन नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है. यही वजह है कि हर कोई सोचता है कि जब बच्चा मुख्य धारा के स्कूल में प्रवेश कर जाए तो उसके बाद भी उसे सहायता मिलती रहनी चाहिए.
आख़िरकार अतिरिक्त पैसे के लिए ही तो माता-पिता अपने बच्चों से मज़दूरी करवाते हैं. इसीलिए किसी भी तरह आर्थिक सहायता जारी रहनी चाहिए. यह तब तक मिलनी चाहिए, जब तक कि वह बच्चा पूर्ण रूप से मुख्य धारा में शामिल होने के क़ाबिल न हो जाए. हालांकि पुनर्वास पैकेज की पूरी व्यवस्था की गई है, फिर भी बच्चे के माता-पिता सरकारी सुविधाओं के हक़दार नहीं माने गए हैं. ऐसे में हर किसी को यह लगता है कि इस संदर्भ में एक सामान्य नियम होना चाहिए, ताकि ऐसे लोगों के लिए एक विशेष वर्ग निर्धारित हो सके. जैसे एससी, एसटी, ओबीसी, सैनिकों की विधवाओं, पूर्व सैनिक और अपाहिज लोगों के लिए एक अलग वर्ग निर्धारित किया जा चुका है.
बाल श्रमिकों की पहचान के संबंध में एक दूसरी समस्या सामने आई है, वह है उम्र का निर्धारण. इस परियोजना ने चाहे जो कुछ भी किया है, लेकिन कम से कम यह बाल मज़दूरी के संदर्भ में पर्याप्त जागरूकता लाई है. अब यह हर कोई जानने लगा है कि 14 साल के बच्चे से काम कराना एक अपराध है. इसीलिए आज जब कोई बाल मज़दूरी की रोकथाम को लागू करना चाहता है तो एक बच्चा ख़ुद अपनी समस्याओं को हमें बताता है. उसके मुताबिक़, काम करने की न्यूनतम आयु 14 साल से कम नहीं होनी चाहिए. लेकिन इसकी जांच-पड़ताल का कोई उपाय नहीं है. ऐसे में हर कोई ऐसे बच्चों के पुनर्वास के लिए ख़ुद को असहाय महसूस करता है. ये बच्चे न तो स्कूल जाते हैं और न ही इनके जन्म का कोई प्रमाणिक रिकॉर्ड होता है. इसीलिए ये कहीं से भी अपने जन्म प्रमाणपत्र का इंतज़ाम कर लेते हैं और लोगों को उसे मानने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं होता. लोगों को यह भी लगता है कि माता-पिता द्वारा बच्चों को काम करने की छूट देने या उनके कारखानों में काम करने पर प्रतिबंध लगना चाहिए, क्योंकि माता-पिता द्वारा काम पर लगाए जाने वाले ऐसे बच्चों की तादाद भी का़फी अधिक है. इन बच्चों को छोटी उम्र में ही काम पर लगा दिया जाता है और ऐसे लोगों की वजह से ही इन बच्चों पर नकारात्मक असर पड़ता है.
एक बार फिर कहना होगा कि इन विशिष्ट स्कूलों में दिए जाने वाले व्यवसायिक प्रशिक्षणों में भी कुछ ख़ामियां हैं. हालांकि मौजूदा नियमों के मुताबिक़ व्यवसायिक प्रशिक्षण का प्रावधान तो है, लेकिन इसके लिए धन का अलग से आवंटन नहीं होता है, जिससे इस तरह के कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक चलाने में कई मुश्किलें आती हैं. बाल मज़दूरी ख़त्म करने और व्यवसायिक प्रशिक्षण का लक्ष्य हासिल करने के लिए सबसे पहले हमें उपर्युक्त पहलुओं को समझना बेहद ज़रूरी है. व्यवसायिक प्रशिक्षण के दौरान जिन उत्पादों का निर्माण होता है, उनका विपणन यदि ठीक ढंग से हो तो उसकी लागत पर आने वाले ख़र्च को हासिल किया जा सकता है. लेकिन यह सब परियोजना विशेष, उसके विस्तार और उत्पाद की गुणवत्ता पर निर्भर करता है. साथ ही यह परियोजना का कार्यान्वयन करने वाले व्यक्तिपर भी निर्भर करता है कि वह इन सबका प्रचार-प्रसार ठीक ढंग से कर पा रहा है या नहीं.
