Thursday 11 July 2013

उत्तराखंड में शिव का तांडव

उत्तराखंड जब यूपी का अंग था तब भी इसे 'देवभूमि' के रूप में ख्याति प्राप्त थी। अब एक स्वतंत्र राज्य के रूप में इसकी दैवी संपदा का आकर्षण अगर ज्यादा बढ़ा नहीं तो कम भी नहीं हुआ है। इस राज्य के कुल 13 जिलों में सभी किसी न किसी धार्मिक देवी-देवता के मंदिरों, विग्रहों या ऐतिहासिक-पौराणिक संदभों में जुड़े हैं। अप्रैल से जून और फिर सितंबर-अक्टूबर तक पर्यटन के 'महासीजन' में इन स्थलों की रौनक लौट आती है लेकिन समय बीतने के साथ यह रौनक भी सिर्फ भीड़ के जुटाव तक सीमित होती जा रही है। मई में राज्य के दो प्रमुख मंदिरों बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के कपाट खुलने के बाद उमड़ती भीड़ में अब पिछले कुछ सालों से भक्तों, धर्म प्रेमियों से कहीं ज्यादा सैलानियों और मनोरंजन करने वालों की भीड़ उमड़ने लगी।
प्रकृति की इस विनाशलीला से पहले जब हम बदरी-केदार यात्रा पर निकलते थे तो हमारे पुरनियों बताते है कि इस यात्रा पर जाने से पहले हमें अपना-अपना श्राद्ध संपन्न कर लेना पङता था । ऐसी परंपरा के पीछे उद्देश्य यही रहा होगा कि इन तीर्थों से वापसी निश्चित नहीं थी। पूरी बदरी, केदार, गंगोत्री, यमुनोत्री की चार धाम यात्रा सिर्फ भगवान भरोसे ही चलती रही है। घुमावदार चढ़ाई और ढलानों वाली सड़कों, सैकड़ों पुलों से होकर गुजरते यात्री और वाहनों की सुरक्षा का कोई खास प्रबंध नहीं है। कोई लेखा-जोखा नहीं है। सामान्य दिनों में भी लगभग पौने दो हजार किलोमीटर की दुर्गम पहाड़ी यात्रा कि सैकड़ों स्थितियां अब सामने हैं।

मिट्टी के पहाड़ों के बीच से गुजरती छोटी मोटर गाडि़यों को सड़क और हजारों फीट गहरी खाई के बीच सिर्फ पांच-छ: इंच के सड़क के किनारों से होकर गुजरना पड़ता है। कुछ पुल बन रहे हैं, कुछ की मरम्मत हो रही है पर गंदगी और निर्माण के मलबे का चारो ओर साम्राज्य है। भारत के पूर्व सवेर्यर जनरल ऑफ इंडिया और काशी विद्यापीठ के वर्तमान कुलपति डॉ. पृथ्वीश नाग बताते हैं कि भारत में चार धाम यात्रा के दो सर्किट हैं। पहला देशव्यापी (द्वारिका, बदरीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वर) और दूसरा उत्तराखंड तक सीमित है। बदरीनाथ दोनों में साझा है। सांस्कृतिक, धामिर्क तथा भौगोलिक दृष्टि से गुप्तकाशी के काशी विश्वनाथ मंदिर, गौरीकुंड, हरिद्वार, हृषिकेश, जागेश्वर, गोपेश्वर आदि भी महत्वपूर्ण हैं। धार्मिक-सांस्कृतिक क्षेत्र सीमा उत्तर में केदारनाथ से दक्षिण में वाराणसी तक विस्तृत है, जिसके प्रमुख देव शिव हैं। यह अद्वितीय सामंजस्य है। क्षेत्र में कहीं भी कुछ होता है तो पूरा क्षेत्र प्रभावित होता है।
डॉ. नाग की यह धर्म-परंपरा आधारित व्याख्या पर भी गौर करें- 'ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान शिव उत्तराखंड या पूरे भारत देश में हो रहे कथित विकास से प्रसन्न नहीं हैं। यह घटना कहीं आगे आने वाली किसी बड़ी विपदा या विभीषिका का संकेत तो नहीं है? हमारे लिए यह संपूर्ण एवं समग्र आत्मनिरीक्षण का अवसर है। कहीं यह भगवान शिव के 'तांडव' की शुरूआत तो नहीं?' बाजार बनते पहाड़ों की पीड़ा अलग है। सैरगाह में बदलते बदरी-केदार क्षेत्र में हहराती वेगवती नदियों अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी की धाराओं से पहाड़ों की शांति टूटती है परंतु पर्यटन के दिनों में यह पर्वतीय शांति हजारों-हजार वाहनों द्वारा पहाड़ों को रौंद डालने से भयावह लगने लगती है। केदारनाथ की चढ़ाई शुरू होने के स्थल गौरीकुंड पर दो-दो दिनों तक चलने वाला जाम, 'फाटा' हेलीपैड के पास जाम और सड़कों की दुर्दशा सभी इस देवभूमि की उपेक्षा की गवाह हैं।
हाल ही में इलाहाबाद के महाकुंभ में 10 करोड़ लोगों के लिए की गई व्यवस्था से भी कोई सीख नहीं ली गई। शिवालिक क्षेत्र के लिए सीजन में भी विशेष ट्रेन चलाने की किसी को सुध नहीं है। हादसे के बाद ट्रेनें चलाने की घोषणा जरूर की गई है। केदारनाथ की प्राकृतिक आपदा के कारणों के बारे में पूरा राष्ट्र चिंतित है। ग्लेशियर टूट पड़ा, बादल फटा या कोई बांध टूटा- ऐसी अनेक अटकलें या अफवाहें हैं। देश को जल्दी यह मालूम होना चाहिए कि इस दुघर्टना के असली कारण क्या हैं। केदारनाथ मंदिर और चार धाम यात्रा को एक वर्ष या तीन वर्ष के लिए बंद कर देना कोई हल नहीं है। इस क्षेत्र के लिए दूरगामी ठोस योजनाएं बनाकर दुर्गम चार धाम यात्रा का मार्ग सुगम बनाने के लिए वैष्णो देवी के 14 किलोमीटर पहाड़ी मार्ग को सुधारने के ऐतिहासिक प्रयास को मॉडल के रूप में लिया जा सकता है।
      पूरे उत्तराखंड में एक खास कानून की अनदेखी की गई है। इस कानून के अनुसार 5000 फीट से अधिक ऊंचाई वाले वनक्षेत्रों के वृक्ष कतई काटे नहीं जाने चाहिए, पर वृक्ष कटते रहे हैं। सुंदरलाल बहुगुणा और चंडीप्रसाद भट्ट जैसे पर्यावरण-समर्पित व्यक्तित्वों का अशक्त होना खलता है। हजारों साल पुराने मंदिर और आस्था के केंद्रों की यह देवभूमि पहली बार इतनी भीषण प्राकृतिक आपदा से क्षत-विक्षत है। इस क्षेत्र में पुनर्वास का काम बहुत कठिन है और इसमें बड़ी बाधा साधनों के अभाव की है। अभी तो सीमा सड़क संगठन और भारतीय सेना को इस आपदा में सराहनीय राहत कामो के लिए बधाई देनी चाहिए, लेकिन इस क्षेत्र के प्राथमिकता पर आधारित विकास और संरक्षण के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति और संसाधनों का जो टोटा दिखाई पड़ रहा है, उसके संकेत अच्छे नहीं हैं। 
 किंजल कुमार

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