Wednesday 5 June 2013

कहा से? कहा को जा रहे है?

अगर हम ये कहे तो गलत नहीं होगा की मानव अपने आप में पर्यावरण से इतर कोई अलग इकाई नहीं है। वह पर्यावरण के प्राकृतिक घटक का ही एक अंग है और उसका अस्तित्व प्रकृति पर ही टिका हुआ है। हमारे प्राचीन ऋषि मुनि इस तथ्य से भली-भाँति परिचित थे कि "जड़ जगत" यानी भूमि, जल, पहाड़, वायु, वनस्पतियों, वन्यजीव, नदी-नाले एवं "चेतन जगत" यानी मनुष्य के पारस्परिक समानुपातिक सामंजस्य से ही पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी तन्त्र में संतुलन कायम रहता है। पारिस्थितिकी तन्त्र के किसी घटक के नष्ट होने से उसका दुष्परिणाम सम्पूर्ण पर्यावरण को भोगना पड़ता है।
ॠग्वेद, उपनिषद और जातक कथाओं से लेकर पुराणों तक में भारतीय संस्कृति की प्रकृति संरक्षण सम्बन्धी चिरन्तन धारा विद्यमान रही है। भारतीय ऋषि मुनियो ने प्राकृतिक शक्तियों को देवी-देवताओ का स्वरूप माना। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि वगैरह देव माने गए तो नदियाँ पवित्र देवियाँ और पृथ्वी को माँ। वृक्ष देवों के वास-स्थल बने तो वही कुएँ, तालाब और बावड़ियों के धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व भी उभरे। पशु-पक्षियों को देवताओं का वाहन बनाकर इन्हें श्रेष्ठता प्रदान की गयी तो गाय-बैल भारतीय लोकजीवन में कितने समाहित हुए, इससे शायद ही कोई अनजान हो।
मगर समय का चक्र बहुत कुछ बदल देता है। उन्नीसवीं सदी में हुई औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् मानव की लालसा को पंख लग गए। उपभोक्तावादी जीवन-मूल्यों का विकास होने लगा। भारतीय भी इस जीवन-पद्धति के प्रवाह से अपने को बचा नहीं सके। फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का बेलगाम सिलसिला शुरू हो गया। इस सन्दर्भ में जो भी पारम्परिक अनुशासन और मर्यादाएं थीं, सब ताक पर रख दी गई। परिणामत: आज समस्त विश्व पर्यावरण प्रदूषण और पारिस्थितिकी असंतुलन की भयावह समस्या से आक्रांत है। अभी न हमारी नदियों का जल शुद्ध रह गया है और न वायुमण्डल। भूगर्भीय जल भी अर्सेनिक और फ्लूराइड जैसे तत्वों से जहरीला होने लगा है। यहाँ तक कि अन्तरिक्ष में भी प्रदूषण के कदम पड़ चुके हैं और यह सब हो रहा है- विकास के नाम पर। पुराने समय में पर्यावरण को लेकर कैसी सोच थी, इसे समझने में ‘मत्स्यपुराण'  का यह कथन दृष्टव्य है-
‘‘दशकूप समावापी, दशवापी समोहृद:।
दश हृद सम: पुत्रो, दश पुत्र समोवृक्ष:।।"
इसमें बताया गया है कि दस कुओं के समतुल्य एक बावड़ी है। दस बावडियों के बराबर एक तालाब है। दस तालाबों के सदृश्य एक पुत्र है और दस पुत्रों के समान एक वृक्ष होता है। सोचिये कभी इतना समाहित था लोकजीवन में वृक्ष! जरूरत होने पर भी लोग हरे वृक्ष को नहीं काटते थे। यह जनश्रुति मिलती है कि राजस्थान में खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा में माहेश्वरी समुदाय के लोगों ने प्राण तक न्योछावर कर दिए थे। मगर बीसवीं सदी के आठवें दशक तक आते-आते पैसे की लिप्सा ऐसी बलवती हुई कि आम, महुआ, जामुन जैसे फलदार वृक्ष बेचे-काटे जाने लगे। सघन छांव वाले गांव बंजर उजाड़ होते गए।