यह देखने में आया है कि बाल मज़दूरी रोकने संबंधी नियम बन चुके हैं, लेकिन अभी भी इसे ज़मीनी स्तर पर लागू नहीं किया गया है. बाल मज़दूरी को बढ़ावा देने वाले ख़ुद समाज के ग़रीब तबके से आते हैं, इसलिए ऐसे लोगों को हिरासत में लेने या दंडित करने के प्रति भी हमारी कोई रुचि नहीं दिखती. जहां लोग बाल मज़दूरी से परिचित होते हैं, वे इस अपराध से बच निकलने में सफल हो जाते हैं. अत: हमें यहां सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि बाल श्रम अधिनियम (निषेध एवं विनियमन) को सही मायनों में लागू किया जा रहा है या नहीं.
यह भी देखा जा रहा है कि जिन बाल मज़दूरों को मुक्त कराया जाता है, उनका पुनर्वास जल्द नहीं हो पाता, नतीजतन वे फिर इस दलदल में फंस जाते हैं. ऐसे में हमें इसके ख़िला़फ कड़े क़दम उठाने की आवश्यकता है. साथ ही 20 हजार रुपये की राशि एक बाल मज़दूर के पुनर्वास के लिए बेहद ही मामूली राशि है, जिसे बढ़ाए जाने की भी ज़रूरत है. ज़मीनी स्तर पर पुनर्वास को सही ढंग से लागू करने के लिए वित्तीय सहायता के साथ-साथ एक बेहतर पुनर्वास ख़ाका भी बनाया जाना चाहिए.
कई सरकारें बाल मज़दूरों की सही संख्या बताने से बचती हैं. ऐसे में वे जब विशेष स्कूल खोलने की स़िफारिश करती हैं तो उनकी संख्या कम होती है, ताकि उनके द्वारा चलाए जा रहे विकास कार्यों और कार्यकलापों की पोल न खुल जाए. यह एक बेहद महत्वपूर्ण पहलू है और आज ज़रूरत है कि इन सभी मसलों पर गहनता से विचार किया जाए. यदि सरकार सही तस्वीर छुपाने के लिए कम संख्या में ऐसे स्कूलों की स़िफारिश करती है तो यह नियमों को लागू करने एवं बाल श्रमिकों को समाज की मुख्य धारा में जोड़ने की दिशा में एक गंभीर समस्या और बाधा है. जब तक पर्याप्त संख्या में संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जाएंगे, ऐसी समस्याओं से निपटना मुश्किल ही होगा.
यहां बाल श्रम से निपटने की दिशा में न स़िर्फ नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है, बल्कि इसके लिए कार्यरत विभिन्न परियोजनाओं को वित्तीय सहायता आवंटित करने की भी ज़रूरत है. कुछ मामलों में बाल श्रमिकों की पहचान की ज़रूरत तो नहीं है, लेकिन इन परियोजनाओं में कुछ बुनियादी संशोधन की आवश्यकता ज़रूर है. इस देश से बाल मज़दूरी मिटाने के लिए अधिक समन्वित और सहयोगात्मक रवैया अपनाने की सख्त आवश्यकता है.
