Thursday 27 September 2012

एक सवाल आपसे? क्या एक असहाय लड़की को न्याय दिलाना जुर्म है? अभी कुछ देर पहले 9.55pm पर चिरागन संस्था (NGO) के निदेशक जी के पर्सनल मोबाइल पर एक अज्ञात नंबर से दो बार फ़ोन आयाऔर जान से मरवाने की धमकी देने के साथ-साथ उन्हें और संस्था को फर्जी F IR कराके झूठे मुक़दमे में फ़साने की धमकी दी गयी! अगर भविष्य में लड़की को, निदेशक जी को या संस्था को कुछ होता है तो इसके पूरे जिम्मेदार लड़की के परिजन, पुलिश और प्रशाशन होगे. लड़की को न्याय दिलाने के लिए कृपया इशे शेयर करे. A Press note & Apeel by: chiragan ngo

एक सवाल आपसे? क्या एक असहाय लड़की को न्याय दिलाना जुर्म है? अभी कुछ देर पहले 9.55pm पर चिरागन संस्था (NGO) के निदेशक जी के पर्सनल मोबाइल पर एक अज्ञात नंबर से दो बार फ़ोन आयाऔर जान से मरवाने की धमकी देने के साथ-साथ उन्हें और संस्था को फर्जी F
IR कराके झूठे मुक़दमे में फ़साने की धमकी दी गयी! अगर भविष्य में लड़की को, निदेशक जी को या संस्था को कुछ होता है तो इसके पूरे जिम्मेदार लड़की के परिजन, पुलिश और प्रशाशन होगे.
लड़की को न्याय दिलाने के लिए कृपया इशे शेयर करे.

Wednesday 26 September 2012

News published on 26 september 2012 in Daily news activist, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in Daily news activist, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in Our leadre, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in Our leadre, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in I next, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in I next, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in Hindustan, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in Hindustan, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in Swatantra Chetna, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in Swatantra Chetna, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in Prayagraj Times, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in Prayagraj Times, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in United Bharat, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in United Bharat, Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in Chetna vichardhara Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

News published on 26 september 2012 in Chetna vichardhara Allahabad (Event: seminar on 150 birth year of swami vicekanand " Vivekanand ke sapno ka bharat aur hum" organised by Chiragan an social, human & educational devalopment society on 25 September 2012)

Tuesday 25 September 2012

आपने मानव जन्म लेने के लिए नहीं देने के लिए लिया है..! स्वामी विवेकानंद द्वारा चिरागन परिवार

आपने मानव जन्म लेने के लिए नहीं देने के लिए लिया है..! स्वामी विवेकानंद द्वारा चिरागन परिवार

"विवेकानंद के सपनो का भारत और हम" चिरागन परिवार

हमारे द्वारा आयोजित होने वाला स्वामी विवेकानंद जी का १५० जयंती वर्ष समारोह, जिसका विषय है "विवेकानंद के सपनो का भारत और हम"  जिसके अंतर्गत विचार गोष्ठी, सांस्कृतिक कार्यक्रम और प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है. आप सादर आमंत्रित है. .... चिरागन परिवार

