Thursday 11 July 2013

समय पूर्व पैदा होने वाले बच्चों के फेफड़ों की रक्षा में हल्दी हो सकती है फायदेमंद

हल्दी में पाया जाने वाला करक्यूमिन नाम का पदार्थ समय से पहले पैदा होने वाले शिशुओं के फेफड़ों के संभावित जानलेवा नुकसान से उनकी रक्षा कर सकता है। भारतीय मूल के एक वैज्ञानिक के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन में इस बात का दावा किया गया है।
ऐसा माना जाता रहा है कि मसालेदार करी व्यंजनों में डाली जाने वाली हल्दी में औषधीय गुण होते हैं।
समय से पहले पैदा होने वाले शिशुओं को अकसर वेंटिलेटर और आॅक्सीजन थेरेपी की मदद की जरूरत होती है क्योंकि उनमें फेफड़े सही तरह से काम नहीं करते।
लेकिन इस उपचार से शिशुओं के फेफड़ों को नुकसान पहुंच सकता है और उनकी मौत भी हो सकती है।
हार्बर-यूसीएलए मेडिकल सेंटर के लॉस एंजिलिस बायोमेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं ने बीमारी के मॉडलों का इस्तेमाल कर पाया कि करक्यूमिन से इस तरह के नुकसान से लंबे समय के लिए बचाव हो सकता है।
अमेरिकन जर्नल आॅफ फिजियोलॉजी में प्रकाशित किए गए इस अध्ययन में पाया गया कि करक्यूमिन से ब्रांकोपलमोनरी डिस्प्लेसिया :बीडीपी: से रक्षा हो सकती है। बीडीपी के तहत जन्म के 21 दिनों तक फेफड़ों से होते हुए बहुत अधिक आॅक्सीजन शरीर में आ जाता है।
शोधकर्ता दल के प्रमुख वीरेंदर के रेहन ने कहा, ‘‘यह अध्ययन समय से पूर्व जन्म लेने वाले बच्चों के फेफड़ों की रक्षा करने में करक्यूमिन से होने वाले दीर्घकालीन लाभों का पता लगाने से जुड़ा है।’’
उन्होंने कहा, ‘‘करक्यूमिन में एंटीआॅक्सीडेंट, ज्वलन विरोधी समेत कई गुण होते हैं। इससे यह समयपूर्व पैदा होने वाले बच्चों, जिन्हें आॅक्सीजन थेरेपी की जरूरत होती है, के लिए एक सही उपचार है।’

सप्ताह में एक बार योग करने से दूर हो सकता है पीठ के निचले हिस्से का दर्द

प्राचीन भारतीय पद्धति योग को लेकर किए गए एक नये अध्ययन में कहा गया है कि सप्ताह में एक बार योग करने से पीठ के निचले हिस्से के दर्द से राहत मिल सकती है। बोस्टन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन (बीयूएसएम) और बोस्टन मेडिकल सेंटर :बीएमसी: के अनुसंधानकर्ताओं ने पाया है कि सप्ताह में एक बार योग करने से पीठ के दर्द से उसी तरह राहत मिल सकती है और दर्दनाशक दवाओं पर निर्भरता कम हो सकती है जिस तरह सप्ताह में दो बार योग करने से लाभ मिल सकता है।
पूर्व के अध्ययनों में कहा गया था कि योग पीठ के निचले भाग में उठने वाले तेज दर्द के इलाज के लिए लाभकारी हो सकता है। लेकिन कुछ अध्ययनों में कहा गया है कि यह कुछ खास आबादी के लिए उपयोगी है।
इस अध्ययन के लेखक रॉबर्ट सैपर ने कहा है ‘पीठ के निचले भाग में दर्द अक्सर कम आय वाले मरीजों को होता है क्योंकि उनके पास इलाज के लिए न तो पर्याप्त रकम होती है और न ही योग, मालिश या एक्यूपंक्चर जैसे इलाज तक उनकी पर्याप्त पहुंच होती है।’
उनके अनुसार, अगर ऐसे मरीज सप्ताह में एक बार योग करें तो उन्हें समुचित लाभ हो सकता है। साथ ही दैनिक कामकाज करने की उनकी क्षमता में भी सुधार हो सकता है।