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परिपक्वता ही कामयाबी की रेशमी डोर Paripakvata hi lamyabui ki reshami dor hai. by chiragan
Friday, 18 May 2012
Stop..you.. Burn your life flower. No Smoking / Stop Smoking सिगरेट पीना आत्महत्या करना एक समान हैँ! by Chiragan
Stop..you.. Burn your life flower. No Smoking / Stop Smokingसिगरेट पीना आत्महत्या करना एक समान हैँ! |
Important Information for all according to Identity Card Returning. by chiragan
Important Information for all according to Identity Card Returning. |
Friday, 11 May 2012
Monday, 7 May 2012
पक्षाघात - लकवा - फालिस फेसियल परालिसिस A SHORT NOTE ON PARALISIS, LAKVA
PARALISIS, LAKVA PATIENT BY CHIRAGAN |
लकवा
रोग में रोगी के शरीर की तंतुए शिथिल पड जाती हैं या कहा जाये तो शरीर की
संचालन गति समाप्त हो जाती है इसी को लकवा रोग कहते हैं।
कारण-
लकवा रोग मस्तिष्क में खून का पूर्ण संचरण न होने तथा शरीर की रीढ़ की
हड्डी में किसी प्रकार का रोग हो जाने के कारण हो जाता है।
जब मस्तिष्क में रक्तस्राव (खून का बहना) रुक जाता है तो लकवा हो जाता है। इसके अलावा जो लोग पेट में गैस उत्पन्न करने वाले पदार्थ खाते हैं, अधिक मैथुन क्रिया करते हैं, उल्टी-दस्त, मानसिक कमजोरी होने पर और शरीर के नाजुक हिस्से पर चोट लगने, रक्तचाप बढ़ने (हाई ब्लडप्रेशर) और वायु का प्रकोप आदि को लकवे के मुख्य कारण माने जाते हैं।
रोग का शरीर पर प्रभाव तथा लक्षण-
PARALISIS, LAKVA PATIENT BY CHIRAGAN |
लकवे (पक्षाघात) के निम्नलिखित प्रकार (भेद) होते है-
पूर्णलकवा-
पूर्णलकवा रोग से मनुष्य के शरीर के आधा भाग (शरीर का दायां भाग हो या
बायां भाग) प्रभावित होता है और इससे शरीर का आधा भाग मस्तिष्क के नियंत्रण
में नहीं रहता है।
एकांग लकवा-
इस प्रकार के लकवे में रोगी के शरीर का एक हाथ तथा एक पैर प्रभावित हो जाता है।
अर्द्धांग लकवा-
इस प्रकार के लकवे से शरीर का आधा भाग (शरीर का दायां या बायां भाग)
प्रभावित होता है और इससे सम्बन्धित अंगों निश्चेतनावस्था (शरीर का आधा भाग
कंपकंपाना) (शरीर का आधा भाग सुन पड़ जाना) में लकवा हो जाता है।
निम्नांग लकवा-
इस प्रकार के लकवे में शरीर मे नाभि से नीचे का सम्पूर्ण भाग अर्थात जांघ तथा पैर का भाग सुन्न हो जाता है।
स्वरयन्त्र का लकवा-
इस प्रकार के लकवे रोग में रोगी का बोलना आंशिक रूप से बंद हो जाता है ऐसा
इसलिए होता है क्योंकि इस रोग में रोगी के मुंह वाला भाग सुन्न पड़ जाता है
जिसके कारण रोगी के बोलने की क्रिया नहीं चल पाती है अर्थात वह बोलने में
असमर्थ हो जाता है।
आवाज का लकवा-
इस प्रकार के लकवे के कारण मनुष्य को बोलने में अत्याधिक कष्ट होता है ऐसा
इसलिए होता है क्योंकि इस प्रकार के लकवे से मनुष्य की जीभ में ऐंठन तथा
जकड़न सी हो जाती है।
मुंह का लकवा-
इस प्रकार के लकवे से मनुष्य का मुंह तथा चेहरा टेढ़ा-मेढ़ा हो जाता है तथा
आंख खुली रहती है और मुंह तथा आंखों से पानी आता रहता है।