Saturday 15 September 2012

प्रकृति का महत्व और हमारे जीवन का आधार important of nature and our life

प्रकृति का महत्व और हमारे जीवन का आधार important of nature and our life
इंसान ही नहीं दुनिया की कोई भी नस्ल जल, जंगल और ज़मीन के बिना ज़िंदा नहीं रह सकती. ये तीनों हमारे जीवन का आधार हैं. यह भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि उसने प्रकृति को विशेष महत्व दिया है. पहले जंगल पूज्य थे, श्रद्धेय थे. इसलिए उनकी पवित्रता को बनाए रखने के लिए मंत्रों का सहारा लिया गया. मगर गुज़रते व़क्त के साथ जंगल से जु़डी भावनाएं और संवेदनाएं भी बदल गई हैं. राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक बादलों के रंग हवाओं के संग में लेखक अमरेंद्र किशोर ने जल, जंगल और ज़मीन के मुद्दे को बेहद प्रभावशाली तरीक़े से उठाया है. पुस्तक के छह अध्याय हैं, जिनमें वन-उपवन, बूंदों की बातें, पंचवटी की छांह में, जंगल का मंगल-लोक, बादलों के रंग हवाओं के संग और परंपराओं के सच्चे साधक शामिल है. किताब में इंसान के लिए जल, जंगल और ज़मीन के महत्व पर रौशनी डाली गई है. इसके साथ ही लेखक ने प्रकृति के साथ मनव के संबंध और प्रकृति के विनाश में मानव की भूमिका का ज़िक्र करते हुए इसे बचाने का आह्वान किया है. लेखक का कहना है कि सभ्यता के एक खास दौर में जब पशुपालन के साथ बस्तियां अस्तित्व में आईं तो इंसान जंगल की सभ्यता के बेहद क़रीब हो चुका था. आदिवासी और ग़ैर आदिवासी समाज के बीच सौहार्द्रपूर्ण संबंध बन चुके थे, क्योंकि जंगलों में जाकर तपस्या करना, आश्रम बनाना और ज़रूरत प़डने पर आदिवासियों से संपर्क साधकर उनसे मदद लेने के ढेरों प्रसंग और आख्यान प्राचीन धर्मग्रंथों में प़ढने को मिलते हैं. यह बात तो स्पष्ट है कि जिन पे़डों की पूजा आदिवासी सदियों से करते चले आ रहे थे, उन्हीं पे़डों को हिंदू धर्म में भी विशेष स्थान मिला. यदि वनवासी समाज की मान्यता है कि पे़डों पर उनके देवता बोंगा रहते हैं तो वैदिक काल से हिंदू धर्म ने इसी तथ्य को खास तर्क के साथ पूजनीय साबित किया. हर पे़ड को किसी न किसी देवी-देवता के साथ संबंधित किया गया. आदिवासियों के बीच बहुसंख्यक देवी-देवता नहीं होते. वे प्राकृतिक संसाधनों को पूजते हैं. नदी, पहा़ड, जंगल, पत्थर और जीव-जंतु, इन सबकी आराधना करते हैं, जबकि हिंदुओं के 33 करो़ड देवी-देवताओं के अलावा अपने पूजन के लिए, आराधना के लिए पे़ड-पौधों से लेकर नदी-पहा़ड के साथ संबंध जो़डते गए. मगर इसके मूल में कहीं किसी धर्म समुदाय को पीछे छो़ड देने जैसी बातें नहीं थीं. हिंदुओं के साथ आदिवासियों तक सौहार्द्रपूर्ण रिश्ते रहे. यह बात दूसरी है कि विकास के दौर में आदिवासी पीछे रह गए. ज़माना बदला. जंगल कभी सबके लिए होते थे. समाज के लिए, परिवार के लिए और इंसान के लिए. व्यक्तिगत ज़रूरतों के लिए, सामुदायिक ज़रूरतों के लिए, धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर भरण-पोषण के लिए. लेकिन प्रकृति की सुंदरता को, जंगलों की सघनता और इंसान की शालीनता को लील गई आधुनिक जीवन शैली. क़ुदरती सौंदर्य से लदे जंगलों और पहा़डों से जु़डे साहित्य के प्रसंग आज सपने हो गए या परी-लोक के आख्यान लगने लगे. इतना ही नहीं, जंगलों की महत्ता समझाने वैसे लोग हमारे पास आ धमके जो समूचे विश्व में नियमों की आ़ड में वनों का नाश कर रहे थे. जंगल बचाने और ब़ढाने की तरकीबें बताने वैसे लोग सामने आए जो पूरे विश्व में जैव संपदाओं की तबाही मचा चुके थे. कमाल की बात है कि ऐसे लोग ब़डी सहजता से सरकार और सत्ता में अपनी पैठ जमाने में सफल रहे. मतलब वनों को बचाने और ब़ढाने का गुणगान करने वाली हमारी संस्कृति उनके विचारों और तर्कों से बेमानी और बेकार हो गई. उनकी भोगवाद की संस्कृति हमारी परंपराओं और सोच पर भारी प़डी. अपनी सोच से जंगलों के प्रति बेहद संवेदनशील और परंपरा प्रिय समाज आज वनों से दूर धकेला जा चुका है. उसके सामने ही समूचा देश बाज़ार बन चुका है. हम, हमारी संस्कृति, हमारे जंगल और हमारे जंगलों से जु़डी भावनाएं तथा संवेदनाएं, ये सबके सब इसी बाज़ार में बिकाऊ हो चुकी हैं, क्योंकि हमारी ज़िंदगी से जु़डे छोटे या ब़डे मुद्दे जब बाज़ार और व्यापार के संसर्ग में आते हैं तो उन्हें बिकने से कोई बचा नहीं पाता. इसलिए वन्य संसाधन आज वैश्विक बाज़ार के सौदागरों के निशाने पर हैं. इस हाल में जंगल और प्रकृति से जु़डी इंसानी भावनाएं एवं संवेदनाएं सौदेबाज़ों के पैरों तले रौंदी जा रही हैं. यह निष्ठुरता की पराकाष्ठा है. खेद की बात है कि हम यह सब विवशता के साथ देखने