सरकारी आवासों में रहने की पात्रता

सरकारी आवासों में रहने की पात्रता की अवधि बीत जाने पर भी उनमें जमे रहने की शिकायत पुरानी है। कब्जा जमाए रखने वालों में सेवानिवृत्त नौकरशाहों और जजों से लेकर पूर्व मंत्रियों-सांसदों, विभिन्न आयोगों के सदस्यों और पत्रकारों तक, रसूख रखने वाले तमाम तरह के लोग शामिल हैं। यह स्थिति हमारे राज-काज की एक बड़ी विडंबना की ओर संकेत करती है। जो कानून का पालन सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी से जुड़े थे, वे खुद नियम-कायदे की अनदेखी करते रहते हैं। आबंटित आवासों पर अनधिकृत कब्जा हटाने का मुद्दा लंबे समय से जब-तब उठता रहा है। पर समस्या जस की तस बनी रही है। प्रभावशाली लोगों का कब्जा हटाने की बात आते ही सरकार मानो खुद को लाचार महसूस करती है। उच्चतम न्यायालय ने कई बार इस मामले में सरकार को फटकार लगाई और जवाब तलब किया। मगर शासन के फौरी तौर पर हरकत में आने के अलावा कुछ नहीं हुआ। पहले शीर्ष अदालत की धारणा थी कि सरकार रिहाइशी सुविधा का दुरुपयोग करने वालों के प्रति नरमी बरत रही है। मगर अब उसे लगता है कि सरकार खुद इस समस्या से पीड़ित है। शायद यही कारण है कि अब जवाब तलब करने के बजाय सर्वोच्च अदालत ने अवैध कब्जों की बाबत दिशा-निर्देश जारी किए हैं।
कानून के मुताबिक अगर किसी कर्मचारी-अधिकारी का तबादला हो जाए तो उसके लिए अधिक से अधिक आठ महीनों में सरकारी मकान खाली कर देना अनिवार्य है। अगर कोई मंत्री अपना पद छोड़ चुका है तो यह अवधि एक महीने की है। मगर चाहे अफसर हों या पूर्व मंत्री-सांसद, वे आबंटित आवास खाली करने के निर्धारित समय की कोई परवाह नहीं करते। कई कर्मचारी या अधिकारी मकान खाली करने के सरकारी आदेश के खिलाफ अदालत की शरण में चले जाते हैं, जिसके पीछे मंशा मामले को लटकाए रखने की ही होती है। लिहाजा, अनधिकृत कब्जा हटाने से संबंधित सरकारी आवास अधिनियम, 1971 कारगर साबित नहीं हो सका है। निजी मकानों पर अवैध कब्जे के मामले तो लाखों में होंगे और वे बरसों-बरस अदालतों में घिसटते रहते हैं।
बहरहाल, उच्चतम न्यायालय ने अपने ताजा आदेश में कहा है कि आबंटी को सेवानिवृत्ति से तीन माह पहले मकान खाली करने का नोटिस भेज दिया जाए। उसे सेवानिवृत्ति से पंद्रह दिन के भीतर मकान खाली करना होगा, अगर जरूरी हो तो सिर्फ एक पखवाड़े की और मोहलत दी जा सकती है। जजों को पद से हटने पर एक महीने में और खास परिस्थितियों में दो माह के भीतर सरकारी आवास छोड़ देना चाहिए। संपदा विभाग के नोटिस का पालन न करने वाले कर्मचारियों-अधिकारियों पर सर्वोच्च अदालत ने दंडात्मक किराया लगाने से लेकर उनका कब्जा बलपूर्वक हटाने तक की हिदायत दी है। मंत्रियों-सांसदों के मामले में अदालत की राय है कि नियम का पालन न करने पर उनके विरुद्ध विशेषाधिकार हनन की कार्रवाई की जानी चाहिए। कई लोग आबंटित बंगले में अतिरिक्त निर्माण करा लेते हैं या अपने पूर्वज या प्रिय महापुरुष का स्मारक बनवा देते हैं। अदालत ने इस पर भी रोक लगाने को कहा है। अब गेंद सरकार के पाले में है। उसे इस बात की बगैर परवाह किए कि अवैध कब्जे किनके हैं, इन दिशा-निर्देशों पर कड़ाई से अमल करना चाहिए। वरना यह समस्या लाइलाज हो जाएगी।