उपचार-
एक्युप्रेशर चिकित्सा द्वारा इन सभी प्रकार के लकवे का इलाज हो सकता है।
चिकित्सा करने के लिए नीचे दिए गये चित्र के अनुसार दिए गए प्रतिबिम्ब
केन्द्रों पर आवश्यक दबाव देकर लकवे का इलाज कर सकते हैं।
लक्षण :
PARALISIS, LAKVA PATIENT BY CHIRAGAN |
भोजन और परहेज :
- भोजन के रूप में गेहूं तथा बाजरे के आटे से बनी रोटी खानी चाहिए।
- परवल, करेला, बैंगन, घिया, तोरई और सहजन की फली इत्यादि को सब्जी के रूप में खाना चाहिए।
- दूध, पपीता, फालसा, अंजीर और अंगूर आदि फलों का रोजाना खाने के रूप में प्रयोग करना चाहिए।
- दही, चावल, बर्फ की चीजें, तली हुई चीजें, बेसन तथा पेट में गैस पैदा करने वाले पदार्थों को नहीं खाना चाहिए।
कैंसर A SHORT NOTE ON CANCER
CANCER VIRUS BY CHIRAGAN |
कैंसर रोग दो प्रकार का होता है- उपत्वक कैंसर और संयोजक तंतुओं का कैंसर।
उपत्वक कैंसर :-
उपत्वक कैंसर होंठों, स्तनों और श्लैष्मिक और स्नैहिक झिल्ली के ऊपरी परत पर होने वाला कैंसर रोग है।
संयोजक तंतुओं का कैंसर अर्थात मांसार्बुद :-
यह कैंसर जल जाने या हडडी टुटने के कारण चोट लगने से कर्कटिका होने पर होता है।
कैंसर रोग का कारण :-
मानसिक परेशानी अधिक होना, अधिक चिन्ता करना, तम्बाकू पीने के लिए मिट्टी
का चिलम का प्रयोग करना, अगले दान्तों से जीभ बार-बार कटने के कारण जख्म
पैदा होना, बराबर एक्स-रे करवाना, मिट्टी का तेल बराबर शरीर पर प्रयोग करना
आदि के कारणों से कैंसर रोग होता है। स्त्रियों के स्तन अधिक दिनों तक
कठोर होने, मासिकधर्म के बन्द होने के समय या एकाएक किसी भी आंतरिक अंग से
खून का स्राव होने पर उन सभी अंगों में कैंसर रोग हो सकता है।
आमाशय में अधिक दिनों तक जख्म बने रहने पर, आहार नली में या बड़ी आंत में रोग पैदा करने वाले जीवाणु पैदा होने, गहरी चोट लगने के कारण एवं शरीर की अन्य खराबी के कारण भी कैंसर रोग हो सकता है। सिर का पुराना दर्द, स्नायुशूल, त्वचा का रोग एवं वात रोग अधिक दिनों तक बने रहने के कारण तथा खून में खराबी उत्पन्न होने से कैंसर रोग होता है। कभी-कभी यह रोग वंशानुगत भी होता रहता है। अर्बुद जल्दी ठीक न होने पर उसे ठीक करने के लिए उसे ऑपरेशन किया जाता है लेकिन कभी-कभी अर्बुद निकल जाने के बाद भी उसका कुछ अंश रह जाने पर यह अन्य दूसरे अंगों पर दुबारा हमला कर देता है जिससे कैंसर फिर से होने की संभावना बढ़ जाती है।
अगर अर्बुद (कैंसर) रोग हो तो उसे ठीक करने के लिए होम्योपैथिक औषधि का
प्रयोग करना उचित होता है। यदि औषधि से लाभ न हो तो एक्स-रे या रेडियम की
किरण का प्रयोग करना या ऑपरेशन के द्वारा अर्बुद को निकलवा लेना चाहिए।
कैंसर रोग में विभिन्न औषधियों के द्वारा उपचार :-
हाईड्रैस्टिस :-
कैंसर
रोग के शुरुआती अवस्था में जब कैंसर का घाव न बना हो और किसी अंग में दर्द
हो तो हाइड्रैस्टिस औषधि की 30 शक्ति का प्रयोग करना चाहिए। इसके सेवन से
रोग के लक्षण समाप्त होकर रोग ठीक हो जाता है। इस तरह के कैंसर रोग के
शुरुआती लक्षण उन व्यक्तियों में दिखाई देता है जिसमें कमजोरी होती है,
