Sunday, 31 March 2013

कब लोग मै से हम पर आयेंगे? गलती बताओ तो हल भी दो: Chiragan

आज कल हम लोग एक पत्रिका प्रयाग गौरव से जुड़ कर कार्य कर रहे थे उसके प्रबंध संपादक अनूप त्रिपाठी जी जब हमसे मिले थे और साथ कार्य करने का प्रस्ताव रखा था तो हम उनके विचारो से प्रभावित हुए थे और लगा की हा ये भीड़ से अलग कुछ करना चाहते है  हम उनके साथ जुड़ गए। पर कल जब उस मेहनत का फल निकलने की बारी आई तो लगा की यहाँ पर तो अनूप जी से भी बड़े धुरंधर बैठे हुए है जो उनकी सोच और शक्ति को आगे नहीं बढ़ने दे रहे है फिर हम क्या थे। अनूप जी को भी न चाहते हुए भी उन कार्यो को करना पद रहा है जो वो नहीं करना चाहते थे। कल उनके साथ  के कुछ लोग मुझे नसीहत देने लगे की किंजल तुम्ह लोगो को काम करना नहीं आता है ऐसे चलोगे तो काम नहीं कर पाओगेअ मुझे भी लगा की हा वो सही कह रहे है की मुझे काम करना नहीं आता है क्योकि चिरागन कभी दबाव में काम नहीं करता है। कभी चाटुकारिता नहीं करता है क्योकि हमने सोच रखा है की देश सबसे पहले फिर चिरागन फिर हम। और शायद इशी का परिणाम है जो हमे आपका इतना प्यार मिला है की फेसबुक पर हमारे बारह हजार से अधिक फोलोवर है, और हमारे ब्लॉग को हर महीने आप जैसे तीस हजार से अधिक लोग देखते है। इशी बात पर मैंने कुछ दिनों पहले नव भारत टाइम्स पर रविशंकर जी के बारे में एक लेख पढ़ा था सोचता हु वो भी आपसे शेयर करू।

 गलती बताओ तो हल भी दो
जाने-माने आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर का जन्म तमिलनाडु के पापनाशम में 1956 में आज ही के दिन यानी 13 मई को हुआ था। 1982 में उन्होंने आम लोगों के जीवन से तनाव दूर करने और सामाजिक समस्याओं के हल के लिए आर्ट ऑफ लिविंग की स्थापना की। अद्वैत वेदांत दर्शन को मानने वाले श्री श्री रविशंकर ने लोगों को तनावमुक्त करने के लिए सुदर्शन क्रिया जैसी प्रभावशाली तकनीक ईजाद की। पेश हैं उनके कुछ विचार-

- जागो और देखो कि जीवन बहुत छोटा है। यही अनुभव आपके जीवन में गतिशीलता बढ़ा देगा।

- गलती को बस गलती की तरह देखिए, उसकी या अपनी गलती के तौर पर नहीं। अपनी गलती के तौर पर देखोगे तो अपराधबोध होगा और दूसरे की गलती के रूप में देखोगे तो क्रोध आएगा।
- गलती की ओर इशारा करो तो उसका हल भी दो। यदि तुम गलती बता दो और हल न दो, तो बात अधूरी रह गई।

- सचाई को सबूतों के जरिये नहीं समझा जा सकता क्योंकि जिस चीज को साबित किया जा सकता है, उसे झूठा भी ठहराया जा सकता है। सचाई तो सबूतों से परे होती है।

- आध्यात्मिकता किसी केले की तरह है और धर्म उसका छिलका।

- गुणों का अति दुर्लभ मिश्रण है आत्मविश्वासी और विनम्र होना। अकसर आत्मविश्वासी लोग विनम्र नहीं होते और विनम्र लोग आत्मविश्वासी नहीं होते। दोनों का एक ही शख्स के अंदर होना सराहनीय है।

- जीवन कोई बहुत गंभीर विषय नहीं है। दर्पण में देखकर अपने आप को मुस्कान देकर अपना दिन शुरू करो, गाओ, नाचो और उत्सव मनाओ। उत्सव मनाने की मंशा ही तुम्हें वर्तमान में ले आएगी।

- अपनी मुस्कान को सस्ता और गुस्से को महंगा बनाओ।

- खुश रहने की आदत डालो। यह तुम्हें ही करना है। यह तुम्हारे लिए कोई और नहीं कर सकता।

- अपना जीवन विनोदी बनाइए जिससे लोग तुम्हारी ओर खिंचे चले आएं।

- सबसे उत्तम पूजा है प्रसन्न और कृतज्ञ रहना।

- आमतौर पर भोले और निश्छल लोग बुद्धिमान नहीं होते और जो बुद्धिमान होते हैं, वे कपटी होते हैं। अच्छा तो यह है कि बुद्धिमत्ता और निश्छलता दोनों एक ही व्यक्ति में हों, हालांकि ऐसा बहुत दुर्लभ है।

- मौज-मस्ती के पीछे भागोगे तो दुख मिलेंगे। ज्ञान के पीछे भागोगे तो मस्ती खुद आप तक आएगी।

आशा है आप मेरी भावनाओ को समझ रहे होंगे। 
किंजल कुमार




 


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कुछ यही सोचती होगी उनकी आत्मा....कैसे मैं गणतंत्र मनाऊँ….??? Chiragan

एक समय था जब २६ जनवरी नाम सुनते ही मन में एक अजीब सा कैतूहल, अजीब सी खुशी पैदा हो जाती है, मैं बात कर रहा हूँ, बचपन की, विधालय जीवन की।
साल मैं दो त्यौहार आते थे, जिन्हें परिवार के साथ ना मनाकर विधालय के मित्रों और गुरुजनों के साथ मनाते थे। तो खुशी तो होनी ही थी।
उनमें से एक ‘१५ अगस्त’ ज्यादातर बारिश में धुल जाता था। क्योंकि उस समय सामान्यतः श्रावण का महीना होता था। इसीलिए सारी तैयारियों पर पानी फिरने का डर बना रहता था।
तो अध्यापक बोलते थे सारी कसर २६ जनवरी पर पूरी कर लेंगे। इसलिए २६ जनवरी पर जोश दोगुना हो जाता था। बीसों दिन पहले तैयारी शुरु हो जाती, अपने से वरिष्ठ विधार्थियों,
अध्यापकों से मिलते कि कोई अच्छा गाना या कविता मिल जाये, कुछ नहीं मिलता था तो अपनी ही हिंदी की पाठ्यपुस्तक में से कोई देशभक्ति कविता तैयार करना शुरु कर देते,
आखिर शहीदों के लिये सम्मान व श्रद्दा जो थी कि हमें आजादी दिलाई उन्होंने। घरवालों को परेशान करना शुरु कर देते नई पोशाक और जूते चाहिये २६ जनवरी पर कार्यक्रम में भाग ले रहा हूँ।
उसके बाद पुरुस्कार व मिठाई की खुशी, साथ ही देशभक्ति गीत सुनकर खून उबाल मारता, और जोश आसमान को छूता, लेकिन ज्यों-ज्यों बडे होते गये, अर्थ बदलते गये।
थोडे बडे हुए तो कारण पता चला कि इस दिन हमारा संविधान लागू हुआ। आजादी के बाद २ वर्ष ११ माह १८ दिन में ये २६ नवम्बर १९४९ को बनकर तैयार हुआ।
सोचा तो २६ जनवरी को ही क्यूं लागू हुआ तो उत्तर मिला कि एक बार २६ जनवरी के ही दिन सन १९३० में नेहरु ने रावी के तट पर तिरंगा फहराया था। और बडे हुए थोडी और जानकार मिली।
कि संविधान जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा लिखित संविधान है। और दुनियां का सबसे बडा संविधान है। बडी खुशी मिलती और गर्व भी होता।
लकिन अब अर्थ व मायने बिल्कुल बदल गये, क्यूंकि सच्चाई बिल्कुल भिन्न थी। क्योंकि–
भारत का संविधान दुनियां का सबसे बडा लिखित संविधान है, बडे संविधान का मतलब ये नहीं होता कि आपने उसे लिखने में ज्यादा पन्ने इस्तेमाल किये, बडे का मतलब बडी बातों से होता है।
जो समाज जितना ही पिछड़ा हुआ, अतार्किक और अन्धाविश्वासी होता है, उसमें देव-पूजा, नायक-पूजा की प्रवृत्ति उतनी ही गहराई से जड़ें जमाये रहती है। इससे स्वार्थी व्यक्तियों का भी हित सधता है, प्रभावशाली सामाजिक वर्गों का भी और सत्ता का भी। इसके लिए कभी-कभी किसी ऐसे पुराने नायक को जीवित कर लेते हैं, जिसके साथ अतीत में पीडितों और कमजोरों का पक्षधर होने की प्रतिष्ठा जुड़ी हो, उत्पीड़ित जन यह भ्रम पाल लेते हैं कि उन्हें शासकों के प्रभुत्व से छुटकारा मिल जायेगा। जब यह भ्रम भंग भी हो जाता है और नायक/नेता द्वारा प्रस्तुत वैकल्पिक मार्ग आगे नहीं बढ़ पाता, तब भी उक्त महापुरुष-विशेष और उसके सिद्धान्तों की आलोचना वर्जित और प्रश्नेतर बनी रहती है और उसे देवता बना दिया जाता है। इससे लाभ अन्तत: शोषणकारी व्यवस्था का ही होता है।
डॉ॰ अम्बेडकर को लेकर भारत में प्राय: ऐसा ही रुख़ अपनाया जाता रहा है। अम्बेडकर की किसी स्थापना पर सवाल उठाते ही दलितवादी बुद्धिजीवी तर्कपूर्ण बहस के बजाय ”सवर्णवादी” का लेबल चस्पाँ कर देते हैं, निहायत अनालोचनात्मक श्रद्धा का रुख़ अपनाते हैं तथा सस्ती फ़तवेबाज़ी के द्वारा आलोचनाओं को ख़ारिज कर देते हैं। इससे सबसे अधिक नुक़सान दलित जातियों के आम जनों का ही हुआ है। इस पर ढंग से कोई बात-बहस ही नहीं हो पाती है कि दलित-मुक्ति के लिए अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत परियोजना वैज्ञानिक-ऐतिहासिक तर्क की दृष्टि से कितनी सुसंगत है और व्यावहारिक कसौटी पर कितनी खरी है?
इस बात का बहुत अधिक प्रचार किया जाता है कि डॉ. अम्बेडकर ही भारतीय संविधान के ‘निर्माता’ या ”प्रमुख वास्तुकार” हैं। यह कहाँ तक सच है? संविधान सभा में ‘आर्थिक शोषण से मुक्ति’ के लिए प्रस्तुत अम्बेडकर का प्रस्ताव क्या था और कितना व्यावहारिक था और इस प्रस्ताव के ख़ारिज किये जाने के बाद भी अम्बेडकर संविधान सभा में और नेहरू के मन्त्रालय में क्यों बने रहे? अनुसूचित जातियों के कल्याण के जिस उद्देश्य से अम्बेडकर सरकार और संविधान सभा में गये थे, क्या उसकी कोई सम्भावना शुरू से ही वहाँ मौजूद थी?
संविधान-निर्माण का कार्य सम्पन्न होने पर तो अपने लम्बे भाषण में अम्बेडकर ने परम सन्तोष प्रकट किया था और कांग्रेस की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी,
फिर कुछ ही वर्षों बाद वे सरकार से बाहर आकर ‘संविधान जलाने’ की बात क्यों करने लगे थे? बावजूद उनके इस मोहभंग के, आज के दलित नेता उन्हें ‘भारतीय संविधान का निर्माता’ कहकर गौरवान्वित क्यों होते हैं और संविधान में किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ का विरोध क्यों करते हैं? — इन सभी बातों पर तार्किक और तथ्यपरक ढंग से सोच-विचार किया जाना चाहिए। अतर्क-कुतर्क और अन्धभक्ति से किसी का भला नहीं हो सकता।
अपने भाषण में अम्बेडकर ग़रीबों को वे बार-बार यही उपदेश देते हैं कि वे संविधान और क़ानून के ख़िलाफ़ कदापि न जायें। अम्बेडकर के भाषण के बाद कांग्रेसी और अन्य सदस्यों ने उनकी प्रशंसा की झड़ी लगा दी और उन्हें ”आधुनिक मनु” की संज्ञा दी। कांग्रेस के प्रति आत्मसमर्पण का दृश्य पूरा हो चुका था। इसके बाद चार वर्षों तक अम्बेडकर इन्तज़ार करते रहे। उन्हें न तो मनचाहा मन्त्रालय मिला, न ही उन्हें किसी अन्य नयी गठित कमेटी में ही लिया गया। 1952 में वे राज्यसभा के सदस्य बने। 1953 में राज्यसभा में ‘आन्‍ध्र राज्य के बिल’ पर बोलते हुए उन्होंने कहा : ”सब लोग मुझे संविधान का निर्माता कहते हैं। वास्तव में मुझे बहुत सी बातें अपनी इच्छाओं के विरुद्ध लिखनी पड़ी थीं। अब मैं उस संविधान से सन्तुष्ट नहीं हूँ जिसे मैंने स्वयं लिखा। मैं पहला व्यक्ति होऊँगा जो इसे जलाने के लिए आगे आयेगा। यह संविधान किसी के लिए भी उपयोगी नहीं है।” (रंगनायकम्मा : उपरोद्धृत पुस्तक, पृ. 452-453)।