को, सहने को मजबूर हैं. हमारी तमाम वन नीतियां, उनसे जु़डे क़ायदे-क़ानून इन सबमें जंगलों को बचाने की पवित्र चिंताएं और प्रतिज्ञाएं हैं. मगर फिर भी जंगल कट रहे हैं. उन्हें बचाने की तरकीबें हमारी सोच से जुदा हैं, क्योंकि ये तरकीबें पश्चिमी सभ्यता की उपज हैं. सरकारी फाइलों के अनुसार, जंगलों के सबसे ब़डे लुटेरे आदिवासी हैं. मगर सच और इस दलील के बीच कोई संबंध नहीं है. यह दावा बेहद खोखला और लिजलिजा है. वे वैसे लोग हैं, जो जंगलों के बिना अपने को, अपने धर्म को और अपनी संस्कृति को अधूरा मानते हैं. वे आदिवासी हैं. भारत के मूल बाशिंदे. मगर सबसे लाचार. समय के हाशिये पर धकेले गए श्रांत-कलांत लोग. जंगल बचाने और ब़ढाने की चिंता में जुटी सरकार ने आदिवासियों को जंगलों से दरकिनार कर दिया. उन्हें उनके टोला-टप्परों से दूर कर दिया. इतने उपायों के बावजूद जंगल फिर भी कट रहे हैं. देश की धरती से हरियाली की चादर सिकु़डती जा रही है. वनों से वहां के लोग दूर धकेले जा रहे हैं. प्राचीन ग्रंथों में सामाजिक वानिकी की बातें नहीं हैं और न ही जन-वन प्रबंधन की बातें हैं, क्योंकि पुराने ख्याल ऐसे रहे हैं कि जंगल लगाए नहीं जाते, बल्कि ये क़ुदरत की देन होते हैं. इनकी सघनता किसी पादप विज्ञानी की मेहनत की उपज नहीं होती. क़ुदरती जंगल बेतरतीब होते हैं. इसलिए सुखद होते हैं. सुंदर होते हैं. वहां के पे़ड स्वयंभू होकर भी संगठित होते हैं. इंसान के हाथों उपजाए गए वन-उपवन पर्यावरण के अनुरूप नहीं होते. हम व्यापार और बाज़ार की ज़रूरत को ध्यान में रखकर वन रोपण करते हैं.
अध्याय बूंदों की बातें में लेखक ने पानी के महत्व को ब़खूबी पेश किया है. सभ्यताएं पानी की देन हैं. संस्कृतियां नदियों से पनपी हैं. नदियों से पोषित हुई हैं. नदियां ही संस्कृतियों की पालनहार हैं. जंगलों ने जीव मंडल को जीवन दिया है. सांसें दी हैं. ताक़त दी है. इससे जंगलों से व्यापार पनपा तो साथ में समाज के नियम-विधान बने. सामाजिक व्यवस्था ग़ढी गई. संचालित की गई. जंगलों को जीवन देने वाले बादल हैं. इन बादलों में पानी है. पानी से जंगल है और जंगल से पानी है. जंगल है तो बादल आएंगे, बरसेंगे. तभी नदियों की धार जंगलों से निकलेगी. पहा़डों से निकलेगी, झरना बनकर. नाला बनकर, जो नाला छोटी नदियों का रूप लेता है. छोटी नदियों का संजाल ब़डी नदियों में तब्दील होता है. पहा़डों से चली पानी की मनचली धार आगे ब़ढकर समुद्र में जा मिलती है.
वैदिक युग में हमारे देश में जल देवता के रूप में वरुण को पूजा जाता था. आज भी पोखरों और कुंओं को पूजने की परंपरा है. सुहागनें पोखरों को पूजती हैं. वे कुएं पूजती हैं. गांवों में तालाबों और कुंओं के विवाह होते थे. सुहागिनें गाती हैं-
राजा जनक रीसी कुइया खनावले
कुइयां के निर्मल पानी जी
ताही तर राजा हो
जइ करावले कुंड दाहा दही जस
कुंड पइसी राजा हवन करावले निकलेली कन्या कुंआर जी
कथी ये के दुधावा पइइब हो बाबा
काई धरब हमरो नाम हो
केकरा कुलवे बइहब हो बाबा
केइ होइहे स्वामी हमार
गुलरी के दुधावा पइइबो हो बेटी सिता धरणी तोहरो नाम
दशरथ कुलवे बिआहब हो बेटी स्वामी होइहन श्रीरामजी
घर के शुभ काम की शुरुआत के साथ कुएं की भी पूजा का रिवाज गांव के लोक समाज में आज भी है, चाहे विवाह या कोई और मंगल कार्य.
पर्यावरण असंतुलन पर चिंता ज़ाहिर करते हुए पर्यावरणविद्‌ सुंदरलाल बहुगुणा कहते हैं, हमने हर बात और काम में यूरोप का अनुसरण किया. मगर यूरोप में क्या है. वे मिट्टी में रसायन डालते हैं. माटी एक ज़िंदा पदार्थ है, उसमें रसायन जैसी मुर्दा चीज़ वे डाल रहे हैं. अधिक उपज लेने के इरादे से हमने भी मुर्दा को अपनाया. हमने मिट्टी को अपने स्वार्थ के कारण नशेबाज़ बनाया-रासायनिक उर्वरकों से. गाय की सेवा करने वाला, पे़ड लगाने वाला और उन्हें पूजने वाला पुण्य प्राप्त करता है, ऐसा हमारे धर्मशास्त्रों में लिखा है. पुण्य का अलग सुख है. बात चाहे गांव बसने की हो, उसके नामकरण की हो या खेती की. पे़ड से अलग कुछ भी नहीं है. गांव के नाम पे़डों से जु़ड जाते हैं. जहां जिन पे़डों की बहुलता है, वहां के गांवों के नाम उन पे़डों के नाम से जाने जाते हैं. उसी तरह पानी से जु़डे गांव के नाम, माटी के प्रकार से जु़डे गांव के नाम, कितना अद्‌भुत है अपना देश.
यह किताब प्रकृति के बेहद क़रीब रहने वाले आदिवासियों की जीवनशैली और उनकी समस्याओं पर भी रौशनी डालती है. पर्यावरण संरक्षण के नाम पर आदिवासियों को उनके मूल स्थान से उजा़डना अमानवीय है, इसे रोका जाना चाहिए. यह किताब भारत के लोकज्ञान और कालातीत परंपरा का बेहतरीन दस्तावेज़ है.