शरीर पीला हो जाता है, खून की कमी हो जाती है, शरीर इतना पतला हो जाता है
कि हडिडयां दिखाई देने लगती हैं, रोगी के चेहरे की चमक समाप्त हो जाती है,
रोगी उदास व उत्साहीन रहता है, भूख नहीं लगती है, कब्ज रहती है। इस तरह के
शारीरिक लक्षण वाले व्यक्ति में अधिकतर कैंसर रोग उत्पन्न होते हैं।
हाईड्रैस्टिस औषधि की निम्न शक्ति का प्रयोग 8-8 घंटे पर तब तक रोगी को
कराते रहें जब तक रोग के लक्षण समाप्त न हो जाएं।
रेडियम ब्रोम :-
कैंसर रोग में रेडियम ब्रोम औषधि की 30 से 200 शक्ति के बीच की कोई भी शक्ति का प्रयोग सप्ताह में एक बार करने से लाभ मिलता है।
फाइटोलैक्का :-
यह
औषधि शरीर की ग्रंथियों पर विशेष प्रभाव डालती है। गांठे सूज जाती है,
उनमें जलन होती है, रोगी में ग्रंथि शोथ के साथ मोटापा आ जाता है, रोगी के
शरीर में खून का संचार शिथिल हो जाता है एवं अधिक आलस्य आने लगता है। इस
तरह के लक्षणों वाले रोगियों में कैंसर रोग होता है। इस तरह के लक्षणों से
साथ उत्पन्न कैंसर रोग के लक्षणों में फाइटोलैक्का औषधि की 3 शक्ति का
प्रयोग करना चाहिए।
आर्स आयोडाइड :-
CANCER VIRUS BY CHIRAGAN |
सेलिनियम या हाइड्रैस्टिनम :-
कैंसर
रोग में सेलिनियम औषधि की 30 से 200 शक्ति और हाइड्रैस्टिनम औषधि की 3x
मात्रा से 30 शक्ति का प्रयोग सप्ताह में एक बार करने से आराम मिलता है।
लेपिस ऐल्बम :-
यदि
कैंसर रोग से पीड़ित रोगी को अधिक जलन महसूस होती हो और रोगग्रस्त भाग से
अधिक स्राव होता हो तो लेपिस ऐल्बम औषधि की 2x मात्रा का प्रयोग करना अधिक
लाभकारी होता है। यह औषधि गर्भाशय के कैंसर में अधिक लाभकारी मानी गई है।
एक्स-रे :-
अधिक
कष्टकारी कैंसर रोग होने पर एक्स-रे औषधि की 30 से 200 शक्ति के बीच की
कोई भी शक्ति का प्रयोग किया जा सकता है। इस औषधि का सेवन सप्ताह में एक
बार करना चाहिए।
कार्सिनोसीन :-
यदि
किसी रोगी में कैंसर होने की संभावना दिखाई दें या परिवार में किसी को
कैंसर रोग हो गया हो तो उसे कार्सिनोसीन औषधि की 200 शक्ति का सेवन सप्ताह
में एक बार करना चाहिए। इससे कैंसर रोग होने का डर समाप्त हो जाता है।
कोनायम :-
कैंसर रोग को ठीक करने के लिए कोनायम औषधि की 6 या 30 शक्ति का प्रयोग किया जाता है। इस औषधि से कैटेरेक्ट भी दूर होता है।
किसी भी अंग में होने वाले कैंसर रोग को दूर करने के लिए इस औषधियों का प्रयोग करना बेहद लाभकारी होता है।
सेलिनियम या हाइड्रैस्टिनम :-
कैंसर
रोग में सेलिनियम औषधि की 30 से 200 शक्ति और हाइड्रैस्टिनम औषधि की 3x
मात्रा से 30 शक्ति का प्रयोग सप्ताह में एक बार करने से आराम मिलता है।
ऑरम-मेट :-
यदि कैंसर वाले स्थान से स्राव होता हो तो ऑरम-मेट औषधि की 3x मात्रा विचूर्ण या शक्ति का उपयोग करना लाभकारी होता है।
कार्सिनोसिन :-
कार्सिनोसिन
औषधि की 30 से 200 शक्ति की बीच की शक्ति का प्रयोग कैंसर रोग में किया जा
सकता है। इस औषधि का सेवन सप्ताह में एक बार करना चाहिए।
विभिन्न अंगों का कैंसर रोग में औषधियों का प्रयोग :-
जीभ का कैंसर :-