संविधान की प्रस्तावना देखो….
”हम, भारत के लोग भारत को एक सम्प्रभुता-सम्पन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष जनवादी गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म
और उपासना की स्वतन्त्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सबमें
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और
अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता
बढ़ाने के लिए
दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख़ 26 नवम्बर 1949 ई. को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”
यह लोक-लुभावन छलावे के साथ रचा गया प्रपंच था। भारत के संविधान की शुरुआत ही बडबोली घोषणा के साथ होती है। जैसे कोई पार्टी चुनाव से पहले जनता के सामने बडे ही लुभावने वायदे करती है। आपको याद दिला दूँ 26 नवम्बर 1949 को संविधान की मूल प्रस्तावना में सिर्फ ‘सम्प्रभुता सम्पन्न जनवादी गणराज्य’ ही था, “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्द 1976 में आपातकाल के दौरान बयालीसवें संशोधन द्वारा जोड़े गये थे। इस संशोधन का विडम्बनापूर्ण समय भी उल्लेखनीय है। उस समय इन्दिरा गाँधी की सरकार ने देश में आपातकाल लागू करके रही-सही नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों को भी समाप्त कर दिया था। नेहरूवादी “समाजवाद” की नीतियों को फासिस्ट निरंकुशता की इस विडम्बनापूर्ण परिणति तक पहुँचना ही था। उस आपातकाल की समाप्ति के बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जो पहली गैर-कांग्रेसी सरकार केन्द्र में अस्तित्व में आयी, जनता पार्टी सरकार की उस सरकार में सबसे बड़ा और संगठित धड़ा आर.एस.एस. समर्थित जनसंघ था जो ”समाजवाद” ही नहीं, जो तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का भी धुर-विरोधी था। बयालीसवें संविधान संशोधन द्वारा ही ‘राष्ट्र की एकता’ के स्थान पर “राष्ट्र की एकता और अखण्डता’ शब्दावली रख दी गयी थी। यह बदलाव भी तत्कालीन इन्दिरा निरंकुशशाही के अतिकेन्द्रीकृत सत्ता और एकता-अखण्डता की रक्षा के नाम पर हर विरोध को कुचल देने की इच्छा और ज़रूरत को ही रेखांकित करता था।
“हम भारत के लोग” प्रस्तावना का शुरुआती जुमला वही था जिससे अमेरिकी संविधान की शुरुआत हुई थी। “हम संयुक्त राज्य के लोग’। अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना की यह शब्दावली भी एक धोखाधड़ी थी। वह न तो अमेरिका में अश्वेत दासों का प्रतिनिधित्‍व करता था, न ही अमेरिकी संविधान ने दासता का उन्मूलन किया था।
भारतीय संविधान सभा भी बहुसंख्य जनसमुदाय का प्रतिनिधित्‍व नहीं करती थी और आगे चलकर भी उस संविधान को भारत के लोगों के चुने हुए प्रतिनिधियों के किसी निकाय द्वारा पारित नहीं किया गया। यह भी कहा गया कि भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता का उन्मूलन करके सामाजिक समावेशन और दलित जातियों की प्रगति की राह खोल दी। ग़ौरतलब है कि इस मामले में भारतीय संविधान और लोकतन्त्र की विफलता को तो पाँच-छह वर्ष बीतते-बीतते डॉ. अम्बेडकर भी स्वीकार कर चुके थे। आरक्षण जैसे प्रावधानों ने भी बहुसंख्यक दलितों को समाज के सबसे निचले पायदान से और उजरती ग़ुलामों की सबसे अपमानित पाँत से ऊपर उठाने के बजाय उनके बीच से सिर्फ एक छोटी-सी जमात या मात्र कुछ ही लोगों को आर्थिक रूप से बेहतर जीवन दे दिया है, बाकी आज तक वैसे ही हैं। जबकि सामाजिक अपमान और भेदभाव का सामना उन्हें आज भी करना पडता है।
अब बात आती है संप्रभुता की, अर्थात् राजाशाही की निरंकुश्ता की जगह चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता को सत्ता का केंद्र बनाना और जनता को संप्रभु बनाने से था। आज जनता मात्र मतदान की ताकत है उसके बाद सत्ता निरंकुश।
बात ‘लोकतन्‍त्रात्मक गणराज्य’ की करें तो, जो अमली रूप सामने आया है उसने जनता के साथ हुई धोखाधड़ी को एकदम नंगा कर दिया है। इस बात का प्राय: बहुत अधिक डंका पीटा जाता है कि भारत का बहुदलीय संसदीय जनवाद तिरसठ वर्षों से सुचारु रूप से चल रहा है। बेशक शासक वर्गों की इस हुनरमन्‍दी को मानना पड़ेगा कि इतने वर्षों से यह धोखाधड़ी जारी है, बहुदलीय संसदीय जनवाद का मतलब सिर्फ इतना ही रहा है कि हर पाँच वर्षों बाद जनता ठप्पा मारकर सिर्फ यह चुनाव करे कि शासक वर्ग की कौन सी पार्टी अगले पाँच वर्षों तक उसपर शासन करे। सरकारें चाहे जिस पार्टी की हों, वे शासन वर्गों की मैनेजिंग कमेटी का काम करती रही हैं। जो सरकार योग्यतापूर्वक इस काम को नहीं कर पाती, उस सरकार को गिरते देर नहीं लगती। चुनाव पूँजीपति घरानों की थैलियों के बिना कोई लड़ ही नहीं सकता। संसद की भूमिका केवल बहसबाज़ी के अड्डे की होती है। नीतियों को लागू करने का असली काम नौकरशाही करती है। मन्त्रिमण्डल बस पूँजीपतियों के इशारे पर नीतियाँ बनाता है। जनता के हर सम्भावित प्रतिरोध को कुचलने के लिए पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों और सेना का एक दैत्याकार तन्‍त्र है।

संकलन कर्ता आभार के साथ...!
Pinki Devi
 

प्यार जो छूत की बीमारी की तरह बढ़ता ही जाता है : Chiragan

साईं बाबा का जन्म 28 सितंबर 1838 को हुआ। वह जाने-माने फकीर और संत थे। कहा जाता है कि अपने जीवनकाल में उन्होंने कई बड़े चमत्कार किए। भक्तों ने उन्हें साइर् (साक्षात ईश्वर) नाम दिया और ईश्वर के अवतार के रूप में पूजना शुरू कर दिया। आज भी दुनिया भर में उनके लाखों भक्त हैं। बाबा प्यार, क्षमा, दान, मदद, शांति, संतुष्टि और गुरु की भक्ति को नैतिक बताते हुए इन सब आदतों को ग्रहण करने की शिक्षा देते थे। उनके उपदेशों में हिंदुत्व और इस्लाम दोनों की शिक्षाओं का समावेश था। इस तरह उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों को जोड़ने और इनके बीच सांप्रदायिक सद्भाव कायम करने में बड़ी भूूमिका निभाई। 15 अक्टूबर 1918 को उन्होंने अपनी देह का त्याग कर दिया।

- अगर आप चाहते हैं कि कोई घर सालोंसाल चले तो उसकी नींव का मजबूत होना बेहद जरूरी है। यही नियम इंसान पर भी लागू होता है, वरना वह भी मिट्टी में मिल जाएगा और छलावे की दुनिया में चला जाएगा।
- कर्म की उपज सोच-विचारों से होती है, इसलिए ये विचार ही हैं, जो ज्यादा मायने रखते हैं।
- ध्यान रखें कि आपके आसपास की चीजें आपको कभी भी गलत राह पर न ले जाएं, न ही जो आप देखते हैं, उससे प्रभावित हों क्योंकि आप जिस दुनिया में रहते हैं, वह एक छलावा है, जिसमें गलत रास्ते और झूठे आदर्शों एवं विचारों की भरमार है।
- प्यार को इस दुनिया में बेपरवाह बहने दो ताकि वह दुनिया को शुद्ध और पवित्र कर दे। इसके बाद इंसान उस कोलाहल से दूर शांति से रह सकेगा, जो सांसारिक रुचियों और महत्वाकांक्षाओं से पैदा हुआ है। ।
- जिंदगी गाना है - इसे गाते रहो, जिंदगी खेल है - इसे खेलते चलो, जिंदगी चुनौती है - इसे स्वीकार करो, जिंदगी सपना है - इसे जानो, जिंदगी बलिदान है - इसे अर्पित करो, जिंदगी प्रेम है - इसका आनंद उठाओ। - आसमान में मौजूद लाखों तारों को देखो, जो ईश्वर द्वारा ृबनाई गई कुदरत के हिस्से के रूप में एकता का संदेश दे रहे हैं।
- दूसरां को प्यार और मदद दीजिए, ताकि वे अपनी जिंदगी के बेहतरीन लेवल तक पहुंच सकें। प्यार एक छूत की बीमारी की तरह है और हर समस्या का हल करने का दम रखता है।
- इंसान अनुभवों से सीखता है और आध्यात्मिक पथ इंसान को विभिन्न तरह के अनुभव हासिल कराता है। ये अनुभव उसे शुद्ध और स्वच्छ बनाने में मदद करते हैं।
- भविष्य तभी उज्ज्वल हो सकता है , जब आप ईश्वर के साथ ताल - से - ताल मिलाकर जिंदगी जीने लगेंगे।
- जिंदगी के मायने वर्तमान में जीने से हैं। जिंदगी के इस पल को जी भर के जी लो। ये आपके आज के विचार और कर्म ही हैं , जो आपका भविष्य तय करेंगे। भविष्य की रूप - रेखा आपके पिछले कर्मों से भी काफी हद तय हो चुकी है।
- इंसान को कमल के फूल की तरह होना चाहिए , जो सूरज की उगती किरणों के साथ ही अपने पत्तों को खोलकर फैला लेता है , जो कीचड़ में पैदा होने के बाद भी बिना किसी मलाल के लहलहाता रहता और पानी में अपना वजूद बनाए रखता है।

Monday, 25 March 2013

चिरागन परिवार की तरफ से आप सब को होली की शुभकामनाए!