लेखक परिचय फ़िरदौस ख़ान firdaus@chauthiduniya.com

फ़िरदौस ख़ान पत्रकार, शायरा और कहानीकार हैं. आपने दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में कई वर्षों तक सेवाएं दीं हैं. ऑल इंडिया रेडियो, दूरदर्शन केन्द्र से समय-समय पर कार्यक्रमों का प्रसारण होता रहता है. आपने ऑल इंडिया रेडियो और न्यूज़ चैनल के लिए एंकरिंग भी की है. देश-विदेश के विभिन्न समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं के लिए लेखन. आपकी 'गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नामक किताब प्रकाशित हो चुकी है.

Wednesday 5 September 2012

News published on 24 august 2012 in I Next Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in I Next Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in AAJ Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in AAJ Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Hindustan Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Hindustan Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Our Leader Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Our Leader Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Jansandesh Times Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Jansandesh Times Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Prayag Raj Times Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Prayag Raj Times Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Daily News Activist Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Daily News Activist Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Amar Ujala Compact Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Amar Ujala Compact Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Northern India Patrika NIP Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

News published on 24 august 2012 in Northern India Patrika NIP Allahabad (Event: Awwa week 2012 organised by Indian army & Chiragan on 23 August 2012)

Saturday 1 September 2012

बाल मजदूरी की हकीकत और हम द्वारा चिरागन Truth of Child labour and we by chiragan

यह माना जाता है कि भारत में 14 साल के बच्चों की आबादी पूरी अमेरिकी आबादी से भी ज़्यादा है. भारत में कुल श्रम शक्ति का लगभग 3.6 फीसदी हिस्सा 14 साल से कम उम्र के बच्चों का है. हमारे देश में हर दस बच्चों में से 9 काम करते हैं. ये बच्चे लगभग 85 फीसदी पारंपरिक कृषि गतिविधियों में कार्यरत हैं, जबकि 9 फीसदी से कम उत्पादन, सेवा और मरम्मती कार्यों में लगे हैं. स़िर्फ 0.8 फीसदी कारखानों में काम करते हैं.
बाल शोषण चिरागन  bal shoshan, child labour