किसी महिला पर तेजाब डालना बलात्कार जैसा ही संगीन अपराध है,

महिलाओं पर तेजाबी हमले की बढ़ती घटनाओं के मद््देनजर सामाजिक संगठनों की ओर से इस मसले पर स्पष्ट और सख्त कानून बनाने की मांग की जाती रही है। उच्चतम न्यायालय भी सरकार को इस बारे में हिदायत दे चुका था। मगर टालमटोल का आलम यह है कि सर्वोच्च न्यायालय को एक बार फिर सरकार को फटकार लगाते हुए यह कहना पड़ा कि वह तेजाब की खुली बिक्री रोकने के मामले में कभी गंभीर नहीं रही है। देश भर में रोजाना लड़कियों पर तेजाबी हमले हो रहे हैं और वे मर रही हैं, मगर केंद्र सरकार ने अब भी इस संबंध में कोई कारगर कदम नहीं उठाया है। अब अदालत ने अगले एक हफ्ते में नीति बनाने में विफल रहने पर खुद ही आदेश पारित करने की बात कही है। करीब तीन महीने पहले सर्वोच्च अदालत ने केंद्र सरकार से कहा था कि वह राज्यों के मुख्य सचिवों के साथ बैठक कर तेजाबी हमलों के पीड़ितों के इलाज और उन्हें मुआवजा देने के साथ-साथ तेजाब की आसान उपलब्धता को रोकने का भी प्रावधान करे। मगर अदालत के निर्देश के बावजूद अभी तक कुछ नहीं हो सका है। सोलह दिसंबर के बलात्कार कांड के बाद यौनहिंसा से संबंधित कानूनों की समीक्षा और उनमें संशोधन सुझाने के लिए केंद्र ने समिति गठित करने में देर नहीं की। फिर समिति की सिफारिशों के मद््देनजर कानून में बदलाव लागू करने के लिए अध्यादेश भी जारी कर दिया। क्या सरकार तभी चेतती है जब हजारों लोग सड़कों पर उतरें?
प्रयोगशालाओं और औद्योगिक इकाइयों में रसायन के तौर पर इस्तेमाल होने वाला तेजाब काफी समय से महिलाओं पर हमले का हथियार भी है। किसी लड़की या स्त्री के चेहरे को विरूप कर देने से उसका जीवन बरबाद हो जाएगा, इसी मंशा से तेजाब फेंका जाता है। इस लिहाज से किसी महिला पर तेजाब डालना बलात्कार जैसा ही संगीन अपराध है, और इसे रोकने के लिए सख्त कानून निहायत जरूरी है। सल्फ्यूरिक अम्ल की दाहक क्षमता इतनी तेज होती है कि उसकी एक बूंद भी किसी व्यक्ति को स्थायी तौर पर अपंग बनाने या जान तक ले लेने के लिए काफी हो सकती है। आसान उपलब्धता के चलते तेजाब पीकर खुदकुशी करने की खबरें भी आती रहती हैं। मगर इतने घातक असर के बावजूद इसके उत्पादन और वितरण पर निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं है। इसमें पानी मिला कर हाइड्रोक्लोरिक अम्ल तैयार किया जाता है जो गुसलखाने की सफाई, मोटर वाहनों में इस्तेमाल होने वाली बैटरियों के नाम पर कहीं भी आसानी से मिल जाता है। इसके निर्माण या उपयोग के दौरान सामान्य रूप से भी दुर्घटनाएं होती रहती हैं।
लेकिन आज यह उन महिलाओं या युवतियों के लिए जानलेवा या जिंदगी भर की त्रासदी साबित हो रहा है जो किसी पुरुष या युवक के इकतरफा प्रेम को स्वीकार करने से मना कर देती हैं। किसी कुंठित या मानसिक रूप से विकृत युवक के तेजाबी हमले की शिकार युवती के दुख का महज अंदाजा लगाया जा सकता है जो अगर जिंदा बच जाती है तो अपने पूरी तरह बिगड़ गए चेहरे या शरीर को ढोते हुए जीने को अभिशप्त होती है। दूसरी ओर, तेजाब फेंक कर भाग जाने वाले बहुत कम हमलावरों की पहचान हो पाती है। इस त्रासदी पर काबू पाने के लिए तेजाब के उत्पादन और बिक्री से संबंधित नियम-कानून सख्त करने होंगे। देर से ही सही, सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से इसकी उम्मीद जगी है।
जनसत्ता से जागरूकता के लिए साभार