चिरागन परिवार की तरफ से आप सब को होली की शुभकामनाए

चिरागन परिवार की तरफ से आप सब को होली की शुभकामनाए !


जब फागुन रँग झमकते हो तब देख बहारेँ होली की |
गुलजार खिले हो परियोँ के और मजलिस की तैयारी हो |
कपड़ो पर रँग के छीटोँ से खुश रँग अजब गुलकारी हो |
मुँह लाल, गुलाबी आँखे हो और हाथोँ मेँ पिचकारी हो |
उस रँग भरी पिचकारी को अँगिया पर तक कर मारी हो |
सीनो से रँग ढलकतेँ हो तब देख बहारेँ होली की . -"नजीर अकबराबादी" 


रोली, अबीर, गुलाल,चन्दन से तो मनाते होली सभी हम तो सबको प्रेम रंग लगाए जोकि ना छुटे कभीआप सभी को होली की हार्दिक शुभकामनाए इस आशा के साथ की ये होली सभी के जीवन में ख़ुशियों के ढेर सरे रंग भर दे ....!!

A Documentary film & Photography Exhibition by Students & Team of Chiragan. Coming soon. For more update join us on facebook Page: www.fb.com/kumbhprayag

A Documentary film & Photography Exhibition by Students & Team of Chiragan. Coming soon. For more update join us on facebook Page: www.fb.com/kumbhprayag Maha Kumbh Mela, Sangam, Allahabad, India

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जीवन जीने की कला और हम

सभी सुख एवं शांति चाहते हैं, क्यों कि हमारे जीवन में सही सुख एवं शांति नहीं है। हम सभी समय समय पर द्वेष, दौर्मनस्य, क्रोध, भय, ईर्ष्या आदि के कारण दुखी होते हैं। और जब हम दुखी होते हैं तब यह दुख अपने तक ही सीमित नहीं रखते। हम औरों को भी दुखी बनाते हैं। जब कोई व्यक्ति दुखी होता है तो आसपास के सारे वातावरण को अप्रसन्न बना देता है, और उसके संपर्क में आने वाले लोगों पर इसका असर होता है। सचमुच, यह जीवन जीने का उचित तरिका नहीं है।
हमें चाहिए कि हम भी शांतिपूर्वक जीवन जीएं और औरों के लिए भी शांति का ही निर्माण करें। आखिर हम सामाजिक प्राणि हैं, हमें समाज में रहना पडता हैं और समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ पारस्पारिक संबंध रखना है। ऐसी स्थिति में हम शांतिपूर्वक जीवन कैसे जी सकते हैं? कैसे हम अपने भीतर सुख एवं शांति का जीवन जीएं, और कैसे हमारे आसपास भी शांति एवं सौमनस्यता का वातावरण बनाए, ताकि समाज के अन्य लोग भी सुख एवं शांति का जीवन जी सके?
हमारे दुख को दूर करने के लिए पहले हम यह जान लें कि हम अशांत और बेचैन क्यों हो जाते हैं। गहराई से ध्यान देने पर साफ मालूम होगा कि जब हमारा मन विकारों से विकृत हो उठता है तब वह अशांत हो जाता है। हमारे मन में विकार भी हो और हम सुख एवं सौमनस्यता का अनुभव करें, यह संभव नहीं है।
ये विकार क्यों आते है, कैसे आते है? फिर गहराई से ध्यान देने पर साफ मालूम होगा कि जब कोई व्यक्ति हमारे मनचाहा व्यवहार नहीं करता उसके अथवा किसी अनचाही घटना के प्रतिक्रियास्वरूप आते हैं। अनचाही घटना घटती है और हम भीतर तणावग्रस्त हो जाते हैं। मनचाही के न होने पर, मनचाही के होने में कोई बाधा आ जाए तो हम तणावग्रस्त होते हैं। हम भीतर गांठे बांधने लगते है। जीवन भर अनचाही घटनाएं होती रहती हैं, मनाचाही कभी होती है, कभी नहीं होती है, और जीवन भर हम प्रतिक्रिया करते रहते हैं, गांठे बांधते रहते हैं। हमारा पूरा शरीर एवं मानस इतना विकारों से, इतना तणाव से भर जाता है कि हम दुखी हो जाते हैं।
इस दुख से बचने का एक उपाय यह कि जीवन में कोई अनचाही होने ही न दें, सब कुछ मनचाहा ही हों। या तो हम ऐसी शक्ति जगाए, या और कोई हमारे मददकर्ता के पास ऐसी ताकद होनी चाहिए कि अनचाही होने न दें और सारी मनचाही पूरी हो। लेकिन यह असंभव है। विश्व में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसकी सारी ईच्छाएं पूरी होती है, जिसके जीवन में मनचाही ही मनचाही होती है, और अनचाही कभीभी नहीं होती। जीवन में अनचाही होती ही है। ऐसे में प्रश्न उठता है, कैसे हम विषम परिस्थितियों के पैदा होने पर अंधप्रतिक्रिया न दें? कैसे हम तणावग्रस्त न होकर अपने मन को शांत व संतुलित रख सकें?
भारत एवं भारत के बाहर भी कई ऐसे संत पुरुष हुए जिन्होंने इस समस्या के, मानवी जीवन के दुख की समस्या के, समाधान की खोज की। उन्होंने उपाय बताया- जब कोई अनचाही के होने पर मन में क्रोध, भय अथवा कोई अन्य विकार की प्रतिक्रिया आरंभ हो तो जितना जल्द हो सके उतना जल्द अपने मन को किसी और काम में लगा दो। उदाहरण के तौर पर, उठो, एक गिलास पानी लो और पानी पीना शुरू कर दो—आपका गुस्सा बढेगा नहीं, कम हो जायेगा। अथवा गिनती गिननी शुरू कर दो—एक, दो, तीन, चार। अथवा कोई शब्द या मंत्र या जप या जिसके प्रति तुम्हारे मन में श्रद्धा है ऐसे किसी देवता का या संत पुरुष का नाम जपना शुरू कर दो। मन किसी और काम में लग जाएगा और कुछ हद तक तुम विकारों से, क्रोध से मुक्त हो जाओगे।
इससे मदद हुई। यह उपाय काम आया। आजभी काम आता है। ऐसे लगता है कि मन व्याकुलता से मुक्त हुआ। लेकिन यह उपाय केवल मानस के उपरी सतह पर ही काम करता है। वस्तुत: हमने विकारों को अंतर्मन की गहराईयों में दबा दिया, जहां उनका प्रजनन एवं संवर्धन चलता रहा। मानस के उपर शांति एवं सौमनस्यता का एक लेप लग गया लेकिन मानस की गहराईयों में दबे हुए विकारों का सुप्त ज्वालामुखी वैसा ही रहा, जो समया पाकर फूट पडेगा ही।
भीतर के सत्य की खोज करने वाले कुछ वैज्ञानिकों ने इसके आगे खोज की। अपने मन एवं शरीर के सच्चाई का भीतर अनुभव किया। उन्होंने देखा कि मन को और काम में लगाना यानी समस्या से दूर भागना है। पलायन सही उपाय नहीं है, समस्या का सामना करना चाहिए। मन में जब विकार जागेगा, तब उसे देखो, उसका सामना करो। जैसे ही आप विकार को देखना शुरू कर दोगे, वह क्षीण होता जाएगा और धीरे धीरे उसका क्षय हो जाएगा।
यह अच्छा उपाय है। दमन एवं खुली छूट की दोनो अतियों को टालता है। विकारों को अंतर्मन की गहराईयों में दबाने से उनका निर्मूलन नहीं होगा। और विकारों को अकुशल शारीरिक एवं वाचिक कर्मों द्वारा खुली छूट देना समस्याओं को और बढाना है। लेकिन अगर आप केवल देखते रहोगे, तो विकारों का क्षय हो जाएगा और आपको उससे छुटकारा मिलेगा।
कहना तो बड़ा आसान है, लेकिन करना बड़ा कठिन। अपने विकारों का सामना करना आसान नहीं है। जब क्रोध जागता है, तब इस तरह सिर पर सवार हो जाता है कि हमें पता भी नहीं चलता। क्रोध से अभिभूत होकर हम ऐसे शारीरिक एवं वाचिक काम कर जाते हैं जिससे हमारी भी हानि होती है, औरों की भी। जब क्रोध चला जाता है, तब हम रोते हैं और पछतावा करते हैं, इस या उस व्यक्ति से या भगवान से क्षमायाचना करते हैं— हमसे भूल हो गयी, हमें माफ कर दो। लेकिन जब फिर वैसी ही स्थिति का सामना करना पड़ता है तो हम वैसे ही प्रतिक्रिया करते हैं। बार-बार पश्चाताप करने से कुछ लाभ नहीं होता।
हमारी कठिनाई यह है कि जब विकार जागता है तब हम होश खो बैठते हैं। विकार का प्रजनन मानस की तलस्पर्शी गहराईयों में होता है और जब तक वह उपरी सतह तक पहुंचता है तो इतना बलवान हो जाता है कि हमपर अभिभूत हो जाता है। हम उसको देख नहीं पाते।
तो कोई प्राईवेट सेक्रेटरी साथ रख लिया जो हमें याद दिलाये, देख मालिक, तुझ में क्रोध आ गया है, तू क्रोध को देख। क्यों कि क्रोध दिन के चौबीस घंटों में कभी भी आ सकता है इसलिए तीन प्राईवेट सेक्रेटरीज् को नौकरी में रख लूं। समझ लो, रख लिए। क्रोध आया और सेक्रेटरी कहता है, देख मालिक, क्रोध आया। तो पहला काम यह करूंगा कि उसे डांट दूंगा। मूर्ख कहीं का, मुझको सिखाता है? मैं क्रोध से इतना अभिभूत हो जाता हूं कि यह सलाह कुछ काम नहीं आती।
मान लो मुझे होश आया और मैं ने उसे नहीं डांटा। मैं कहता हूं—बड़ा अच्छा कहा तूने. अब मैं क्रोध का ही दर्शन करूंगा, उसके प्रति साक्षीभाव रखूंगा। क्या यह संभव है ? जब आंख बंद कर क्रोध देखने का प्रयास करूंगा तब जिस बात को लेकर क्रोध जागा, बार-बार वही बात, वही व्यक्ती, वह ही घटना मन में आयेगी। मैं क्रोध को नहीं, क्रोध के आलंबन को देख रहा हूं। इससे क्रोध और भी ज़ादा बढेगा। यह कोई उपाय नहीं हुआ। आलंबन को काटकर केवल विकार को देखना बिल्कुल आसान नहीं होता।
लेकिन कोई व्यक्ति परम मुक्त अवस्था तक पहुंच जाता है, तो सही उपाय बताता है। ऐसा व्यक्ति खोज निकालता है कि जब भी मन में कोई विकार जागे तो शरीर पर दो घटनाएं उसी वक्त शुरू हो जाती हैं। एक, सांस अपनी नैसर्गिक गति खो देता है। जैसे मन में विकार जागे, सांस तेज एवं अनियमित हो जाता है। यह देखना बड़ा आसान है। दोन, सूक्ष्म स्तर पर शरीर में एक जीवरासायनिक प्रक्रिया शुरू हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप संवेदनाओं का निर्माण होता है। हर विकार शरीर पर कोई न कोई संवेदना निर्माण करता है।
यह प्रायोगिक उपाय हुआ। एक सामान्य व्यक्ति अमूर्त विकारों को नहीं देख सकता—अमूर्त भय, अमूर्त क्रोध, अमूर्त वासना आदि। लेकिन उचित प्रशिक्षण एवं प्रयास करेगा तो आसानी से सांस एवं शरीर पर होने वाली संवेदनाओं को देख सकता है। दोनों का ही मन के विकारों से सीधा संबंध है।
सांस एवं संवेदनाएं दो तरह से मदत करेगी। एक, वे प्राईवेट सेक्रेटरी का काम करेंगी। जैसे ही मन में कोई विकार जागा, सांस अपनी स्वाभाविकता खो देगा, वह हमे बतायेगा—देख, कुछ गडबड है! और हम सांस को डांट भी नहीं सकते। हमें उसकी चेतावनी को मानना होगा। ऐसे ही संवेदनाएं हमें बतायेगी कि कुछ गलत हो रहा है। दोन, चेतावनी मिलने के बाद हम सांस एवं संवेदनाओं को देख सकते है। ऐसा करने पर शीघ्र ही हम देखेंगे कि विकार दूर होने लगा।
यह शरीर और मन का परस्पर संबंध एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक तरफ मन में जागने वाले विचार एवं विकार हैं और दूसरी तरफ सांस एवं शरीर पर होने वाली संवेदनाएं हैं। मन में कोई भी विचार या विकार जागता है तो तत्क्षण सांस एवं संवेदनाओं को प्रभावित करता ही है। इस प्रकार, सांस एवं संवेदनाओं को देख कर हम विकारों को देख रहे हैं। पलायन नहीं कर रहे, विकारों के आमुख होकर सच्चाई का सामना कर रहे हैं। शीघ्र ही हम देखेंगे कि ऐसा करने पर विकारों की ताकत कम होने लगी, पहले जैसे वे हमपर अभिभूत नहीं होते। हम अभ्यास करते रहें तो उनका सर्वथा निर्मूलन हो जाएगा। विकारों से मुक्त होते होते हम सुख एवं शांति का जीवन जीने लग जाएंगे।
इस प्रकार आत्मनिरिक्षण की यह विद्या हमें भीतर और बाहर दोनो सच्चाईयों से अवगत कराती है। पहले हम केवल बहिर्मुखी रहते थे और भीतर की सच्चाई को नहीं जान पाते थे। अपने दुख का कारण हमेशा बाहर ढूंढते थे। बाहर की परिस्थितियों को कारण मानकर उन्हें बदलने का प्रयत्न करते थे। भीतर की सच्चाई के बारे में अज्ञान के कारण हम यह नहीं समझ पाते थे कि हमारे दुख का कारण भीतर है, वह है सुखद एवं दुखद संवेदनाओं के प्रति अंध प्रतिक्रिया।
अब, अभ्यास के कारण, हम सिक्के का दूसरा पहलू देख सकते हैं। हम सांस को भी जान सकते है और भीतर क्या हो रहा उसको भी। सांस हो या संवेदना, हम उसे मानसिक संतुलन खोये बिना देख सकते हैं। प्रतिक्रिया बंद होती है तो दुख का संवर्धन नहीं होता। उसके बजाय, विकार उभर कर आते हैं और उनकी निर्जरा होती है, क्षय होता है।
जैसे जैसे हम इस विद्या में पकते चले जांय, विकार शीघ्रता के साथ क्षय होने लगते हैं। धीरे धीरे मन विकारों से मुक्त होता है, शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त हमेशा प्यार से भरा रहता है—सबके प्रति मंगल मैत्री, औरों के अभाव एवं दुखों के प्रति करुणा, औरों के यश एवं सुख के प्रति मुदिता एवं हर स्थिति में समता।
जब कोई उस अवस्था पर पहुंचता है तो पूरा जीवन बदल जाता है। शरीर एवं वाणी के स्तर पर कोई ऐसा काम कर नहीं पायेगा जिससे की औरों की सुख-शांति भंग हो। उसके बजाय, संतुलित मन शांत हो जाता है और अपने आसपास सुख-शांति का वातावरण निर्माण करता है। अन्य लोग इससे प्रभावित होते हैं, उनकी मदत होने लगती है।
जब हम भीतर अनुभव हो रही हर स्थिति में मन संतुलित रखते हैं, तब किसी भी बाह्य परिस्थिति का सामना करते हुए तटस्थ भाव बना रहता है। यह तटस्थ भाव पलायनवाद नहीं है, ना यह दुनिया की समस्याओं के प्रति उदासीनता या बेपरवाही है। विपश्यना (Vipassana) का नियमित अभ्यास करने वाले औरों के दुखों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, एवं उनके दुखों को हटाने के लिए बिना व्याकुल हुए मैत्री, करुणा एवं समता भरे चित्त के साथ हर प्रकार प्रयत्नशील होते हैं। उनमें पवित्र तटस्थता आ जाती हैं—मन का संतुलन खोये बिना कैसे पूर्ण रूप से औरों की मदत के लिए वचनबद्ध होना। इस प्रकार औरों के सुख-शांति के लिए प्रयत्नशील होकर वे स्वयं सुखी एवं शांत रहते हैं।
भगवान बुद्ध ने यही सिखाया—जीवन जीने की कला। उन्होंने किसी संप्रदाय की स्थापना नहीं की। उन्होंने अपने शिष्यों को मिथ्या कर्म-कांड नहीं सिखाये। बल्कि, उन्होंने भीतर की नैसर्गिक सच्चाई को देखना सिखाया। हम अज्ञानवश प्रतिक्रिया करते रहते हैं, अपनी हानि करते हैं औरों की भी हानि करते हैं। जब सच्चाई को जैसी-है-वैसी देखने की प्रज्ञा जागृत होती है तो यह अंध प्रतिक्रिया का स्वभाव दूर होता है। तब हम सही क्रिया करते हैं—ऐसा काम जिसका उगम सच्चाई को देखने और समझने वाले संतुलित चित्त में होता है। ऐसा काम सकारात्मक एवं सृजनात्मक होता है, आत्महितकारी एवं परहितकारी।
आवश्यक है, खुद को जानना, जो कि हर संत पुरुष की शिक्षा है। केवल कल्पना, विचार या अनुमान के बौद्धिक स्तर पर नहीं, भावुक होकर या भक्तिभाव के कारण नहीं, जो सुना या पढा उसके प्रति अंधमान्यता के कारण नहीं। ऐसा ज्ञान किसी काम का नहीं है। हमें सच्चाई को अनुभव के स्तर पर जानना चाहिए। शरीर एवं मन के परस्पर संबंध का प्रत्यक्ष अनुभव होना चाहिए। इसी से हम दुख से मुक्ति पा सकते हैं।
अपने बारे में इस क्षण का जो सत्य है, जैसा भी है उसे ठीक वैसा ही, उसके सही स्वभाव में देखना समझना, यही विपश्यना है। भगवान बुद्ध के समय की भारत की जनभाषा में पस्सना (पश्यना / passana) कहते थे देखने को, यह जो खुली आंखों से सामान्य देखना होता है उसको। लेकिन विपस्सना (विपश्यना) का अर्थ है जो चीज जैसी है उसे वैसी उसके सही रूप में देखना, ना कि केवल जैसा उपर उपर से प्रतित होता है। भासमान सत्य के परे जाकर समग्र शरीर एवं मन के बारे में परमार्थ सत्य को जानना आवश्यक है। जब हम उस सच्चाई का अनुभव करते हैं तब हमारा अंध प्रतिक्रिया करने का स्वभाव बदल जाता है, विकारों का प्रजनन बंद होता है, और अपने आप पुराने विकारों का निर्मूलन होता है। हम दुखों से छुटकारा पाते हैं एवं सही सुख का अनुभव करने लगते हैं।
With thanks Dharma group.