आमतौर पर बाल मज़दूरी अविकसित देशों में व्याप्त विविध समस्याओं का नतीजा है. भारत सरकार दूसरे राज्यों के सहयोग से बाल मज़दूरी ख़त्म करने की दिशा में तेज़ी से प्रयासरत है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना (एनसीएलपी) जैसे महत्वपूर्ण क़दम उठाए हैं. आज यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि इस परियोजना ने इस मामले में का़फी अहम कार्य किए हैं. इस परियोजना के तहत हज़ारों बच्चों को सुरक्षित बचाया गया है. साथ ही इस परियोजना के तहत चलाए जा रहे विशेष स्कूलों में उनका पुनर्वास भी किया गया है. इन स्कूलों के पाठ्यक्रम भी विशिष्ट होते हैं, ताकि आगे चलकर इन बच्चों को मुख्यधारा के विद्यालयों में प्रवेश लेने में किसी तरह की परेशानी न हो. ये बच्चे इन विशेष विद्यालयों में न स़िर्फ बुनियादी शिक्षा हासिल करते हैं, बल्कि उनकी रुचि के मुताबिक़ व्यवसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है. राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना के तहत इन बच्चों के लिए नियमित रूप से खानपान और चिकित्सकीय सहायता की व्यवस्था है. साथ ही इन्हें एक सौ रुपये मासिक वजी़फा दिया जाता है.
कई सरकारें बाल मज़दूरों की सही संख्या बताने से बचती हैं. ऐसे में वे जब विशेष स्कूल खोलने की स़िफारिश करती हैं तो उनकी संख्या कम होती है, ताकि उनके द्वारा चलाए जा रहे विकास कार्यों और कार्यकलापों की पोल न खुल जाए. यह एक बेहद महत्वपूर्ण पहलू है और आज ज़रूरत है कि इन सभी मसलों पर गहनता से विचार किया जाए.
मौजूदा नियमों के मुताबिक़, जब बच्चा मुख्य धारा के स्कूलों में दाख़िला ले लेता है तो ऐसा माना जाता है कि मासिक सहायता बंद कर देनी चाहिए. जबकि बच्चे या उसके माता-पिता नहीं चाहते हैं कि वित्तीय सहायता बंद हो. ऐसे में उनका अकादमिक प्रदर्शन नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है. यही वजह है कि हर कोई सोचता है कि जब बच्चा मुख्य धारा के स्कूल में प्रवेश कर जाए तो उसके बाद भी उसे सहायता मिलती रहनी चाहिए.
आख़िरकार अतिरिक्त पैसे के लिए ही तो माता-पिता अपने बच्चों से मज़दूरी करवाते हैं. इसीलिए किसी भी तरह आर्थिक सहायता जारी रहनी चाहिए. यह तब तक मिलनी चाहिए, जब तक कि वह बच्चा पूर्ण रूप से मुख्य धारा में शामिल होने के क़ाबिल न हो जाए. हालांकि पुनर्वास पैकेज की पूरी व्यवस्था की गई है, फिर भी बच्चे के माता-पिता सरकारी सुविधाओं के हक़दार नहीं माने गए हैं. ऐसे में हर किसी को यह लगता है कि इस संदर्भ में एक सामान्य नियम होना चाहिए, ताकि ऐसे लोगों के  लिए एक विशेष वर्ग निर्धारित हो सके. जैसे एससी, एसटी, ओबीसी, सैनिकों की विधवाओं, पूर्व सैनिक और अपाहिज लोगों के लिए एक अलग वर्ग निर्धारित किया जा चुका है.
बाल शोषण चिरागन  bal shoshan, child labour
बाल श्रमिकों की पहचान के संबंध में एक दूसरी समस्या सामने आई है, वह है उम्र का निर्धारण. इस परियोजना ने चाहे जो कुछ भी किया है, लेकिन कम से कम यह बाल मज़दूरी के संदर्भ में पर्याप्त जागरूकता लाई है. अब यह हर कोई जानने लगा है कि 14 साल के बच्चे से काम कराना एक अपराध है. इसीलिए आज जब कोई बाल मज़दूरी की रोकथाम को लागू करना चाहता है तो एक बच्चा ख़ुद अपनी समस्याओं को हमें बताता है. उसके मुताबिक़, काम करने की न्यूनतम आयु 14 साल से कम नहीं होनी चाहिए. लेकिन इसकी जांच-पड़ताल का कोई उपाय नहीं है.  ऐसे में हर कोई ऐसे बच्चों के पुनर्वास के लिए ख़ुद को असहाय महसूस करता है. ये बच्चे न तो स्कूल जाते हैं और न ही इनके जन्म का कोई प्रमाणिक रिकॉर्ड होता है. इसीलिए ये कहीं से भी अपने जन्म प्रमाणपत्र का इंतज़ाम कर लेते हैं और लोगों को उसे मानने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं होता. लोगों को यह भी लगता है कि  माता-पिता द्वारा बच्चों को काम करने की छूट देने या उनके कारखानों में काम करने पर प्रतिबंध लगना चाहिए, क्योंकि माता-पिता द्वारा काम पर लगाए जाने वाले ऐसे बच्चों की तादाद भी का़फी अधिक है. इन बच्चों को छोटी उम्र में ही काम पर लगा दिया जाता है और ऐसे लोगों की वजह से ही इन बच्चों पर नकारात्मक असर पड़ता है.
एक बार फिर कहना होगा कि इन विशिष्ट स्कूलों में दिए जाने वाले व्यवसायिक प्रशिक्षणों में भी कुछ ख़ामियां हैं. हालांकि मौजूदा नियमों के मुताबिक़ व्यवसायिक प्रशिक्षण का प्रावधान तो है, लेकिन इसके लिए धन का अलग से आवंटन नहीं होता है, जिससे इस तरह के कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक चलाने में कई मुश्किलें आती हैं. बाल मज़दूरी ख़त्म करने और व्यवसायिक प्रशिक्षण का लक्ष्य हासिल करने के लिए सबसे पहले हमें उपर्युक्त पहलुओं को समझना बेहद ज़रूरी है. व्यवसायिक प्रशिक्षण के दौरान जिन उत्पादों का निर्माण होता है, उनका विपणन यदि ठीक ढंग से हो तो उसकी लागत पर आने वाले ख़र्च को हासिल किया जा सकता है. लेकिन यह सब परियोजना विशेष, उसके विस्तार और उत्पाद की गुणवत्ता पर निर्भर करता है. साथ ही यह परियोजना का कार्यान्वयन करने वाले व्यक्तिपर भी निर्भर करता है कि वह इन सबका प्रचार-प्रसार ठीक ढंग से कर पा रहा है या नहीं.
यह देखने में आया है कि बाल मज़दूरी रोकने संबंधी नियम बन चुके हैं, लेकिन अभी भी इसे ज़मीनी स्तर पर लागू नहीं किया गया है. बाल मज़दूरी को बढ़ावा देने वाले ख़ुद समाज के ग़रीब तबके से आते हैं, इसलिए ऐसे लोगों को हिरासत में लेने या दंडित करने के प्रति भी हमारी कोई रुचि नहीं दिखती. जहां लोग बाल मज़दूरी से परिचित होते हैं, वे इस अपराध से बच निकलने में सफल हो जाते हैं. अत: हमें यहां सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि बाल श्रम अधिनियम (निषेध एवं विनियमन) को सही मायनों में लागू किया जा रहा है या नहीं.
यह भी देखा जा रहा है कि जिन बाल मज़दूरों को मुक्त कराया जाता है, उनका पुनर्वास जल्द नहीं हो पाता, नतीजतन वे फिर  इस दलदल में फंस जाते हैं. ऐसे में हमें इसके ख़िला़फ कड़े क़दम उठाने की आवश्यकता है. साथ ही 20 हजार रुपये की राशि एक बाल मज़दूर के पुनर्वास के लिए बेहद ही मामूली राशि है, जिसे बढ़ाए जाने की भी ज़रूरत है. ज़मीनी स्तर पर पुनर्वास को सही ढंग से लागू करने के लिए वित्तीय सहायता के साथ-साथ एक बेहतर पुनर्वास ख़ाका भी बनाया जाना चाहिए.
कई सरकारें बाल मज़दूरों की सही संख्या बताने से बचती हैं. ऐसे में वे जब विशेष स्कूल खोलने की स़िफारिश करती हैं तो उनकी संख्या कम होती है, ताकि उनके द्वारा चलाए जा रहे विकास कार्यों और कार्यकलापों की पोल न खुल जाए. यह एक बेहद महत्वपूर्ण पहलू है और आज ज़रूरत है कि इन सभी मसलों पर गहनता से विचार किया जाए. यदि सरकार सही तस्वीर छुपाने के लिए कम संख्या में ऐसे स्कूलों की स़िफारिश करती है तो यह नियमों को लागू करने एवं बाल श्रमिकों को समाज की मुख्य धारा में जोड़ने की दिशा में एक गंभीर समस्या और बाधा है. जब तक पर्याप्त संख्या में संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जाएंगे, ऐसी समस्याओं से निपटना मुश्किल ही होगा.
यहां बाल श्रम से निपटने की दिशा में न स़िर्फ नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है, बल्कि इसके लिए कार्यरत विभिन्न परियोजनाओं को वित्तीय सहायता आवंटित करने की भी ज़रूरत है. कुछ मामलों में बाल श्रमिकों की पहचान की ज़रूरत तो नहीं है, लेकिन इन परियोजनाओं में कुछ बुनियादी संशोधन की आवश्यकता ज़रूर है. इस देश से बाल मज़दूरी मिटाने के लिए अधिक समन्वित और सहयोगात्मक रवैया अपनाने की सख्त आवश्यकता है.
चौथी दुनिया डोट कॉम से लोगो को जागरूक करने के लिए साभार लिया गया.

