Thursday 7 March 2013

सफ़ेद पर लालबत्ती का मोह

अमूमन सभी राजनीतिक दलों के अनेक नेताओं के वाहनों पर लालबत्ती लगी दिख जाती है या फिर वे पुलिसकर्मियों से घिरे दिखते हैं। इसके पीछे दलील यह होती है कि चूंकि वे अतिमहत्त्वपूर्ण श्रेणी में गिने जाते हैं, इसलिए उनके लिए सुरक्षा के खास इंतजाम जरूरी हैं। लेकिन ऐसे कई नेताओं को भी ये सुविधाएं मुहैया करा दी जाती हैं, जिन्हें इनकी जरूरत नहीं होती या जो इनके हकदार नहीं होते। नतीजा यह है कि अगर लालबत्ती लगी गाड़ियों की तादाद बढ़ते जाने से यातायात में रुकावटें बढ़ी हैं। सुरक्षाकर्मियों से घिरे होना हैसियत के आडंबर का प्रतीक हो गया है। यह स्थिति आम लोगों और शासन-प्रशासन के बीच बढ़ती दूरी को ही प्रतिबिंबित करती है और इसे कतई जनतांत्रिक राज-काज के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। लालबत्ती और वीआइपी सुरक्षा का तामझाम जहां प्रशासन के लिए बोझ साबित होता है वहीं इससे जन-सामान्य के सुरक्षा इंतजामों पर नकारात्मक असर पड़ता है। इसलिए एक याचिका की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही इस व्यवस्था पर सवाल उठाया है। अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों से कहा है कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, मुख्य न्यायाधीश आदि के लिए तो यह सुविधा जरूरी है, लेकिन अन्य बहुत-से लोगों को यह किस दलील पर मुहैया कराई जा रही है? इसके जवाब में महाधिवक्ता ने दलील दी कि यह व्यवस्था संबंधित व्यक्तियों की जान पर जोखिम और उनकी सुरक्षा पर आधारित होनी चाहिए। लेकिन उनकी यह राय सच से शायद बहुत दूर है। पिछले साल वाम दलों को छोड़ कर लगभग सभी राजनीतिक दलों के बहुतेरे सांसदों ने बाकायदा हस्ताक्षर के साथ याचिका देकर इस सुविधा की मांग करते हुए कहा था.
कि इससे सड़कों पर उनका समय जाया नहीं होगा। उनका यह भी मानना था कि लालबत्ती वाली गाड़ी के बगैर अपने निर्वाचन क्षेत्र में जाने पर उन्हें शर्मिंदगी का अहसास होता है। संसद की एक समिति ने भी लालबत्ती की सुविधा दिए जाने के मामले में सांसदों को दिए गए इक्कीसवें नंबर के दरजे पर नाराजगी जताते हुए उनके वाहनों पर लालबत्ती लगाने की इजाजत देने की सिफारिश की थी।
इस तरह की विशेष सुविधाएं जरूरत के बजाय अपनी ‘विशिष्ट’ सामाजिक हैसियत को दर्शाने का एक जरिया बनती गई हैं। अतिविशिष्ट कहे जाने वाले या खुद को ऐसा मानने वाले ज्यादातर लोग केवल रुतबे और सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में अपना प्रभाव दर्शाने के मकसद से अपनी गाड़ी पर लालबत्ती लगाना चाहते हैं। खुद को सुरक्षाकर्मियों से घिरे दिखाने के पीछे भी यही चाहत रहती है। इसी प्रवृत्ति का नतीजा है कि आज बड़ी तादाद में पुलिसकर्मी या राष्ट्रीय सुरक्षा गारद जैसे उच्चस्तर के सुरक्षाकर्मी राजनीतिक दलों के नेताओं की हिफाजत में तैनात कर दिए गए हैं। इसका सीधा असर सामान्य सुरक्षा माहौल पर पड़ता है। गौरतलब है कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे कई देशों में केवल संवैधानिक प्रमुखों को सरकारी खर्च पर सुरक्षा मुहैया कराई जाती है। लेकिन हमारे यहां कुछ राज्यों में तो हालत यह है कि मुखिया या सरपंच भी लालबत्ती लगी और काले शीशे वाली गाड़ी में बेधड़क सफर करते हैं और उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। सवाल है कि हमारे जो नेता अपने वाहनों पर लालबत्ती लगाने या आधुनिक स्वचालित हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मियों से घिरे रहने जैसे रसूख दर्शाने वाले प्रतीकों को लेकर लालायित रहते हैं, क्या उन्हें कभी उन लोगों की भी सुरक्षा की फिक्र सताती है जिनका प्रतिनिधित्व करने का वे दावा करते हैं?

Virendra Kushwaha
जनसत्ता से प्रेरित साभार

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