Sunday, 17 March 2013

सेना में भ्रष्टाचार

विश्व की कुछ चुनिंदा सबसे तेज़, सबसे चुस्त, बहादुर और देश के प्रति विश्वसनीय सेनाओं में अग्रणी स्थान पाने वालों में से एक है । देश का सामरिक इतिहास इस बात का गवाह है कि भारतीय सेना ने युद्धों में वो वो लडाई सिर्फ़ अपने जज़्बे और वीरता के कारण जीत ली जो दुश्मन बडे आधुनिक अस्त शस्त्र से भी नहीं जीत पाए।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से , बडे शस्त्र आयात निर्यात में , आयुध कारागारों में संदेहास्पद अगिनकांडों की शृंखला, पुराने यानों के चालन से उठे सवाल और जाने ऐसी कितनी ही घटनाएं, दुर्घटनाएं और अपराधिक कृत्य सेना ने अपने नाम लिखवाए हैं और अब भी कहीं न कहीं ये सिलसिला ज़ारी है वो इस बात का ईशारा कर रहा है कि अब स्थिति पहले जैसी नहीं है। कहीं कुछ बहुत ही गंभीर चल रहा है। सबसे दुखद और अफ़सोसजनक बात ये है कि अब तक सेना से संबंधित अधिकांश भ्रष्टाचार और अपराध सेना के उच्चाधिकारियों के नाम ही रहा है। आज सेना के अधिकारियों को तमाम सुख सुविधाएं मौजूद होने के बावजूद भी , सेना में भरती , आयुध , वर्दी एवं राशन की सप्लाई तक में बडी घपले और घोटालेबाजी के सबूत , पुरस्कार और प्रोत्साहन के लिए फ़र्जी मुठभेडों की सामने आई घटनाएं आदि यही बता और दर्शा रही हैं कि भारतीय सेना में भी अब वो लोग घुस चुके हैं जिन्होंने वर्दी देश की सुरक्षा के लिए नहीं पहनी है । आज सेना में हथियार आपूर्ति , सैन्य सामग्री आपूर्ति ,खाद्य राशन पदार्थों की आपूर्ति और ईंधन आपूर्ति आदि सब में बहुत सारे घपले घोटाले किए जा रहे हैं और इसमें उनका भरपूर साथ दे रहे हैं सैन्य एवं रक्षा विभागों से जुडे हुए सारे भ्रष्ट लोग । इन सबके छुपे ढके रहने का एक बडा कारण है देश की आंतरिक सुरक्षा से जुडा होने के कारण इन सूचनाओं का अति संवेदनशील होना और इसलिए ये सूचनाएं पारदर्शी नहीं हो पाती हैं , लेकिन ऐसा नहीं है कि की नहीं जा सकतीं । यदि तमाम ठेकों और शस्त्र वाणिज्य डीलों को जनसाधारण के लिए रख दिया जाए तो बहुत कुछ छुपाने की गुंजाईश खत्म हो जाएगी।