उत्तराखंड में शिव का तांडव

उत्तराखंड जब यूपी का अंग था तब भी इसे 'देवभूमि' के रूप में ख्याति प्राप्त थी। अब एक स्वतंत्र राज्य के रूप में इसकी दैवी संपदा का आकर्षण अगर ज्यादा बढ़ा नहीं तो कम भी नहीं हुआ है। इस राज्य के कुल 13 जिलों में सभी किसी न किसी धार्मिक देवी-देवता के मंदिरों, विग्रहों या ऐतिहासिक-पौराणिक संदभों में जुड़े हैं। अप्रैल से जून और फिर सितंबर-अक्टूबर तक पर्यटन के 'महासीजन' में इन स्थलों की रौनक लौट आती है लेकिन समय बीतने के साथ यह रौनक भी सिर्फ भीड़ के जुटाव तक सीमित होती जा रही है। मई में राज्य के दो प्रमुख मंदिरों बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के कपाट खुलने के बाद उमड़ती भीड़ में अब पिछले कुछ सालों से भक्तों, धर्म प्रेमियों से कहीं ज्यादा सैलानियों और मनोरंजन करने वालों की भीड़ उमड़ने लगी।
प्रकृति की इस विनाशलीला से पहले जब हम बदरी-केदार यात्रा पर निकलते थे तो हमारे पुरनियों बताते है कि इस यात्रा पर जाने से पहले हमें अपना-अपना श्राद्ध संपन्न कर लेना पङता था । ऐसी परंपरा के पीछे उद्देश्य यही रहा होगा कि इन तीर्थों से वापसी निश्चित नहीं थी। पूरी बदरी, केदार, गंगोत्री, यमुनोत्री की चार धाम यात्रा सिर्फ भगवान भरोसे ही चलती रही है। घुमावदार चढ़ाई और ढलानों वाली सड़कों, सैकड़ों पुलों से होकर गुजरते यात्री और वाहनों की सुरक्षा का कोई खास प्रबंध नहीं है। कोई लेखा-जोखा नहीं है। सामान्य दिनों में भी लगभग पौने दो हजार किलोमीटर की दुर्गम पहाड़ी यात्रा कि सैकड़ों स्थितियां अब सामने हैं।

