सरकारें नागरिकों के हक में नियम-कायदे तो बना देती हैं, लेकिन उनका
उचित प्रचार-प्रसार नहीं होने और जागरूकता के अभाव में जरूरतमंद लोग उन
सुविधाओं का लाभ नहीं उठा पाते।
इसी के मद्देनजर दिल्ली उच्च न्यायालय ने सरकार और पुलिस को एक सप्ताह के भीतर उस अदालती आदेश को बड़े पैमाने पर प्रचारित करने का आदेश दिया है, जिसमें कहा गया था कि कोई भी अस्पताल, चाहे वह सरकारी हो या निजी, आपराधिक वारदात या किसी दुर्घटना के शिकार व्यक्ति और बलात्कार-पीड़ित को तुरंत इलाज देने से इनकार नहीं कर सकता। गौरतलब है कि लगभग एक महीने पहले अपने आदेश में ऐसे मामलों में फौरन प्राथमिक उपचार मुहैया कराने के अलावा अदालत ने दिल्ली पुलिस से यह भी सुनिश्चित करने को कहा था कि पीड़ित को घटनास्थल के सबसे करीबी अस्पताल में पहुंचाया जाए, न कि क्षेत्र के बंटवारे या किसी दूसरी वजह को आधार बना कर दूर स्थित सरकारी अस्पतालों में ले जाया जाए। ढाई महीने पहले दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार कांड के बाद वहां पहुंची पुलिस काफी देर तक इस बेमानी सवाल में उलझी रही कि घटनास्थल किस हलके में आता है और बलात्कार की शिकार युवती और उसके मित्र को इलाज के लिए कहां ले जाया जाए। इसके बाद उन्हें कई किलोमीटर दूर सफदरजंग अस्पताल ले जाया गया। जबकि वक्त का तकाजा यह था कि उन्हें सबसे नजदीकी अस्पताल में ले जाया जाता। अगर ऐसा किया गया होता तो पीड़ित युवती संभवत: आज जिंदा होती। अक्सर ऐसे मामले सामने आते हैं जिनमें हादसे या किसी आपराधिक घटना का शिकार हुए व्यक्ति को तत्काल चिकित्सा की जरूरत होती है। लेकिन हकीकत यह है
कि फौरन इलाज न मिल पाने या अस्पतालों में डॉक्टरों के कानूनी मामला बता कर उपचार करने से मना कर देने के चलते बहुत सारे वैसे लोगों की जान चली जाती है, जिन्हें बचाया जा सकता है।
सही है कि आपराधिक वारदातों या दुर्घटनाओं के मामले में कानूनी प्रक्रिया का पालन भविष्य में अदालती सुनवाई का आधार बनता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कानूनी बाध्यता के बहाने किसी पीड़ित का प्राथमिक उपचार करने या उसे भर्ती करने से मना कर दिया जाए। कानूनी औपचारिकताएं पीड़ित के सामान्य स्थिति में आने के बाद भी पूरी की जा सकती हैं। कई बार सरकारी नियम-कायदों या अदालतों के आदेशों की जानकारी न होने के चलते लोग अस्पतालों या डॉक्टरों के कानूनी पेचीदगियों का हवाला देकर मना करने पर आपत्ति नहीं जता पाते। जबकि कानूनी प्रक्रियाओं के पालन के पहले तत्काल इलाज की सुविधा पाना उनका हक है, अस्पताल चाहे सरकारी हो या निजी। नागरिकों के हक में बने नियम-कायदों का प्रचार-प्रसार जागरूकता फैलाने का एक महत्त्वपूर्ण जरिया है। आखिर लोक कल्याण से संबंधित योजनाओं के प्रचार-प्रसार के चलते ही ज्यादातर लोग उनके बारे में जान पाते हैं और उनका लाभ उठा पाते हैं। ऐसी अनेक घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिनमें हादसे के शिकार किसी व्यक्ति को कहीं बिस्तर या तकनीकी सुविधाओं का अभाव बता कर तो कहीं कानूनी कागजात पूरे नहीं होने की दलील देकर भर्ती नहीं किया गया और घंटों तकलीफ झेलने के बाद आखिरकार उसकी मौत हो गई। ऐसे मामलों में कभी जवाबदेही तय नहीं हो पाती। उम्मीद की जानी चाहिए कि दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्देश के फलस्वरूप अस्पतालों को और अधिक जिम्मेदार और संवेदनशील बनाया जा सकेगा।