Saturday, 16 March 2013

आर्थिक विकास में बाधक भ्रष्टाचार व असमानता

भारत के महाशक्ति बनने की सम्भावना का आकलन अमरीका एवं चीन की तुलना से किया जा सकता है। महाशक्ति बनने की पहली कसौटी तकनीकी नेतृत्व है। अठारहवीं सदी में इंग्लैण्ड ने भाप इंजन से चलने वाले जहाज बनाये और विश्व के हर कोने में अपना आधिपत्य स्थापित किया। बीसवीं सदी में अमरीका ने परमाणु बम से जापान को और पैट्रियट मिसाइल से इराक को परास्त किया। यद्यपि अमरीका का तकनीकी नेतृत्व जारी है परन्तु अब धीरे-धीरे यह कमजोर पड़ने लगा है। वहां नई तकनीकी का आविष्कार अब कम ही हो रहा है। भारत से अनुसंधान का काम भारी मात्रा में 'आउटसोर्स' हो रहा है जिसके कारण तकनीकी क्षेत्र में भारत का पलड़ा भारी हुआ है। तकनीक के मुद्दे पर चीन पीछे है। वह देश मुख्यत: दूसरों के द्वारा ईजाद की गयी तकनीकी पर आश्रित है।
दूसरी कसौटी श्रम के मूल्य की है। महाशक्ति बनने के लिये श्रम का मूल्य कम रहना चाहिये। तब ही देश उपभोक्ता वस्तुओंका सस्ता उत्पादन कर पाता है और दूसरे देशों में उसका उत्पाद प्रवेश पाता है। चीन और भारत इस कसौटी पर अव्वल बैठते हैं जबकि अमरीका पिछड़ रहा है। विनिर्माण उद्योग लगभग पूर्णतया अमरीका से गायब हो चुका है। सेवा उद्योग भी भारत की ओर तेजी से रुख कर रहा है। अमरीका के वर्तमान आर्थिक संकट का मुख्य कारण अमरीका में श्रम के मूल्य का ऊंचा होना है।
तीसरी कसौटी शासन के खुलेपन की है। वह देश आगे बढ़ता है जिसके नागरिक खुले वातावरण में उद्यम से जुड़े नये उपाय क्रियान्वित करने के लिए आजाद होते हैं। बेड़ियों में जकड़े हुये अथवा पुलिस की तीखी नजर के साये में शोध, व्यापार अथवा अध्ययन कम ही पनपते हैं। भारत और अमरीका में यह खुलापन उपलब्ध है। चीन इस कसौटी पर पीछे पड़ जाता है। वहां नागरिक की रचनात्मक ऊर्जा पर कम्युनिस्ट पार्टी का नियंत्रण है।
चौथी कसौटी भ्रष्टाचार की है। सरकार भ्रष्ट हो तो जनता की ऊर्जा भटक जाती है। देश की पूंजी का रिसाव हो जाता है। भ्रष्ट अधिकारी और नेता धन को स्विट्जरलैण्ड भेज देते हैं। इस कसौटी पर अमरीका आगे है। 'ट्रान्सपेरेन्सी इंटरनेशनल' द्वारा बनाई गयी रैंकिंग में अमरीका को १९वें स्थान पर रखा गया है जबकि चीन को ७९वें तथा भारत का ८४वां स्थान दिया गया है।
पांचवीं कसौटी असमानता की है। गरीब और अमीर के अन्तर के बढ़ने से समाज में वैमनस्य पैदा होता है। गरीब की ऊर्जा अमीर के साथ मिलकर देश के निर्माण में लगने के स्थान पर अमीर के विरोध में लगती है। इस कसौटी पर अमरीका आगे और भारत व चीन पीछे हैं। चीन में असमानता उतनी ही व्याप्त है जितनी भारत में, परन्तु वह दृष्टिगोचर नहीं होती है क्योंकि पुलिस का अंकुश है। फलस्वरूप वह रोग अन्दर ही अन्दर बढ़ेगा जैसे कैन्सर बढ़ता है। भारत की स्थिति तुलना में अच्छी है क्योंकि यहाँ कम से कम समस्या को प्रकट होने का तो अवसर उपलब्ध है।

तनाव से मुक्ति का भारतीय मंत्र: योग

तनाव की वजहें बहुत, निदान सिर्फ एक और वह है ध्यान।  इसका महत्व अब लगभग सभी को पता है और इसकी सैकडों विधियां भी अलग-अलग समुदायों की ओर से बताई जा चुकी हैं। फिर भी मुश्किल है।
गर्मियों की सुबह
सबसे बडी मुश्किल यह है कि करें कैसे? समय तो किसी के पास है नहीं! रोजमर्रा के कामकाज में ही इतना वक्त निकल जाता है कि चुप होकर आधे घंटे बैठना भी संभव नहीं रह गया। लेकिन वास्तव में समय निकालना इतना मुश्किल है नहीं। वो कहते हैं न, जहां चाह वहां राह!अगर आप भी ऐसा महसूस करते हैं तो तैयार हो जाएं। अब आपके लिए बिलकुल सही समय आ गया है। सखी आपके लिए लाई है एक ऐसी विधा जिसके लिए न तो आपको अलग से समय निकालने की जरूरत होगी और न ही कोई मुश्किल। बस एक बार ठान लेने की जरूरत है। गर्मियों का यह समय इस प्रयोग के लिए सबसे मुफीद है। इन दिनों दिन तो बडा होता ही है, सुबह उठने में कोई मुश्किल भी नहीं होती। जैसा कि ठंड के दिनों में आलस के कारण होता है।
यूं तो इस विधा की खूबी यही है कि यह प्रयोग आप जब, जहां और जैसे भी हैं, उसी अवस्था में कर सकते हैं। इसके लिए अलग से कुछ करने की जरूरत नहीं है। ओशो ने इसे नाम दिया है विपस्सना। असल में ध्यान का अर्थ कुछ और नहीं, सिर्फ होश है। आप जो कुछ भी करें सब कुछ करते हुए अपना होश बनाए रखें। अपनी ही आती-जाती सांसों के प्रति, अपने प्रत्येक कार्य के प्रति. चाहे चलना हो या खाना, या फिर व्यावसायिक कामकाज या मनोरंजन ही क्यों न हो, अपनी हर गतिविधि के प्रति होश बनाए रखें। अपने विचारों के प्रति साक्षी भाव बनाए रखें। जो भी आ रहा है या जा रहा है, चाहे वह क्रोध हो या भय या प्रेम या फिर कोई और आवेग या विचार, सबको आते-जाते सिर्फदेखते रहें। उस पर कोई प्रतिक्रिया न करें।
होश बनाए रखें
शुरुआती दौर में निरंतर ध्यान बनाए रखना थोडा मुश्किल हो सकता है। इसके लिए बेहतर होगा कि सुबह-सुबह थोडा समय निकालें। अगर आप मॉर्निग वॉक के लिए निकलते ही हैं तब तो अलग से कुछ करना ही नहीं है। सिर्फइतना करना होगा कि जो आप पहले से कर ही रहे हैं, बस उसी के प्रति होश बना लें। अगर नहीं निकलते तो इन गर्मियों में थोडे दिनों के लिए यह आदत डालें।
गर्मी के दिन इसके लिए इसलिए भी बेहतर हैं कि जाडे की तरह गर्म कपडों का अतिरिक्त बोझ शरीर पर नहीं होगा। शरीर जितना हल्का होता है, ध्यान के लिए उतना ही सुविधाजनक होता है। पार्क में या कहीं भी जब आप मॉर्निग वॉक के लिए निकलें तो बहुत धीमी गति से चलें और चलते हुए अपने चलने के प्रति होश बनाए रखें। यह न सोचें कि आप चल रहे हैं, बल्कि अपने को चलते हुए देखें, ऐसे जैसे कोई और चल रहा हो। इसे बुद्धा वॉकिंग कहते हैं। यह सिर्फ 20 मिनट आपको करना है। फिर धीरे-धीरे यह अपने आप सध जाएगा।

मानसिक तनाव से मुक्ति

मानसिक तनाव जब अत्यधिक बढ़ जाय तब व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने तनाव की चर्चा अपने विश्वास पात्र व्यक्ति से करे, उन विश्वास योग्य व्यक्तियों में आपकी पत्नी या पति, मित्र-हितौषी आदि कोई भी निकटतम सम्बन्धी हो सकता है।
:- मानसिक तनाव में सो जाना भी तनाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नींद पूरी होने पर व्यक्ति नये सिरे से अपनी समस्या का समाधान खोजने के योग्य हो जाता है।
:- एक साथ कई समस्याएं उत्पन्न होने से मानसिक तनाव बढ़ जाता है, इसलिए आवश्यक है कि आप अपनी समस्त समस्याओं का एक साथ समाधान करने के विपरीत एक-एक करके अपनी समस्याओं का समाधान करें।
:- कभी-कभी तनाव का कारण विपरीत परिस्थितियों को अपने बस में करने के कारण होता है, अत: याद रखें जो स्थिति बदली नहीं जा सकती उसे बदलने का प्रयास न करें, विपरीत परिस्थितियों को सहर्ष स्वीकार करें।
:- मानसिक तनाव प्राय: बड़ी महत्वाकांक्षाओं के कारण भी उत्पन्न होता है, इसलिए आवश्यक है कि अपनी वास्तविक स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए अपनी महत्वाकांक्षाओं को सीमित रखें।

Friday, 15 March 2013

संचार माध्यमों (मीडिया) का भ्रष्टाचार

2जी स्पेक्‍ट्रम घोटाला मामला ने देश में भ्रष्टाचार को लेकर एक नई इबादत लिख दी। इस पूरे मामले में जहां राजनीतिक माहौल भ्रष्टाचार की गिरफ्त में दिखा वहीं लोकतंत्र का प्रहरी मीडिया भी राजा के भ्रष्टाचार में फंसा दिखा। राजा व मीडिया के भ्रष्टाचार के खेल को मीडिया ने ही सामने लाय। हालांकि यह पहला मौका नहीं है कि मीडिया में घुसते भ्रष्टचार पर सवाल उठा हो! मीडिया को मिशन समझने वाले दबी जुबां से स्वीकारते हैं कि नीरा राडिया प्रकरण ने मीडिया के अंदर के उच्च स्तरीय कथित भ्रष्टाचार को सामने ला दिया है और मीडिया की पोल खोल दी है।
हालांकि, अक्सर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन छोटे स्तर पर। छोटे-बडे़ शहरों, जिलों एवं कस्बों में मीडिया की चाकरी बिना किसी अच्छे मासिक तनख्वाह पर करने वाले पत्रकारों पर हमेशा से पैसे लेकर खबर छापने या फिर खबर के नाम पर दलाली के आरोप लगते रहते हैं। खुले आम कहा जाता है कि पत्रकरों को खिलाओ-पिलाओ-कुछ थमाओं और खबर छपवाओ। मीडिया की गोष्ठियों में, मीडिया के दिग्गज गला फाड़ कर, मीडिया में दलाली करने वाले या खबर के नाम पर पैसा उगाही करने वाले पत्रकारों पर हल्ला बोलते रहते
लोकतंत्र पर नजर रखने वाला मीडिया भ्रष्टाचार के जबड़े में है। मीडिया के अंदर भ्रष्टाचार के घुसपैठ पर भले ही आज हो हल्ला हो जाये, यह कोई नयी बात नहीं है। पहले निचले स्तर पर नजर डालना होगा। जिलों/कस्बों में दिन-रात कार्य करने वाले पत्रकार इसकी चपेट में आते हैं, लेकिन सभी नहीं। अभी भी ऐसे पत्रकार हैं, जो संवाददाता सम्मेलनों में खाना क्या, गिफ्ट तक नहीं लेते हैं। संवाददाता सम्मेलन कवर किया और चल दिये। वहीं कई पत्रकार खाना और गिफ्ट के लिए हंगामा मचाते नजर आते हैं।
वहीं देखें, तो छोटे स्तर पर पत्रकारों के भ्रष्ट होने के पीछे सबसे बड़ा मुद्दा आर्थिक शोषण का आता है। छोटे और बड़े मीडिया हाउसों में 15 सौ रूपये के मासिक पर पत्रकारों से 10 से 12 घंटे काम लिया जाता है। उपर से प्रबंधन की मर्जी, जब जी चाहे नौकरी पर रखे या निकाल दे। भुगतान दिहाड़ी मजदूरों की तरह है। वेतन के मामले में कलम के सिपाहियों का हाल, सरकारी आदेशपालों से भी बुरा है। ऐसे में यह चिंतनीय विषय है कि एक जिले, कस्बा या ब्‍लॉक का पत्रकार, अपनी जिंदगी पानी और हवा पी कर तो नहीं गुजारेगा? लाजमी है कि खबर की दलाली करेगा? वहीं पर कई छोटे-मंझोले मीडिया हाउसों में कार्यरत पत्रकारों को तो कभी निश्चित तारीख पर तनख्वाह तक नहीं मिलती है। छोटे स्तर पर कथित भ्रष्ट मीडिया को तो स्वीकारने के पीछे, पत्रकारों का आर्थिक कारण, सबसे बड़ा कारण समझ में आता है, जिसे एक हद तक मजबूरी का नाम दिया जा सकता है।