मिट्टी के पहाड़ों के बीच से गुजरती छोटी मोटर गाडि़यों को सड़क और हजारों फीट गहरी खाई के बीच सिर्फ पांच-छ: इंच के सड़क के किनारों से होकर गुजरना पड़ता है। कुछ पुल बन रहे हैं, कुछ की मरम्मत हो रही है पर गंदगी और निर्माण के मलबे का चारो ओर साम्राज्य है। भारत के पूर्व सवेर्यर जनरल ऑफ इंडिया और काशी विद्यापीठ के वर्तमान कुलपति डॉ. पृथ्वीश नाग बताते हैं कि भारत में चार धाम यात्रा के दो सर्किट हैं। पहला देशव्यापी (द्वारिका, बदरीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वर) और दूसरा उत्तराखंड तक सीमित है। बदरीनाथ दोनों में साझा है। सांस्कृतिक, धामिर्क तथा भौगोलिक दृष्टि से गुप्तकाशी के काशी विश्वनाथ मंदिर, गौरीकुंड, हरिद्वार, हृषिकेश, जागेश्वर, गोपेश्वर आदि भी महत्वपूर्ण हैं। धार्मिक-सांस्कृतिक क्षेत्र सीमा उत्तर में केदारनाथ से दक्षिण में वाराणसी तक विस्तृत है, जिसके प्रमुख देव शिव हैं। यह अद्वितीय सामंजस्य है। क्षेत्र में कहीं भी कुछ होता है तो पूरा क्षेत्र प्रभावित होता है।
डॉ. नाग की यह धर्म-परंपरा आधारित व्याख्या पर भी गौर करें- 'ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान शिव उत्तराखंड या पूरे भारत देश में हो रहे कथित विकास से प्रसन्न नहीं हैं। यह घटना कहीं आगे आने वाली किसी बड़ी विपदा या विभीषिका का संकेत तो नहीं है? हमारे लिए यह संपूर्ण एवं समग्र आत्मनिरीक्षण का अवसर है। कहीं यह भगवान शिव के 'तांडव' की शुरूआत तो नहीं?' बाजार बनते पहाड़ों की पीड़ा अलग है। सैरगाह में बदलते बदरी-केदार क्षेत्र में हहराती वेगवती नदियों अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी की धाराओं से पहाड़ों की शांति टूटती है परंतु पर्यटन के दिनों में यह पर्वतीय शांति हजारों-हजार वाहनों द्वारा पहाड़ों को रौंद डालने से भयावह लगने लगती है। केदारनाथ की चढ़ाई शुरू होने के स्थल गौरीकुंड पर दो-दो दिनों तक चलने वाला जाम, 'फाटा' हेलीपैड के पास जाम और सड़कों की दुर्दशा सभी इस देवभूमि की उपेक्षा की गवाह हैं।
हाल ही में इलाहाबाद के महाकुंभ में 10 करोड़ लोगों के लिए की गई व्यवस्था से भी कोई सीख नहीं ली गई। शिवालिक क्षेत्र के लिए सीजन में भी विशेष ट्रेन चलाने की किसी को सुध नहीं है। हादसे के बाद ट्रेनें चलाने की घोषणा जरूर की गई है। केदारनाथ की प्राकृतिक आपदा के कारणों के बारे में पूरा राष्ट्र चिंतित है। ग्लेशियर टूट पड़ा, बादल फटा या कोई बांध टूटा- ऐसी अनेक अटकलें या अफवाहें हैं। देश को जल्दी यह मालूम होना चाहिए कि इस दुघर्टना के असली कारण क्या हैं। केदारनाथ मंदिर और चार धाम यात्रा को एक वर्ष या तीन वर्ष के लिए बंद कर देना कोई हल नहीं है। इस क्षेत्र के लिए दूरगामी ठोस योजनाएं बनाकर दुर्गम चार धाम यात्रा का मार्ग सुगम बनाने के लिए वैष्णो देवी के 14 किलोमीटर पहाड़ी मार्ग को सुधारने के ऐतिहासिक प्रयास को मॉडल के रूप में लिया जा सकता है।
      पूरे उत्तराखंड में एक खास कानून की अनदेखी की गई है। इस कानून के अनुसार 5000 फीट से अधिक ऊंचाई वाले वनक्षेत्रों के वृक्ष कतई काटे नहीं जाने चाहिए, पर वृक्ष कटते रहे हैं। सुंदरलाल बहुगुणा और चंडीप्रसाद भट्ट जैसे पर्यावरण-समर्पित व्यक्तित्वों का अशक्त होना खलता है। हजारों साल पुराने मंदिर और आस्था के केंद्रों की यह देवभूमि पहली बार इतनी भीषण प्राकृतिक आपदा से क्षत-विक्षत है। इस क्षेत्र में पुनर्वास का काम बहुत कठिन है और इसमें बड़ी बाधा साधनों के अभाव की है। अभी तो सीमा सड़क संगठन और भारतीय सेना को इस आपदा में सराहनीय राहत कामो के लिए बधाई देनी चाहिए, लेकिन इस क्षेत्र के प्राथमिकता पर आधारित विकास और संरक्षण के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति और संसाधनों का जो टोटा दिखाई पड़ रहा है, उसके संकेत अच्छे नहीं हैं। 
 किंजल कुमार

उत्तराखंड में तबाही की सच्चाई

हफ्तों से ऊपर हो गया। दिल-ओ-दिमाग पर हिमालय की बाढ़ के दृश्य छाए हुए हैं। खुली आंखों से जो टीवी पर दिख रहा है, आंख बंद करते ही कल्पना में भी वही बर्बादी के मंजर हैं। और बर्बादी का अंदाजा तक सही से नहीं लग पा रहा है। जो इलाके प्रभावित हुए हैं उन तक पहुंचा भी नहीं जा रहा है। इसलिए जैसे-जैसे बाढ़ का पानी उतर रहा है, बर्बादी के अंदाजे और बड़े, और भयावह होते जा रहे हैं।
बर्बादी के जितने भी अंदाजे लगाए जा रहे हैं, उनमें एक बात विशिष्ट है। मरने वालों की तादाद। शुरुआत 200 लोगों की मौत से हुई थी। फिर उत्तराखंड के सीएम ने कहा कि एक हजार लोग मरे हैं। फिर राज्य के आपदा प्रबंधन मंत्री ने कहा कि मरने वालों की तादाद 5000 तक पहुंच सकती है। अब अंदाजे लगाने का तो ऐसा है कि जिसका जो जी करे उतनी संख्या बता दे। समस्या यह है कि सभी अंधेरे में तीर चला रहे हैं क्योंकि सचाई यह है कि हमें कभी पता नहीं चलेगा कि असल में कितने लोग मारे गए। ऐसी डरावनी बात कहने के पीछे मेरा आधार हिमालय का दुर्गम इलाका है। कई कस्बे तो पूरे के पूरे गाद के नीचे कई-कई फुट तक दब गए हैं। उनमें कितने लोग मारे गए होंगे, इसका कभी पता नहीं चल पाएगा। जो लोग बह गए हैं, हो सकता है वे आगे जाकर धारा में कहीं मिल जाएं। लेकिन बहुत संभव है कि बहुत सारे लोग ऐसे इलाकों से लापता हुए होंगे जहां तक पहुंचा ही नहीं जा सकता। वे अब कभी नहीं मिलेंगे। जो कस्बे कई फुट गाद के नीचे दबे हैं, उन तक पहुंचना भी असंभव है। अब अगर कोई निर्माण होगा भी तो उसके ऊपर ही होगा। यानी कभी पता नहीं चलेगा कि नीचे कौन था, क्या था। बहुत सारे लोगों को लगेगा कि मैं कैसी बातें कर रहा हूं। दुखद है, कड़वी है, बहुत उदास करने वाली है, पर यही सचाई है।