- जीभ के कैंसर को ठीक करने के लिए थूजा औषधि की 3x मात्रा का सेवन 6-6 घंटे के अंतर पर करना चाहिए और थूजा औषधि के मूलार्क को सुबह-शाम रूई के फाये से रोगग्रस्त स्थान पर लगाना चाहिए।
- कैंसर रोग में दो महीने तक में कई सुधार होते हुए न दिखाई दे तो कैलि-साईनेट औषधि की 3x मात्रा का सुबह-शाम सेवन करें। इस औषधि की जीभ पर विशेष क्रिया होती है। अगर जीभ पर घाव हो गया हो, जीभ के किनारी कड़ी पड़ गई हो, मुंह से आवाज न निकलती हो, बोल नहीं पा रहा हो लेकिन रोगी में सोचने व समझने की शक्ति ठीक हो तो ऐसी अवस्था में कैलि साइनेट औषधि की 6 या 200 शक्ति का सेवन रोगी को कराना लाभकारी होता है।
- जीभ के कैंसर रोग में उपचार करने के लिए फेरम-पिक औषधि की 3x मात्रा तथा हाइड्रैस्टिस औषधि के मदरटिंचर का प्रयोग किया जाता है।
होंठों का कैंसर :-
होंठों के कैंसर रोग में विभिन्न औषधियों का प्रयोग किया जाता है जो इस प्रकार है -
- लाइकोपोडियम की 6 शक्ति का प्रयोग हर 8-8 घंटे के अंतर पर करने से कैंसर रोग में लाभ मिलता है।
- सीपिया औषधि की 3 शक्ति का प्रयोग हर 6-6 घंटे के अंतर पर 0.12 ग्राम की मात्रा में लेने से कैंसर में लाभ मिलता है।
- केनेविन सैटाइवा औषधि के मूलार्क की 2 बूंद की मात्रा में 15 दिन में एक बार लेने से भी होंठ के कैंसर में लाभ मिलता है।
- होंठ या त्वचा के कैंसर रोग में आर्स आयोडाइड औषधि की 3x मात्रा का सेवन 0.12 ग्राम की मात्रा में दिन में 3 बार लेने से लाभ मिलता है।
- होंठ या त्वचा के कैंसर होने पर अन्य औषधि के सेवन के साथ आर्सेनिक औषधि की 3x मात्रा का लोशन बनाकर सुबह-शाम रोगग्रस्त स्थान पर लगाने से और बीच-बीच में कार्सिनोसीनम औषधि की 200 शक्ति या एपिथीलियोमीनम औषधि की 200 शक्ति का सेवन 15 दिन में एक बार करने से लाभ मिलता है। इसके प्रयोग से होंठ व त्वचा के कैंसर दोनों में ही लाभ मिलता है।
छाती का कैंसर :-
- अगर छाती पर कोई गांठ पड़ जाए तथा दर्द हो और यह निश्चित न हो कि यह कैंसर है या नहीं तो ब्रायोनिया औषधि की 1 शक्ति का प्रयोग 8-8 घंटे के अंतर पर करने से लाभ मिलता है।
- यदि इस कैंसर में दर्द न हो तो कैलकेरिया आयोडाइड औषधि की 3x मात्रा की 4-4 बूंदें हर 7 घंटे के अंतर पर करने से लाभ मिलता है। अगर रोगी कमजोर होता जाए और गांठ भी बढ़ती जाए तो आर्स आयोडाइड औषधि की 3x मात्रा का प्रयोग 0.12 ग्राम की मात्रा में दिन में 3 बार लेना चाहिए।
- यदि परिवार में किसी को कैंसर रोग हुआ हो तो उस कैंसर का असर परिवार के अन्य सदस्यों पर न पड़े इसके लिए कार्सिनोसीनम औषधि की 200 शक्ति 15 दिन में एक बार सेवन करना चाहिए और यदि कैंसर रोग हो तो ऊपर बताए गए औषधि का प्रयोग करें।
- यदि छाती का कैंसर रोग होने का कारण पता चल जाए तो स्किरहीनम औषधि की 200 शक्ति या कार्सिनोसीनियम औषधि की 200 शक्ति का प्रयोग सप्ताह में एक बार या 15 दिनों में करने से लाभ मिलता है।
जरायु का कैंसर :-
- कैंसर जरायु में हो गया हो और छाती के कैंसर की तरह ही लक्षण दिखाई दे तो एपिहिस्टीरीनम औषधि की 200 शक्ति सप्ताह में 2 बार करना चाहिए। इसके साथ रूटा औषधि के मूलार्क की 2 बूंद की मात्रा में चीनी मिले दूध में मिलाकर 15 दिन में एक बार लेना चाहिए।