बच्चो का उत्पीडन द्वारा चिरागन child abuse by chiragan

Bal shoshan by Chiragan
पिछले दिनों दिल्ली में स्कूली बच्चों के साथ यौनाचार की घटना ने समाज की उन घिनौनी परतों को उघाड़ दिया है, जिसके नीचे न जाने कितने मासूम बच्चों के घाव उनके तन-मन को क्षत-विक्षत कर रहे है। कुछ घटनाएं समाचार पत्रों में छप कर सनसनी फैला देती है और फिर समय के साथ पुरानी हो जाती हैं, लेकिन यौनाचार की घटनाओं का एक 'समाचार मात्र' बन कर रहना इस देश के मासूमों के साथ घोर अन्याय है। उनके न भरने वाले जख्म हर दिन उन्हें मानसिक पीड़ा पहुचाते है। अफसोस की बात यह है कि जिन नौनिहालों की सुरक्षा का दायित्व परिवार और समाज का है, वही उनका शोषण करते है। हाल ही में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट ने इस तथ्य का खुलासा किया है कि देश में हर चार में से एक बच्चा यौन शोषण का शिकार होता है। हर 155वें मिनट में एक बच्ची के साथ दुष्कर्म होता है। 
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 65 प्रतिशत बच्चे स्कूलो में यौन शोषण का शिकार होते है। 12 से कम आयु के 41.7 प्रतिशत बच्चे यौन उत्पीड़न से जूझ रहे है। भारत में बाल यौनाचार की बढ़ती घटनाओं का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों में देश के दस और दुनिया के 35 बड़े शहरों में दिल्ली पहले स्थान पर है। बाल शोषण आधुनिक समाज का एक विकृत और खौफनाक सच बन चुका है। आमतौर पर बाल शोषण को बच्चों के साथ शारीरिक या भावनात्मक दु‌र्व्यवहार माना जाता है लेकिन कंसलटेंसी डेवलपमेंट सेंटर के अनुसार बच्चे के माता-पिता या अभिभावक द्वारा किया गया हर ऐसा काम बाल शोषण के दायरे में आता है जिससे उस पर बुरा प्रभाव पड़ता हो या ऐसा होने की आशका हो या जिससे बच्चा मानसिक रूप से भी प्रताड़ित महसूस करे। हैरानी की बात तो यह है कि स्वयं को मानवता का पोषक मानने वाला देश 'बाल शोषण' के मुद्दे को ही खारिज कर देता है।
आमतौर पर अभिभावकों को इस तथ्य का अंदाजा ही नहीं होता है कि उनके बच्चे का यौन शोषण उनका कोई अपना ही कर रहा है। ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि करीबी रिश्तेदार और जान-पहचान के लोग ही बच्चों या बच्चियों के यौन उत्पीड़न के दोषी होते है। ऐसे में बच्चों को डरा-धमका कर या परिवार की मान-प्रतिष्ठा की दुहाई देकर मुंह बंद रखने को मजबूर किया जाता है। यौन उत्पीड़न के बहुत सारे मामले तो कानून की नजर में आ ही नहीं पाते हालाकि सरकारें और अनेक स्वयंसेवी संगठन जन-जागरण अभियान के जरिए लोगों को ऐसे मामले प्रकाश में लाने को प्रेरित-प्रोत्साहित करते रहते है, मगर उनका अपेक्षित असर नहीं हो पाया है। इसका एक प्रमुख कारण हमारा सामाजिक ढाचा है, जहा 'प्रतिष्ठा' के लिए जान की कीमत भी कम आकी जाती है और अपने झूठे सम्मान को बचाए रखने के लिए अभिभावक अपने बच्चों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों को सामने लाने से हिचकते है जो प्रत्यक्ष रूप से उन लोगों के लिए बढ़ावा है, जो नन्हे मासूमों को अपने शोषण का शिकार बनाते है।
bal shoshan chiragan