अब हमारी कोशिश होनी चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा प्रभावित लोगों तक पहुंच सकें। स्थानीय लोगों के अलावा वहां टूरिस्ट और श्रद्धालु भी हैं। चार धाम यात्रा चल रही थी इसलिए श्रद्धालुओं की संख्या बहुत ज्यादा है। और गर्मी होने की वजह से पहाड़ों पर इस वक्त टूरिस्ट भी ज्यादा होते हैं। इनमें से लोकल लोगों की संख्या का तो पता लगाया जा सकता है क्योंकि सरकार के पास जनगणना का डेटा होगा। लेकिन टूरिस्ट और श्रद्धालुओं की सही-सही संख्या का पता कैसे लगेगा? धाम यात्राओं में एंट्री भले ही रेग्युलेटेड हो, लेकिन यह रेग्युलेशन सिर्फ एंट्री पॉइंट पर होता है। लेकिन उन लोगों की संख्या भी तो हजारों में होती है जो धाम तक पहुंच जाते हैं और फिर अपनी बारी का इंतजार करते हैं। इसी तरह टूरिस्टों की संख्या का भी बस अनुमान ही लगाया जा सकता है। हालांकि सरकार में टूरिस्टों की संख्या को लेकर भी बहसबाजी हो रही है, लेकिन कितने लोग आपदा का शिकार हुए और कितने लौट पाए, इसका बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है। जहां तक बचाव कार्यों का सवाल है तो यह सोचकर भी मन कांप उठता है कि ऐसे ऑपरेशन में आर्मी और पैरा मिलिट्री के जवान काम न करते तो क्या होता। हमारे पास राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अथॉरिटी है। राज्य सरकार का भी आपदा नियंत्रण विभाग है। लेकिन जब काम करने का मौका आता है ये किसी काम के नहीं रहते। इनमें रीढ़हीन रिटायर्ड बाबू भरे हुए हैं जो सरकरी घर, गाड़ियों और ऐसी सुविधाओं की खातिर अपने सरकारी आकाओं के सामने मिमियाने लगते हैं। और जब जरूरत पड़ती है तो या तो ये लोग गायब होते हैं, या फिर इन्हें पता ही नहीं होता कि क्या करना है और कैसे करना है। इस बार भी कहीं थोड़ी-बहुत कार्रवाई होगी, कई वादे किए जाएंगे। लेकिन कुछ वक्त बाद सब जस का तस हो जाएगा। रिटायरमेंट के बाद पोस्टिंग्स ऐसे ही अंधे की रेवड़ियों की तरह बंटती रहेंगी।
हमेशा सेनाएं ही काम आती हैं। फिर लोगों का यह सोचना कहां गलत है कि जब देश को जरूरत पड़ती है तो सेना के जवान ही हैं जो अपनी जान पर खेलकर भी काम आते हैं। और जब सेनाओं की तारीफ हो रही है, तब कुछ शब्द ऐसी संस्थाओं के लिए भी लिखे जाने चाहिए जिन्हें मीडिया, खासकर अंग्रेजी मीडिया सिर्फ कोसता है। जैसे आरएसएस और बाबा रामदेव के स्वयंसेवक। प्रभावित इलाकों में सबसे पहले ये स्वयंसेवक ही पहुंचे थे। बहुत से लोगों की जान इन्हीं स्वयंसेवकों की कोशिशों, उनकी फर्स्ट एड और उनके लाए खाने की वजह से बची।
किंजल कुमार