- जरायु के कैंसर रोग में हाईड्रैस्टिस औषधि को ग्लिसरीन के साथ बराबर मात्रा में मिलाकर जरायु को धोना चाहिए।
- जरायु के कैंसर रोग में हाईड्रैस्टिस की ऑयन्टमेंट का भी प्रयोग करने से लाभ होता है।
- यदि गर्भाशय से खून का स्राव अधिक हो तो हाईड्रैस्टिम के स्थान पर हैमामेलिस औषधि का प्रयोग लोशन की तरह किया जा सकता है।
- जरायु ग्रीव के कैंसर रोग में आर्स आयोड औषधि की 3x मात्रा या पल्स औषधि की 3x मात्रा का प्रयोग किया जाता है।
हडिडयों का कैंसर :-
हडिडयों का कैंसर रोग होने पर इन औषधियों का प्रयोग किया जाता है-
- हडिडयों का कैंसर रोग होने पर फॉस्फोरस औषधि की 30 शक्ति का प्रयोग 6-6 घंटे के अंतर पर प्रयोग में लिया जा सकता है।
- सिमफाइटम औषधि की 30 शक्ति का प्रयोग हर 4 घंटे के अंतर पर प्रयोग करने हडिडयों का कैंसर रोग में लाभ मिलता है।
- ऑराम आयोडाइड औषधि की 3x मात्रा को हर 6-6 घंटे पर रोगी को देने से हडिडयों का कैंसर रोग ठीक होता है।
- हड्डी के कैंसर रोग में सिमफाइटम औषधि के मूलार्क टूटी हुई हड्डी के ऊपर लिंट में भिगोंकर लगाना से और औषधियों का सेवन करने से अधिक लाभ मिलता है।
- हडिडयों के कैंसर में यदि अधिक दर्द हो तो एकोन-रेडिक्स औषधि के मूलार्क थोड़ी-थोड़ी देर पर (फी) आधे बूंद की मात्रा में तब तक सेवन कराना चाहिए जब तक नींद न आ जाए। कैंसर (कर्कट) में अधिक कष्ट व दर्द हो तो इस औषधि का प्रयोग किया जा सकता है।
पेट का कैंसर :-
- पेट के कैंसर रोग में औरनिथोगैलम औषधि का प्रयोग किया जाता है। इस औषधि के मूलार्क की 1 बूंद की मात्रा पानी में डालकर रोगी को पिलाना चाहिए। इसके प्रयोग से रोगी को काली उल्टी होती है और आराम महसूस होता है। अगर औषधि की पहली मात्रा लेने से कोई प्रतिक्रिया न हो तो 48 घंटे बाद दूसरी मात्रा लें।
- पेट के कैंसर में अगर पेट में जलन, बेचैनी हो, रोगी को थोड़ा पानी पीने का मन करता हो एवं गर्म सेंक से आराम मिलता हो तो इस तरह के लक्षण दिखाई देने पर आर्सेनिक औषधि का सेवन करना चाहिए।
- पेट के कैंसर होने पर ऐसे लक्षणों में चेलिडोनियम औषधि की 1m मात्रा या C.M मात्रा लेने से भी लाभ मिलता है। फास्फोरस से भी पेट के कैंसर रोग में लाभ मिलता है।
गलकोष और गले का कैंसर :-
गलकोष और गले की नली का कैंसर होने पर फेरफ पिकरिक औषधि की 3x मात्रा या थूजा औषधि की 1x मात्रा का प्रयोग किया जाता है।
बड़ी आंत का कैंसर :-
बड़ी आंत की निचले भाग में कैंसर होने पर हाइड्रैस्टिस औषधि की 1x या सैलबिया औषधि के मदरटिंचर का प्रयोग किया जाता है।
स्थूलान्त्र
(कोलोन) का कैंसर रोग होने पर हाइड्रैस्टिस औषधि की 6x, क्रोकस औषधि के
मदरटिंचर का उपयोग किया जाता है और नासूर के लिए सिलिका औषधि की 6 शक्ति का
प्रयोग किया जाता है।
दाहिने स्तन का कैंसर :-
दाहिने स्तन का कैंसर होने पर आर्स आयोड औषधि की 3x मात्रा और हाइड्रैस्टिस औषधि की 6x मात्रा का प्रयोग किया जाता है।