Pinki Devi
अंश जनसत्ता से साभार
इसी के मद्देनजर दिल्ली उच्च न्यायालय ने सरकार और पुलिस को एक सप्ताह के भीतर उस अदालती आदेश को बड़े पैमाने पर प्रचारित करने का आदेश दिया है, जिसमें कहा गया था कि कोई भी अस्पताल, चाहे वह सरकारी हो या निजी, आपराधिक वारदात या किसी दुर्घटना के शिकार व्यक्ति और बलात्कार-पीड़ित को तुरंत इलाज देने से इनकार नहीं कर सकता। गौरतलब है कि लगभग एक महीने पहले अपने आदेश में ऐसे मामलों में फौरन प्राथमिक उपचार मुहैया कराने के अलावा अदालत ने दिल्ली पुलिस से यह भी सुनिश्चित करने को कहा था कि पीड़ित को घटनास्थल के सबसे करीबी अस्पताल में पहुंचाया जाए, न कि क्षेत्र के बंटवारे या किसी दूसरी वजह को आधार बना कर दूर स्थित सरकारी अस्पतालों में ले जाया जाए। ढाई महीने पहले दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार कांड के बाद वहां पहुंची पुलिस काफी देर तक इस बेमानी सवाल में उलझी रही कि घटनास्थल किस हलके में आता है और बलात्कार की शिकार युवती और उसके मित्र को इलाज के लिए कहां ले जाया जाए। इसके बाद उन्हें कई किलोमीटर दूर सफदरजंग अस्पताल ले जाया गया। जबकि वक्त का तकाजा यह था कि उन्हें सबसे नजदीकी अस्पताल में ले जाया जाता। अगर ऐसा किया गया होता तो पीड़ित युवती संभवत: आज जिंदा होती। अक्सर ऐसे मामले सामने आते हैं जिनमें हादसे या किसी आपराधिक घटना का शिकार हुए व्यक्ति को तत्काल चिकित्सा की जरूरत होती है। लेकिन हकीकत यह है
कि फौरन इलाज न मिल पाने या अस्पतालों में डॉक्टरों के कानूनी मामला बता कर उपचार करने से मना कर देने के चलते बहुत सारे वैसे लोगों की जान चली जाती है, जिन्हें बचाया जा सकता है।
सही है कि आपराधिक वारदातों या दुर्घटनाओं के मामले में कानूनी प्रक्रिया का पालन भविष्य में अदालती सुनवाई का आधार बनता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कानूनी बाध्यता के बहाने किसी पीड़ित का प्राथमिक उपचार करने या उसे भर्ती करने से मना कर दिया जाए। कानूनी औपचारिकताएं पीड़ित के सामान्य स्थिति में आने के बाद भी पूरी की जा सकती हैं। कई बार सरकारी नियम-कायदों या अदालतों के आदेशों की जानकारी न होने के चलते लोग अस्पतालों या डॉक्टरों के कानूनी पेचीदगियों का हवाला देकर मना करने पर आपत्ति नहीं जता पाते। जबकि कानूनी प्रक्रियाओं के पालन के पहले तत्काल इलाज की सुविधा पाना उनका हक है, अस्पताल चाहे सरकारी हो या निजी। नागरिकों के हक में बने नियम-कायदों का प्रचार-प्रसार जागरूकता फैलाने का एक महत्त्वपूर्ण जरिया है। आखिर लोक कल्याण से संबंधित योजनाओं के प्रचार-प्रसार के चलते ही ज्यादातर लोग उनके बारे में जान पाते हैं और उनका लाभ उठा पाते हैं। ऐसी अनेक घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिनमें हादसे के शिकार किसी व्यक्ति को कहीं बिस्तर या तकनीकी सुविधाओं का अभाव बता कर तो कहीं कानूनी कागजात पूरे नहीं होने की दलील देकर भर्ती नहीं किया गया और घंटों तकलीफ झेलने के बाद आखिरकार उसकी मौत हो गई। ऐसे मामलों में कभी जवाबदेही तय नहीं हो पाती। उम्मीद की जानी चाहिए कि दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्देश के फलस्वरूप अस्पतालों को और अधिक जिम्मेदार और संवेदनशील बनाया जा सकेगा।
Pinki Devi
अंश जनसत्ता से साभार
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