भ्रष्टाचार और स्विस बैंक

भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा" - ये कहना है स्विस बैंक के डाइरेक्टर का. स्विस बैंक के डाइरेक्टर ने यह भी कहा है कि भारत का लगभग 280 लाख करोड़ रुपये उनके स्विस बैंक में जमा है . ये रकम इतनी है कि भारत का आने वाले 30 सालों का बजट बिना टैक्स के बनाया जा सकता है.
या यूँ कहें कि 60 करोड़ रोजगार के अवसर दिए जा सकते है. या यूँ भी कह सकते है कि भारत के किसी भी गाँव से दिल्ली तक 4 लेन रोड बनाया जा सकता है.
ऐसा भी कह सकते है कि 500 से ज्यादा सामाजिक प्रोजेक्ट पूर्ण किये जा सकते है. ये रकम इतनी ज्यादा है कि अगर हर भारतीय को 2000 रुपये हर महीने भी दिए जाये तो 60 साल तक ख़त्म ना हो. यानी भारत को किसी वर्ल्ड बैंक से लोन लेने कि कोई जरुरत नहीं है. जरा सोचिये ... हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और नोकरशाहों ने कैसे देश को लूटा है और ये लूट का सिलसिला अभी तक 2011 तक जारी है.
इस सिलसिले को अब रोकना बहुत ज्यादा जरूरी हो गया है. अंग्रेजो ने हमारे भारत पर करीब 200 सालो तक राज करके करीब 1 लाख करोड़ रुपये लूटा.
मगर आजादी के केवल 64 सालों में हमारे भ्रस्टाचार ने 280 लाख करोड़ लूटा है. एक तरफ 200 साल में 1 लाख करोड़ है और दूसरी तरफ केवल 64 सालों में 280 लाख करोड़ है. यानि हर साल लगभग 4.37 लाख करोड़, या हर महीने करीब 36 हजार करोड़ भारतीय मुद्रा स्विस बैंक में इन भ्रष्ट लोगों द्वारा जमा करवाई गई है.
भारत को किसी वर्ल्ड बैंक के लोन की कोई दरकार नहीं है. सोचो की कितना पैसा हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और उच्च अधिकारीयों ने ब्लाक करके रखा हुआ है!
विकिपीडिया से कुछ अंश लिए गए।

महाशक्ति के रूप में भारत का भविष्य

राजनीतिक पार्टियों का मूल उद्देश्य सत्ता पर काबिज रहना है। इन्होंने युक्ति निकाली है कि गरीब को राहत देने के नाम पर अपने समर्थकों की टोली खड़ी कर लो। कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए भारी भरकम नौकरशाही स्थापित की जा रही है। सरकारी विद्यालयों एवं अस्पतालों का बेहाल सर्वविदित है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में ४० प्रतिशत माल का रिसाव हो रहा है। मनरेगा के मार्फत्‌ निकम्मों की टोली खड़ी की जा रही है। १०० रुपये पाने के लिये उन्हें दूसरे उत्पादक रोजगार छोड़ने पड़ रहे हैं। अत: भ्रटाचार और असमानता की समस्याओं को रोकने में हम असफल हैं। यही हमारी महाशक्ति बनने में रोड़ा है।
उपाय है कि तमाम कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त करके बची हुयी रकम को प्रत्येक मतदाता को सीधे रिजर्व बैंक के माध्यम से वितरित कर दिया जाये। प्रत्येक परिवार को कोई २००० रुपये प्रति माह मिल जायेंगे जो उनकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति को पर्याप्त होगा। उन्हें मनरेगा में बैठकर फर्जी कार्य का ढोंग नहीं रचना होगा। वे रोजगार करने और धन कमाने को निकल सकेंगे। कल्याणकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रटाचार स्वत: समाप्त हो जायेगा। इस फार्मूले को लागू करने में प्रमुख समस्या राजनीतिक पार्टियों का सत्ता प्रेम है। सरकारी कर्मचारियों की लॉबी का सामना करने का इनमें साहस नहीं है। सारांश है कि भारत महाशक्ति बन सकता है यदि राजनीतिक पार्टियों द्वारा कल्याणकारी कार्यक्रमों में कार्यरत सरकारी कर्मचारियों की बड़ी फौज को खत्म किया जाये। इन पर खर्च की जा रही रकम को सीधे मतदाताओं को वितरित कर देना चाहिये। इस समस्या को तत्काल हल न करने की स्थिति में हम महाशक्ति बनने के अवसर को गंवा देंगे।
यह सच है कि भारत महाशक्ति बनने के करीब है परन्तु हम भ्रष्टाचार की वजह से इस से दूर होते जा रहे है। भारत के नेताओ को जब अपने फालतू के कामो से फुरसत मिले तब ही तो वो इस सम्बन्ध मे सोच सकते है उन लोगो को तो फ्री का पैसा मिलता रहे देश जाये भाड मे।भारत को महाशक्ति बनने मे जो रोडा है वो है नेता। युवाओ को इस के लिये इनके खिलाफ लडना पडेगा,आज देश को महाशक्ति बनाने के लिये एक महाक्रान्ति की जरुरत है,क्योकि बदलाव के लिये क्रान्ति की ही आवश्यकता होती है लेकिन इस बात का ध्यान रखना पडेगा की भारत के रशिया जैसे महाशक्तिशाली देश की तरह टुकडे न हो जाये,अपने को बचाने के लिये ये नेता कभी भी रुप बदल सकते है।
Annu
विकिपीडिया से कुछ अंश लिए गए।

Wednesday, 13 March 2013

बढ़ते बच्चे और उनकी देख रेख

पैदा होते ही बच्चों की इंद्रियाँ काम करने लगती हैं, इसलिए उसके आसपास जो कुछ भी होता है, उसका प्रभाव बच्चे पर पड़ता है और बड़े होने पर यह उसके व्यक्तित्व पर भी प्रभाव डालता है, इसलिए सबसे पहले माता-पिता को बच्चों के सामने अपने व्यवहार का ध्यान रखना चाहिए।

फिर जैसे-जैसे बच्चा बड़ा हो, उसकी सुनने, पढ़ने और पहचानने की शक्ति को बढ़ाने और उसकी आवश्यक क्षमताओं को भी विकसित करने के लिए ये उपाय भी आजमाए जा सकते हैं -

1. जब भी बातचीत में कोई नया शब्द इस्तेमाल करें तो बच्चे को इसका अर्थ जरूर समझाएँ और उसे वो शब्द इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करें।

2. टीवी पर बच्चे के साथ जानकारीपरक के बारे में समझाएँ, जो आपने देखा है और उसकी बच्चे के साथ चर्चा भी करें।

3. बच्चे के साथ वीडियो गेम्स खेलें, ताकि उसमें अपनी दृष्टि को केंद्रि‍त करने की शक्ति बढ़े।

4. दिन में हुई किसी भी घटना को डिनर पर बच्चे के साथ शेयर करें। बच्चे को भी अपने स्कूल और मित्रों की बातें शेयर करने के लिए प्रोत्साहित करें। 
आप उसे किताबों के आश्चर्य के बारे में पढ़ाएँ,

लेकिन उसे इतना समय भी दें कि वह आसमान में उड़ती चिड़िया के,

धूप में उड़ती मधुमक्खियों के और हरे पर्वतों पर खिले फूलों के शाश्वत रहस्यों के बारे में सोच सके,

ये पंक्तियाँ 19वीं सदी में लिखे गए अमेरिका के महान राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन के पत्र की हैं। इस पत्र में लिंकन ने जीवन के विविध पक्षों को छुआ था, जिनके बारे में बताए जाने की अपेक्षा उन्होंने अपने बच्चे के स्कूल शिक्षक से की थी। 


Manoj kumar 

Saturday, 9 March 2013

खाप पंचायत का आखिर खौफ क्यों?

सामाजिक मूल्यों और मान-मर्यादा की रक्षा के नाम पर खाप पंचायतें जब-तब मनमाने फरमान जारी करती रही हैं। उनके इस रवैए को लेकर कई बार अदालतें फटकार लगा चुकी हैं। मगर उन पर कोई असर हुआ हो, ऐसा नहीं लगता। इसका ताजा उदाहरण बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के बहाने लड़कियों के लिए जारी उनका निर्देश है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश और हरियाणा की कुछ खाप पंचायतों ने हुक्म दिया कि लड़कियां मोबाइल फोन लेकर न चलें। उनके पहनावे को लेकर भी इन पंचायतों ने कुछ मानक तय किए हैं। खाप पंचायतों के ऐसे बेतुके आदेशों के खिलाफ दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उकत्तर प्रदेश और हरियाणा की विभिन्न खाप पंचायतों के प्रमुखों और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को तलब किया था। लड़कियों के मोबाइल फोन इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगाने जैसे फैसले को अदालत ने गैर-कानूनी करार दिया है। उसने कहा कि इस तरह कोई व्यक्ति किसी के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर सकता। अदालत ने खाप पंचायतों के समांतर अदालत चलाने पर भी फटकार लगाई है। देखना है, इससे स्त्रियों के प्रति खाप पंचायतों के नेताओं के व्यवहार में कितना बदलाव आ पाता है। अंतरजातीय या फिर एक ही गोत्र में विवाह करने वाले जोड़ों की हत्याओं के मामले में जातीय पंचायतों ने अदालत के सामने यह साबित करने की कोशिश की कि वे उन मामलों में प्रत्यक्ष रूप से भागीदार नहीं थीं। मगर पूछा जाना चाहिए कि क्या वे ऐसा दकियानूस और कट््टर माहौल बनाने में अपनी भूमिका से भी इनकार कर सकती हैं? अगर ऐसे विवाहों के खिलाफ वे खड़ी न होतीं तो किसी युगल के घर-गांव छोड़ कर भागने, पुलिस से सुरक्षा की गुहार लगाने या अदालत की शरण लेने की नौबत क्यों आती?
खाप पंचायतों के ऐसे रवैए पर सर्वोच्च न्यायालय पहले भी कई बार फटकार लगा चुका है। मगर उनके खिलाफ कड़े कदम नहीं उठाए जा सके तो इसकी कुछ वजहें जाहिर हैं। अपने इलाकों में इन पंचायतों का दबदबा इस कदर बढ़ चुका है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी उनके खिलाफ खड़ा होना तो दूर, उनकी आलोचना से भी बचती है। बल्कि कई स्थानीय राजनीतिक उनके साथ नजर आते हैं। पुलिस का रवैया भी अक्सर इससे अलग नहीं होता। यहां एक सवाल उन नागरिक अधिकारों का है जिनकी गारंटी संविधान ने दी हुई है। इन अधिकारों से किसी को वंचित करना एक गैर-कानूनी कृत्य है। दूसरा सवाल स्त्रियों के खिलाफ होने वाले अपराधों को लेकर गलत धारणाएं फैलाने की कोशिशों से जुड़ा है। यह समझना मुश्किल है कि पास में मोबाइल फोन रखने से किसी लड़की के लिए असुरक्षा का खतरा कैसे पैदा होता है? जबकि इस साधन के जरिए वह अपने परिजनों और पुलिस को फौरन सूचित कर किसी संकट से उबरने की उम्मीद कर सकती है? ऐसा लगता है कि मोबाइल फोन की मनाही के पीछे असल इरादा लड़के-लड़कियों के संपर्क को हतोत्साहित करना है। हरियाणा में पिछले डेढ़-दो महीनों में बलात्कार की कई घटनाएं हुर्इं। इनमें से ज्यादातर मामलों में पीड़ित दलित समुदाय की थीं। उन घटनाओं पर किस पंचायत की चिंता दिखी? जो लोग यौन हिंसा से जुड़े सामाजिक कारकों और पुलिस-प्रशासन की उदासीनता को नजरअंदाज कर पहनावे आदि का सवाल उठा रहे हैं, दरअसल वे देश भर में उठी बहस को गलत दिशा में मोड़ना चाहते हैं।