अन्य अंगों का कैंसर रोग :-
- जिगर में कैंसर होने के साथ पेट रोगग्रस्त होने पर आर्स आयोड औषधि की 3x मात्रा और हाइड्रैस्टिस औषधि के मदरटिंचर का प्रयोग किया जाता है।
- उरू के हड्डी में कैंसर होने पर साइलिसिया औषधि की 200 शक्ति का प्रयोग किया जाता है।
- बाएं उरू की हड्डी में कैंसर होने पर सिलिका की 6 शक्ति का उपयोग करना हितकारी होता है।
- नाक के कैंसर होने पर नेट्रम-म्यूर औषधि की 200 शक्ति का प्रयोग किया जाता है।
- बगल की बढ़ हुई ग्रंथि में कैंसर रोग होने पर बार-बार नश्तर लगवाने के बाद भी यदि रोग ठीक न हो तो साइलिशिया औषधि की 200 शक्ति का उपयोग करने से रोग में पूर्ण लाभ मिलता है।
- निम्न क्रम के कैंसर रोग विशेषकर जलन पैदा करने वाले कैंसर रोग को ठीक करने के लिए आर्सेनिक औषधि का प्रयोग करना उचित होता है और हाइड्रैस्टिस औषधि के मदरटिंचर या 3x मात्रा को रोगग्रस्त भाग पर लगाना उचित होता है।
- गर्भाशय या गांठ में कैंसर होने पर कार्बो-ऐनि औषधि की 1x मात्रा का विचूर्ण प्रयोग करने से लाभ होता है।
कैंसर होने पर अन्य औषधियों का प्रयोग :-
- कैंसर रोग में ऊपर बताए गए औषधियों से उपचार करते समय बीच-बीच में अन्य औषधियों का प्रयोग करने से लाभ मिलता है ये इस प्रकार हैं :- काण्डियुरेंगों- 1x, आयोड- 6x, कैलि ब्रोम- 30, एसिड कार्ब, रूटा के मदरटिंचर, फाइटो- 2x, सिकेलि- 30, क्रियोजोट- 30, सैंगुनेरिया- 1x, आरम आयोड- 3x, कैल्के आयोड- 3x, हाइड्रोकोटाइल ऐसेट- 3x, सल्फर- 30, सिम्फाइटम के मदरटिंचर या युफोर्बियम- 6 आदि।
- कैलि-सायानेटस- 3 शक्ति का प्रयोग जीभ के कैंसर होने पर किया जाता है। हेक्लालावा, हेलोनियस, प्लैटिना सिफिलिनम आदि।
- कोनायम औषधि की 6 से 30 शक्ति का प्रयोग चोट आदि लगने से होने वाले कैंसर रोग में किया जाता है।
- एकिनेशिया औषधि के मदरटिंचर (4 से 10 बूंद की मात्रा में) या लैकेसिस औषधि की 6 शक्ति का प्रयोग गहरा लाल या नीला या खाकी रंग का कैंसर रोग होने पर किया जाता है।
- आर्स आयोड औषधि की 3x शक्ति का प्रयोग कभी भी पानी के साथ सेवन नहीं करना चाहिए।
- गेलियम ऐपाराइना औषधि के मदरटिंचर का प्रयोग दूध के साथ 30 से 60 बूंद रूटा औषधि को मिलाकर दिन में 3 बार लिया जाता है।
- कैंसर रोग में स्क्रोफुलिया के मदरटिंचर और आर्निथोगेलम औषधि के मदरटिंचर का प्रयोग करना लाभदायक होता है।
भोजन और परहेज :-
- कैंसर रोग में यदि रोगी के शरीर से अधिक बदबू आती हो तो कार्बोलिक एसिड की पाउडर या आयोडोफार्म की पाउडर या कोयले की पुल्टीय का प्रयोग करना चाहिए। स्तन में कैंसर होने पर हाथ को अधिक हिलना-डुलना नहीं चाहिए और रोगी को बदहजमी से बचना चाहिए।
- दूध, नमक, शराब, मांस, मछली, मिर्ची, चाय, कॉफी, सेम, मसूर की दाल, अण्डा या उड़द की दाल आदि का सेवन नहीं करना चाहिए।
- रोगी के लिए मांस के बदले पनीर का सेवन करना लाभकारी होता है। रोगी को ताजे फल का सेवन करना चाहिए। खुली हवा में घुमना चाहिए। खाना खाने के बाद या पहले हल्का आराम करना चाहिए।
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