Saturday, 9 March 2013

खाप पंचायत का आखिर खौफ क्यों?

सामाजिक मूल्यों और मान-मर्यादा की रक्षा के नाम पर खाप पंचायतें जब-तब मनमाने फरमान जारी करती रही हैं। उनके इस रवैए को लेकर कई बार अदालतें फटकार लगा चुकी हैं। मगर उन पर कोई असर हुआ हो, ऐसा नहीं लगता। इसका ताजा उदाहरण बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के बहाने लड़कियों के लिए जारी उनका निर्देश है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश और हरियाणा की कुछ खाप पंचायतों ने हुक्म दिया कि लड़कियां मोबाइल फोन लेकर न चलें। उनके पहनावे को लेकर भी इन पंचायतों ने कुछ मानक तय किए हैं। खाप पंचायतों के ऐसे बेतुके आदेशों के खिलाफ दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उकत्तर प्रदेश और हरियाणा की विभिन्न खाप पंचायतों के प्रमुखों और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को तलब किया था। लड़कियों के मोबाइल फोन इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगाने जैसे फैसले को अदालत ने गैर-कानूनी करार दिया है। उसने कहा कि इस तरह कोई व्यक्ति किसी के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर सकता। अदालत ने खाप पंचायतों के समांतर अदालत चलाने पर भी फटकार लगाई है। देखना है, इससे स्त्रियों के प्रति खाप पंचायतों के नेताओं के व्यवहार में कितना बदलाव आ पाता है। अंतरजातीय या फिर एक ही गोत्र में विवाह करने वाले जोड़ों की हत्याओं के मामले में जातीय पंचायतों ने अदालत के सामने यह साबित करने की कोशिश की कि वे उन मामलों में प्रत्यक्ष रूप से भागीदार नहीं थीं। मगर पूछा जाना चाहिए कि क्या वे ऐसा दकियानूस और कट््टर माहौल बनाने में अपनी भूमिका से भी इनकार कर सकती हैं? अगर ऐसे विवाहों के खिलाफ वे खड़ी न होतीं तो किसी युगल के घर-गांव छोड़ कर भागने, पुलिस से सुरक्षा की गुहार लगाने या अदालत की शरण लेने की नौबत क्यों आती?
खाप पंचायतों के ऐसे रवैए पर सर्वोच्च न्यायालय पहले भी कई बार फटकार लगा चुका है। मगर उनके खिलाफ कड़े कदम नहीं उठाए जा सके तो इसकी कुछ वजहें जाहिर हैं। अपने इलाकों में इन पंचायतों का दबदबा इस कदर बढ़ चुका है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी उनके खिलाफ खड़ा होना तो दूर, उनकी आलोचना से भी बचती है। बल्कि कई स्थानीय राजनीतिक उनके साथ नजर आते हैं। पुलिस का रवैया भी अक्सर इससे अलग नहीं होता। यहां एक सवाल उन नागरिक अधिकारों का है जिनकी गारंटी संविधान ने दी हुई है। इन अधिकारों से किसी को वंचित करना एक गैर-कानूनी कृत्य है। दूसरा सवाल स्त्रियों के खिलाफ होने वाले अपराधों को लेकर गलत धारणाएं फैलाने की कोशिशों से जुड़ा है। यह समझना मुश्किल है कि पास में मोबाइल फोन रखने से किसी लड़की के लिए असुरक्षा का खतरा कैसे पैदा होता है? जबकि इस साधन के जरिए वह अपने परिजनों और पुलिस को फौरन सूचित कर किसी संकट से उबरने की उम्मीद कर सकती है? ऐसा लगता है कि मोबाइल फोन की मनाही के पीछे असल इरादा लड़के-लड़कियों के संपर्क को हतोत्साहित करना है। हरियाणा में पिछले डेढ़-दो महीनों में बलात्कार की कई घटनाएं हुर्इं। इनमें से ज्यादातर मामलों में पीड़ित दलित समुदाय की थीं। उन घटनाओं पर किस पंचायत की चिंता दिखी? जो लोग यौन हिंसा से जुड़े सामाजिक कारकों और पुलिस-प्रशासन की उदासीनता को नजरअंदाज कर पहनावे आदि का सवाल उठा रहे हैं, दरअसल वे देश भर में उठी बहस को गलत दिशा में मोड़ना चाहते हैं।

Mamta Maurya

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