Mamta Maurya

Thursday, 7 March 2013

सफ़ेद पर लालबत्ती का मोह

अमूमन सभी राजनीतिक दलों के अनेक नेताओं के वाहनों पर लालबत्ती लगी दिख जाती है या फिर वे पुलिसकर्मियों से घिरे दिखते हैं। इसके पीछे दलील यह होती है कि चूंकि वे अतिमहत्त्वपूर्ण श्रेणी में गिने जाते हैं, इसलिए उनके लिए सुरक्षा के खास इंतजाम जरूरी हैं। लेकिन ऐसे कई नेताओं को भी ये सुविधाएं मुहैया करा दी जाती हैं, जिन्हें इनकी जरूरत नहीं होती या जो इनके हकदार नहीं होते। नतीजा यह है कि अगर लालबत्ती लगी गाड़ियों की तादाद बढ़ते जाने से यातायात में रुकावटें बढ़ी हैं। सुरक्षाकर्मियों से घिरे होना हैसियत के आडंबर का प्रतीक हो गया है। यह स्थिति आम लोगों और शासन-प्रशासन के बीच बढ़ती दूरी को ही प्रतिबिंबित करती है और इसे कतई जनतांत्रिक राज-काज के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। लालबत्ती और वीआइपी सुरक्षा का तामझाम जहां प्रशासन के लिए बोझ साबित होता है वहीं इससे जन-सामान्य के सुरक्षा इंतजामों पर नकारात्मक असर पड़ता है। इसलिए एक याचिका की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही इस व्यवस्था पर सवाल उठाया है। अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों से कहा है कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, मुख्य न्यायाधीश आदि के लिए तो यह सुविधा जरूरी है, लेकिन अन्य बहुत-से लोगों को यह किस दलील पर मुहैया कराई जा रही है? इसके जवाब में महाधिवक्ता ने दलील दी कि यह व्यवस्था संबंधित व्यक्तियों की जान पर जोखिम और उनकी सुरक्षा पर आधारित होनी चाहिए। लेकिन उनकी यह राय सच से शायद बहुत दूर है। पिछले साल वाम दलों को छोड़ कर लगभग सभी राजनीतिक दलों के बहुतेरे सांसदों ने बाकायदा हस्ताक्षर के साथ याचिका देकर इस सुविधा की मांग करते हुए कहा था.
कि इससे सड़कों पर उनका समय जाया नहीं होगा। उनका यह भी मानना था कि लालबत्ती वाली गाड़ी के बगैर अपने निर्वाचन क्षेत्र में जाने पर उन्हें शर्मिंदगी का अहसास होता है। संसद की एक समिति ने भी लालबत्ती की सुविधा दिए जाने के मामले में सांसदों को दिए गए इक्कीसवें नंबर के दरजे पर नाराजगी जताते हुए उनके वाहनों पर लालबत्ती लगाने की इजाजत देने की सिफारिश की थी।
इस तरह की विशेष सुविधाएं जरूरत के बजाय अपनी ‘विशिष्ट’ सामाजिक हैसियत को दर्शाने का एक जरिया बनती गई हैं। अतिविशिष्ट कहे जाने वाले या खुद को ऐसा मानने वाले ज्यादातर लोग केवल रुतबे और सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में अपना प्रभाव दर्शाने के मकसद से अपनी गाड़ी पर लालबत्ती लगाना चाहते हैं। खुद को सुरक्षाकर्मियों से घिरे दिखाने के पीछे भी यही चाहत रहती है। इसी प्रवृत्ति का नतीजा है कि आज बड़ी तादाद में पुलिसकर्मी या राष्ट्रीय सुरक्षा गारद जैसे उच्चस्तर के सुरक्षाकर्मी राजनीतिक दलों के नेताओं की हिफाजत में तैनात कर दिए गए हैं। इसका सीधा असर सामान्य सुरक्षा माहौल पर पड़ता है। गौरतलब है कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे कई देशों में केवल संवैधानिक प्रमुखों को सरकारी खर्च पर सुरक्षा मुहैया कराई जाती है। लेकिन हमारे यहां कुछ राज्यों में तो हालत यह है कि मुखिया या सरपंच भी लालबत्ती लगी और काले शीशे वाली गाड़ी में बेधड़क सफर करते हैं और उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। सवाल है कि हमारे जो नेता अपने वाहनों पर लालबत्ती लगाने या आधुनिक स्वचालित हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मियों से घिरे रहने जैसे रसूख दर्शाने वाले प्रतीकों को लेकर लालायित रहते हैं, क्या उन्हें कभी उन लोगों की भी सुरक्षा की फिक्र सताती है जिनका प्रतिनिधित्व करने का वे दावा करते हैं?

Virendra Kushwaha
जनसत्ता से प्रेरित साभार

संध लोक सेवा आयोग और उसका बढ़ता अंग्रेजी प्रेम

सोते रहिए... संघ लोक सेवा आयोग ने धीरे से अंग्रेजी को अनिवार्य ही नहीं बनाया, किसी भारतीय भाषा को पास करने की जरूरत भी खत्म कर दी। अंग्रेजी की परीक्षा के नंबर अब मेरिट में भी जुड़ेंगे। पहले अंग्रेजी के साथ-साथ किसी एक भारतीय भाषा में न्यूनतम अंक प्राप्त करना होता था और नंबर मेरिट में नहीं जुड़ते थे।
ताजा फैसले के बाद आईएएस, आईपीएस की लिस्ट में कान्वेंटियों की भरमार होगी जबकि भारतीय भाषाओं से पढ़े लिखे टुकुर टुकुर निहारेंगे।...अजीब बात है, इस मुद्दे पर शिवसेना जैसी पार्टी ही मुखर है, जबकि हिंदी का झंडा उठाने वाले मुलायम से लेकर नीतीश कुमार तक चुप हैं। ये फैसला दलितों के लिए भी बड़ी मुश्किल पैदा करेगा, लेकिन मायावती से भी उम्मीद नहीं। उम्मीद तो वामपंथियों से भी नहीं, जिनके लिए हिंदी कभी मुद्दा नहीं रही। हिंदी बुद्धिजीवियों, आलोचकों, पत्रकारों, साहित्यकारों में भी कोई सुगबुगाहट नहीं दिख रही है।... इस आत्महीनता को भांपकर ही शायद मनमोहन सिंह में हिम्मत आई थी कि वे आक्सफोर्ड जाकर अंग्रेजी सिखाने के लिए अंग्रेजों को शुक्रिया अदा करें.....कभी-कभी तो लगता है कि हिंदी को भी एक अदद राज ठाकरे की जरूरत है...मित्रों को छूट है कि इसके लिए मुझे जी भर कर गाली दें...बुरा नहीं मानूंगा..

Wednesday, 6 March 2013

उफ़ ये मरता किशान

सवाल उठता है कि राज्य के किसान आखिर क्या करें? सरकार की मदद और अपनी मेहनत के बल पर किसानों ने धान के रूप में खेतों से सोना पैदा किया। अब उसी सोने को वे माटी के मोल बेचने को परेशान हैं। सरकार दावा कर रही है कि किसानों से वाजिब दाम पर धान की खरीद हो रही है। राज्य का खाद्य एवं उपभोक्ता संरक्षण मंत्रालय दो-चार दिन के अंतराल पर रिकार्ड खरीद का दावा कर देता है। अभी दो दिन पहले ही विभागीय मंत्री ने दावा किया कि फरवरी के अंतिम दिन तक करीब 10 लाख मीट्रिक टन धान की खरीद हो चुकी है। कुछ देर के लिए मंत्री के दावे को सही मान लें तब भी मामला अधिक उत्साहजनक नहीं लगता। इसलिए कि धान खरीद का कुल लक्ष्य 30 लाख मीट्रिक टन से अधिक है और करीब डेढ़ महीने से खरीद हो रही है। इसी गति से खरीद जारी भी रही तो लक्ष्य पूरा करने में कम से कम तीन महीने और लगेंगे। इसी दौर में गेहूं की फसल भी तैयार होकर आ जाएगी। धान की खरीद में फिसड्डी महकमा गेहूं की खरीद में कितनी तेजी दिखा पाएगा, इसे आसानी से समझा जाएगा। असल में राजधानी में बैठे विभाग के जिम्मेवार लोग कागज-पत्तर और लिखा-पढ़ी पर अधिक भरोसा कर रहे हैं। स्थानीय इकाइयां कागज पर लिखकर फैक्स कर देती हैं कि धान की खरीद हो गई। हाकिम भी भरोसा कर लेते हैं। मगर जमीन पर हकीकत जानने या किसानों की शिकायतों पर गंभीर रुख अपनाने की कोशिश नहीं होती है। आप देखें कि किसानों की शिकायतें किस स्तर की हैं। पहली शिकायत यह कि धान बेचने के लिए उन्हें मिन्नतें करनी पड़ती हैं। संबंधित लोगों को खुश करना पड़ता है। वे खुश तो होते हैं, पर बाद में अधिक खुश होना चाहते हैं। उनकी इस खुशी के लिए किसानों को समर्थन मूल्य से समझौता करना पड़ता है। यह समर्थन मूल्य साढ़े बारह सौ रुपया प्रति कुंतल निर्धारित है।
किसान बताते हैं उदारवादी साहब कुछ कम कीमत पर धान बेच देने पर खुश हो जाते हैं। जबकि बड़े पेट वाले की खुशी और अधिक कम कीमत पर धान बेचने पर आती है। इतनी मशक्कत के बाद उन्हें चेक दिया जाता है। चेक का भुगतान लेना भी आसान नहीं है। पिछले 28 फरवरी को ही विधानसभा में सत्तारूढ़ दल के एक सदस्य ने कहा कि किसानों को दिए गए चेक बाउंस हो रहे हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खेती-किसानी पर बहुत जोर दे रहे हैं। कृषि रोड मैप भी बना है। मगर बिचौलिए सरकार के किए पर पानी फेरने का मौका हाथ से नहीं जाने दे रहे हैं। वैसे इन बिचौलियों की भूमिका को खत्म करना मुश्किल नहीं है।

Virendra Kushwaha

सिविल सेवा परीक्षा-2013 की मुख्य परीक्षा योजना में परिवर्तन

संघ लोक सेवा आयोग ने सिविल सेवा परीक्षा-2013 की मुख्य परीक्षा योजना {लिखित परीक्षा (मुख्य) और साक्षात्कार/व्यक्तित्व परीक्षा} में परिवर्तन किया है. इस परिवर्तन के आधार पर अब लिखित (मुख्य) परीक्षा में सामान्य अध्ययन के प्रश्नपत्र दो से बढ़ाकर चार कर दिए गए है. साथ ही  वैकल्पिक विषयों को दो से घटाकर एक कर दिया गया है. जिसमें केवल एक विषय (प्रश्नपत्र I&II) होगा. सामान्य अध्ययन के पूर्णांक को 600 अंक से बढ़ाकर 1000 अंक और वैकल्पिक विषयों के कुल अंक 1200 को घटाकर 500 का कर दिया गया है. साक्षात्कार/व्यक्तित्व परीक्षा का अंक भी 300 से घटाकर 275 कर दिया गया.