जून माह में बच्चों के यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए विधि मंत्रालय ने एक नए कानून का मसौदा तैयार किया था। यूं तो प्रस्तावित अधिनियम के ज्यादातर प्रावधान पहले से चले आ रहे है, पर कई मायनों में यह एक नई पहल भी है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अदालती कार्यवाही को और मानवीय व त्वरित बनाने की कोशिश की गई है। ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए हर जिले में विशेष अदालत का गठन और इनके लिए अलग से सरकारी वकील नियुक्त किए जाने का प्रस्ताव अदालती कार्यवाही को बच्चों के अनुकूल बनाएगा। प्रस्तावित अधिनियम का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि ऐसे मामलों में साल भर के भीतर फैसला सुनाया जाना जरूरी होगा। बाल उत्पीड़न के विरुद्ध इडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स की गाइडलाइन में सभी चिकित्सकों को निर्देश दिए गए है कि अगर उन्होंने बाल उत्पीड़न की सूचना समय पर नहीं दी तो उन्हें दो साल की जेल भी हो सकती है, पर इन सबसे ऊपर अभिभावकों और विद्यालय के शिक्षकों का दायित्व है कि वे बच्चे के मनोभावों को समझें और उनकी सुरक्षा के लिए कदम उठाएं।
[डॉ. ऋतु सारस्वत: लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं उनके द्वारा छपे लेख से जनजागरण के लिए साभार ]

भारत में बाल शोषण और हम, आप द्वारा चिरागन Child abuse in india and we by Chiragan