सिविल सेवा परीक्षा के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है कि जब सिविल सेवा और भारतीय वन सेवा के लिए एक साथ और एक ही परीक्षा आयोजित की जाएगी. दोनों सेवाओं के अभ्यर्थियों को एक ही आवेदन-पत्र (Common Application Form) भरना है.

पाठ्यक्रम में परिवर्तन

गत वर्षों में: वर्ष 2013 के लिए:
निबंध – 200 अंक निबंध – 200 अंक

अंग्रेजी  – 100 अंक
सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र I&II सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र I, II, III and IV
सामान्य अध्ययन के लिए कुल अंक=600 (2X300) सामान्य अध्ययन के लिए कुल अंक= 1000 (4X 250)
वैकल्पिक विषय-अ के प्रश्नपत्र I&II= 600 (प्रश्नपत्र I=300 अंक और प्रश्नपत्र II=300 अंक) वैकल्पिक विषय-अ के प्रश्नपत्र I&II= 500 (प्रश्नपत्र I=250 अंक और प्रश्नपत्र II=250 अंक)
वैकल्पिक विषय-ब के प्रश्नपत्र I&II= 600 (प्रश्नपत्र I=300 अंक और प्रश्नपत्र II=300 अंक)  प्रावधान नहीं.
साक्षात्कार/व्यक्तित्व परीक्षा–300 अंक साक्षात्कार/व्यक्तित्व परीक्षा–275 अंक
वर्ष 2013 के सिविल सेवा (मुख्य) परीक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल नए अध्याय निम्नलिखित हैं:
• सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र I खंड-2 में 10वीं या मैट्रिकुलेशन स्तर के अंग्रेजी गद्यांश.
• सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र II के प्रथम खंड में विश्व का भूगोल और इतिहास एवं समाज का अध्ययन शामिल है.
• सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र -IV के खंड-3 में प्रौद्योगिकी, आर्थिक विकास, जैव विविधता, पर्यावरण और सुरक्षा के साथ-साथ आपदा प्रबंधन को भी शामिल किया गया.
• सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र -V के खंड-4 में नीतिशास्त्र, समग्रता और अभिरुचि को शामिल किआ गया.

विश्लेषण (Analysis)
• साक्षात्कार/व्यक्तित्व परीक्षा को गत वर्षों की भांति सामान महत्त्व 13%दिया गया.
• गत वर्ष की तुलना में वैकल्पिक विषय के महत्त्व को 52% से घटाकर 24% कर दिया गया.
• गत वर्ष की तुलना में सामान्य अध्ययन के महत्त्व को 26% से बढ़ाकर 48% कर दिया गया.

इलाज के आभाव में दम तोड़ती जिंदगी

सरकारें नागरिकों के हक में नियम-कायदे तो बना देती हैं, लेकिन उनका उचित प्रचार-प्रसार नहीं होने और जागरूकता के अभाव में जरूरतमंद लोग उन सुविधाओं का लाभ नहीं उठा पाते।
इसी के मद्देनजर दिल्ली उच्च न्यायालय ने सरकार और पुलिस को एक सप्ताह के भीतर उस अदालती आदेश को बड़े पैमाने पर प्रचारित करने का आदेश दिया है, जिसमें कहा गया था कि कोई भी अस्पताल, चाहे वह सरकारी हो या निजी, आपराधिक वारदात या किसी दुर्घटना के शिकार व्यक्ति और बलात्कार-पीड़ित को तुरंत इलाज देने से इनकार नहीं कर सकता। गौरतलब है कि लगभग एक महीने पहले अपने आदेश में ऐसे मामलों में फौरन प्राथमिक उपचार मुहैया कराने के अलावा अदालत ने दिल्ली पुलिस से यह भी सुनिश्चित करने को कहा था कि पीड़ित को घटनास्थल के सबसे करीबी अस्पताल में पहुंचाया जाए, न कि क्षेत्र के बंटवारे या किसी दूसरी वजह को आधार बना कर दूर स्थित सरकारी अस्पतालों में ले जाया जाए।  ढाई महीने पहले दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार कांड के बाद वहां पहुंची पुलिस काफी देर तक इस बेमानी सवाल में उलझी रही कि घटनास्थल किस हलके में आता है और बलात्कार की शिकार युवती और उसके मित्र को इलाज के लिए कहां ले जाया जाए। इसके बाद उन्हें कई किलोमीटर दूर सफदरजंग अस्पताल ले जाया गया। जबकि वक्त का तकाजा यह था कि उन्हें सबसे नजदीकी अस्पताल में ले जाया जाता। अगर ऐसा किया गया होता तो पीड़ित युवती संभवत: आज जिंदा होती। अक्सर ऐसे मामले सामने आते हैं जिनमें हादसे या किसी आपराधिक घटना का शिकार हुए व्यक्ति को तत्काल चिकित्सा की जरूरत होती है। लेकिन हकीकत यह है
कि फौरन इलाज न मिल पाने या अस्पतालों में डॉक्टरों के कानूनी मामला बता कर उपचार करने से मना कर देने के चलते बहुत सारे वैसे लोगों की जान चली जाती है, जिन्हें बचाया जा सकता है।
सही है कि आपराधिक वारदातों या दुर्घटनाओं के मामले में कानूनी प्रक्रिया का पालन भविष्य में अदालती सुनवाई का आधार बनता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कानूनी बाध्यता के बहाने किसी पीड़ित का प्राथमिक उपचार करने या उसे भर्ती करने से मना कर दिया जाए। कानूनी औपचारिकताएं पीड़ित के सामान्य स्थिति में आने के बाद भी पूरी की जा सकती हैं। कई बार सरकारी नियम-कायदों या अदालतों के आदेशों की जानकारी न होने के चलते लोग अस्पतालों या डॉक्टरों के कानूनी पेचीदगियों का हवाला देकर मना करने पर आपत्ति नहीं जता पाते। जबकि कानूनी प्रक्रियाओं के पालन के पहले तत्काल इलाज की सुविधा पाना उनका हक है, अस्पताल चाहे सरकारी हो या निजी। नागरिकों के हक में बने नियम-कायदों का प्रचार-प्रसार जागरूकता फैलाने का एक महत्त्वपूर्ण जरिया है। आखिर लोक कल्याण से संबंधित योजनाओं के प्रचार-प्रसार के चलते ही ज्यादातर लोग उनके बारे में जान पाते हैं और उनका लाभ उठा पाते हैं। ऐसी अनेक घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिनमें हादसे के शिकार किसी व्यक्ति को कहीं बिस्तर या तकनीकी सुविधाओं का अभाव बता कर तो कहीं कानूनी कागजात पूरे नहीं होने की दलील देकर भर्ती नहीं किया गया और घंटों तकलीफ झेलने के बाद आखिरकार उसकी मौत हो गई। ऐसे मामलों में कभी जवाबदेही तय नहीं हो पाती। उम्मीद की जानी चाहिए कि दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्देश के फलस्वरूप अस्पतालों को और अधिक जिम्मेदार और संवेदनशील बनाया जा सकेगा।

Pinki Devi
अंश जनसत्ता से साभार

Tuesday, 5 March 2013

कुम्भ पर आने वाली दोकुमेंट्री फिल्म

सड़क चौराहों, गावो कस्बो और देश विदेश से श्रधालुओ का जत्था लगातार कुम्भ पहुच रहा था, बच्चो युवाओं का उत्साह, दादा दादी की आस्था पूरे वेग से उछाल मार रही थी। कोई डूबकी लगा रहा था तो कोई भष्म लगाकर झूम रहा था, कोई आचमन कर रहा था तो कोई आरती उतार रहा था। जल, जनसमूह और जत्थों का अनूठा मिलन दिख रहा था, फर्क करना मुश्किल था कौन अमीर था कौन गरीब?, कौन देशी था कौन परदेशी? पर हा कुछ सामान था सबमे तो वो था गंगा के प्रति आस्था और उसमे अटूट विश्वाश। ये कुछ अंश है चिरागन की कुम्भ पर आने वाली दोकुमेंट्री फिल्म के जिसको बनाने में मै और मेरे कई सहयोगी बड़ी सिद्दत से लगे है आशा है ये अंश आपको पसंद आये होंगे। [किंजल]

Burai aur hum.

सोचिए जरा ! जब आतंकी अफजल गुरु की फांसी पर मीडिया विधवा अलाप करे और क्रांतिकारियों के शहादत दिवसपर एक दीपक भी न जले तो देश आगे कैसे बढे . . .

सोचिए जरा !
जब आतंकी अफजल गुरु की फांसी पर मीडिया विधवा अलाप करे
और क्रांतिकारियों के शहादत दिवसपर एक दीपक भी न जले
तो देश आगे कैसे बढे . . .

सोचिए जरा ! गर्लफ्रेंड के लिए कविताएं लिखनेवाला युवा अगर देश की स्थिति पर I hate Politics कहे तो देश आगे कैसेबढे . . .

सोचिए जरा !
गर्लफ्रेंड के लिए कविताएं लिखनेवाला युवा
अगर देश की स्थिति पर I hate Politics कहे तो देश आगे कैसेबढे . . .

सोचिए जरा ! जब युवाओं को हिंदी बोलने में घिनआये और।। देश का प्रधानमन्त्री अंग्रेजी को सर्वश्रेष्ठ भाषा कहे तो देश आगे कैसे बढे . . .?

सोचिए जरा !
जब युवाओं को हिंदी बोलने में घिनआये और।।
देश का प्रधानमन्त्री अंग्रेजी को सर्वश्रेष्ठ भाषा कहे तो देश आगे कैसे बढे . . .?

सोचिए जरा ! जब देश का युवा Malls में जेब कटवाए और बाहर ठेले पर मोलभाव करे तो देश आगे कैसे बढे. ?

सोचिए जरा !
जब देश का युवा Malls में जेब कटवाए और
बाहर ठेले पर मोलभाव करे तो देश आगे कैसे बढे. ?