Bal shoshan  भारत में बाल शोषण और हम, आप द्वारा चिरागन 
बाल शोषण आज हमारे लिए कोई अंजान शब्द नहीं है, बल्कि यह आधुनिक समाज का एक विकृत और ख़ौ़फनाक सच बन चुका है. मौजूदा दौर में निर्दोष एवं लाचार बच्चों को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित करने की घटनाएं इतनी आम हो चुकी हैं कि अब तो लोग इस ओर ज़्यादा ध्यान भी नहीं देते. जबकि वास्तविकता यह है कि बाल शोषण बच्चों के मानवाधिकारों का उल्लंघन है. हाल में देश में पहली बार बाल शोषण के मामलों की गहराई से जांच-पड़ताल के लिए कुछ पहल की गई हैं. 13 राज्यों में किए गए इस अध्ययन से संभव है कि इससे संबद्ध सभी पक्षों जैसे, परिवार, समुदाय, समाज एवं सरकार को मामले की गंभीरता और उसकी वास्तविकता का पता चले.
आमतौर पर माना जाता है कि बाल शोषण का मतलब बच्चों के साथ शारीरिक या भावनात्मक दुर्व्यवहार है, लेकिन सीडीसी (कंसलटेंसी डेवलपमेंट सेंटर) के अनुसार, बच्चे के माता-पिता या अभिभावक द्वारा किया गया हर ऐसा काम बाल शोषण के दायरे में आता है, जिससे उसके ऊपर बुरा प्रभाव पड़ता हो या ऐसा होने की आशंका हो या जिससे बच्चा मानसिक रूप से भी प्रताड़ित महसूस करता हो. भारत में हालत ऐसी है कि अक्सर बाल शोषण के वजूद को ही को सिरे से नकार दिया जाता है, लेकिन सच यह है कि ख़ामोश रहकर हम बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की वारदातों को बढ़ावा ही दे रहे हैं.
केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा यूनीसेफ के सहयोग से कराए गए इस अध्ययन में कई संवेदनशील तथ्य सामने आए हैं. यह पहला मौक़ा है, जब सरकार ने इतने विस्तृत पैमाने पर बाल शोषण के विवादित मसले पर कोई पहल की है. अध्ययन के परिणामों से जो बात सबसे ज़्यादा उभर कर सामने आई है, वह यह है कि 5 से 12 साल तक की उम्र के बच्चे बाल शोषण के सबसे ज़्यादा शिकार होते हैं. हैरत की बात यह है कि हर तीन में से दो बच्चे कभी न कभी शोषण का शिकार रहे हैं. अध्ययन के दौरान लगभग 53.22 प्रतिशत बच्चों ने किसी न किसी तरह के शारीरिक शोषण की बात स्वीकारी तो 21.90 प्रतिशत बच्चों को भयंकर शारीरिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा. इतना ही नहीं, क़रीब 50.76 प्रतिशत बच्चों ने एक या दूसरे तरह की शारीरिक प्रताड़ना की बात कबूली. बात इतने पर ही ख़त्म नहीं होती. मंत्रालय की अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक़, देश का हर दूसरा बच्चा भावनात्मक शोषण का भी शिकार है.
आमतौर पर माना जाता है कि बाल शोषण का मतलब बच्चों के साथ शारीरिक या भावनात्मक दुर्व्यवहार है, लेकिन सीडीसी (कंसलटेंसी डेवलपमेंट सेंटर) के अनुसार, बच्चे के माता-पिता या अभिभावक द्वारा किया गया हर ऐसा काम बाल शोषण के दायरे में आता है, जिससे उसके ऊपर बुरा प्रभाव पड़ता हो या ऐसा होने की आशंका हो या जिससे बच्चा मानसिक रूप से भी प्रताड़ित महसूस करता हो. भारत में हालत ऐसी है कि अक्सर बाल शोषण के वजूद को ही को सिरे से नकार दिया जाता है, लेकिन सच यह है कि ख़ामोश रहकर हम बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की वारदातों को बढ़ावा ही दे रहे हैं. देश में बाल शोषण की घटनाओं को ऐसे अंजाम दिया जाता है कि दोषी के साथ-साथ पीड़ित बच्चे भी खुलकर सामने नहीं आते. पीड़ित बच्चे शर्मिंदगी के चलते कुछ भी बोलना नहीं चाहते. इसके पीछे भी हमारी सामाजिक बनावट और मानसिकता काफी हद तक ज़िम्मेदार है. हम भी ऐसे बच्चों को कुछ अलग नज़र से देखने लगते हैं. संभवत: इसी लज्जा के चलते उन्हें दुनिया की निगाहों में ख़ौ़फ नज़र आता है. पश्चिमी देशों में हालात ऐसे नहीं हैं. शिक्षा के कारण वहां का समाज और वहां के बच्चे निडर होकर अपनी बात कह सकते हैं. वहां के बच्चों में कम से कम इतना साहस तो होता ही है कि वे दुनिया को खुलकर अपनी आपबीती बता सकें.
पारंपरिक रूप से भारत में बच्चों के लालन-पालन और उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी परिवार एवं सगे-संबंधियों की होती है. देश के संविधान में बच्चों के लिए कई तरह के मौलिक अधिकारों का प्रावधान किया गया है, लेकिन इन अधिकारों को व्यवहार में लागू करने के मामले में ज़रूरत के अनुसार अहमियत नहीं दी जाती है. इसके बावजूद बाल शोषण जैसी गंभीर सामाजिक समस्या को देश में अक्सर दरकिनार कर दिया जाता है. शर्म की बात यह है कि संगीन अपराध की श्रेणी में आने वाले इस कृत्य के वजूद से ही हम इंकार कर देते हैं. जबकि सच्चाई यह है कि समस्या की गंभीरता के नज़रिए से इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर पहल करने की ज़रूरत है. देश में बाल शोषण के ख़िला़फ बनाए गए क़ानूनों की भरमार है, लेकिन इसमें कई गंभीर खामियां भी हैं. आज ज़रूरत इस बात की है कि सरकार, समाज एवं आम नागरिक मिलकर बच्चों के अधिकारों के महत्व को समझें और इसे पूरा करने के लिए मिलकर क़दम उठाएं. अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार दिवस (19 नवंबर) या बाल दिवस (14 नवंबर) के मौक़ों पर इसके लिए केवल हामी भर देने से कुछ नहीं हो सकता. इस दिशा में लगातार प्रयास करते रहने की ज़रूरत है, ताकि क़ानून और समाज इसके प्रति जागरूक हों. बाल शोषण से संबंधित अनेक ऐसे तथ्यपरक आंकड़े हैं, जो आगे की कार्रवाई के लिए आधार का काम कर सकते हैं. अब वह समय आ चुका है कि हम बाल अधिकारों के प्रति गंभीर हों.
बाल शोषण से निबटने के लिए जो क़ानूनी ढांचा उपलब्ध है, लोगों को उसकी जानकारी नहीं है और न कोई ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा इस जागरूकता को बढ़ाया जा सके. नतीजतन यह सामाजिक अभिशाप लगातार और गंभीर रूप धारण करता जा रहा है. यह इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि बच्चे ही हमारा भविष्य हैं और उनके हितों की सुरक्षा किए बग़ैर एक सुरक्षित समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती. इसके लिए सबसे पहले हमें अपने नज़रिए में बदलाव लाना होगा, समस्या के वजूद को स्वीकार करना होगा. यह इतना आसान नहीं है. यह भी संभव है कि बदलाव के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी पड़े, लेकिन यदि हम सभ्य समाज होने का दावा करते हैं तो हमें कभी न कभी शुरुआत तो करनी ही होगी.
चौथी दुनिया डोट कॉम से लोगो को जागरूक करने के लिए साभार लिया गया.