ऊर्जा, ईंधन और इमारती लकड़ी के लिए पिछले सौ साल से जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला जारी है। एक समय तो ऐसा आ गया था, जब लगने लगा था कि अब पहाड़ सदैव के लिए नंगे-बूचे हो जायेंगे। किन्तु सुन्दरलाल बहुगुणा के ‘चिपको आन्दोलन' का इस दिशा में सकारात्मक परिणाम आया। इससे पर्वतीय क्षेत्रों में अनियन्त्रित कटान पर तो रोक लगी ही, वृक्षारोपण को प्राणवायु भी मिल गई। वृक्ष सिर्फ कार्बन डाई आक्साइड का अवशोषण करके आक्सीजन का उत्सर्जन ही नहीं करते, बल्कि मृदा संरक्षण और परिवर्धन का गुरुतर दायित्व भी निभाते हैं।
जहाँ जंगल कटते हैं, उस क्षेत्र में अपक्षयन की क्रिया आरम्भ हो जाती है। बरसात के समय वहाँ की मृदा को प्राकृतिक संरक्षण नहीं मिल पाता। फलस्वरूप भूक्षरण में वृद्धि होने लगती है। कुछ वर्षों में उस क्षेत्र की मृदा का पूर्णतया सफाया हो जाता है और अन्दरूनी सिल्ट सतह पर आ टिकती है। ऐसी स्थिति में वह इलाका बंजर में परिवर्तित होने लगता है। मृदा के अभाव में वर्षा का पानी पृथ्वी में अवशोषित होने के बजाय सीधे स्थानीय नदी-नाले में मात्र कुछ घंटों में समा जाता है। इसके तीव्र बहाव में आस-पास के कृषि भूमि की मृदा भी कटने लगती है। पृथ्वी के दो-तीन इंच के ऊपरी भाग में एंथ्रोपोड्स, प्रोटोजोआ, कवक, गोलक्रिमियाँ आदि रहती हैं। मृदा व ह्यूमस के निर्माण तथा मिट्टी की उर्वरकता की संरक्षा में इनका अहम् स्थान है। कटान के साथ यह पूरा सूक्ष्म तन्त्र भी अपक्षयन की भेंट चढ़ जाता है। भूमि की उर्वराशक्ति की कमी से कृषि घाटे का सौदा बन जाती है। लिहाजा कृषि से जुड़ें व्यक्ति रोजी की तलाश में शहरों की तरफ भागते हैं। इससे शहरों में स्वच्छता, शुद्ध पेय जलापूर्ति और मलिन बस्तियों में वृद्धि की समसया पैदा होती है जो अन्तत: शहरों की प्रदूषणकारी स्थितियों को और जटिल बनाती हैं।
पृथ्वी की सतह की सिल्ट वर्षा के पानी के साथ बहकर नदी-नालों के पेंदे में पहुँच जाती है। जिसके कारण मृदा और बालू से नदियों-नालों के प्रवाह क्षेत्र की चौड़ाई और गहराई संकुचित हो जाती है। फलत: उनके प्रवाह क्षेत्र के लोगों को बाढ़-बूड़ा का प्रकोप झेलना पड़ता है। घाघरा, राप्ति, कोसी, बूढ़ी गंडक, दमोदर, यमुना आदि नदियों में प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ के पीछे इनके प्रवाह क्षेत्र के आसपास के वनों का विनाश भी मूल कारण है। वनों पर मानव अतिक्रमण का परिणाम है-  वन्य जीवों का गाँवों के आस-पास विचरण! हाथी, हिरन, बाघ, तेन्दुआ, लकड़बग्घा जैसे जंगली जानवर कृषि और रिहाइशी क्षेत्र में आकर जान-माल के लिए खतरा बनते हैं। कई ऐसे भी वन्य जीव हैं, जो अपने प्राकृतिक वास के छिनने के बाद संसार से लुप्त होते जा रहे हैं। गिद्ध, कठफोडवा जैसे जाने-पहचाने पक्षी ऐसे ही संकटग्रस्त स्थिति से गुजर रहे हैं। अति दोहन के फलस्वरूप कई औषधीय महत्व की वनस्पतियाँ जो पहले खूब दिखती थीं, अब खोजने पर भी नहीं मिलतीं। यह पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन का मामला है, जिसके प्रदूषण सम्बन्धी दूरगामी दुष्परिणाम सामने आते हैं।

सन् 2011 की ‘भारतीय वन आख्या' के अनुसार, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के 23.81 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है। जबकि पचास साल पहले देश का 40 प्रतिशत भूभाग वनों से आच्छादित था।
अब कुओं, बावड़ियों का अस्तित्व मिटता जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धता बताते हुए तालाब निरन्तर पाटे जा रहे हैं। जल भण्डारण के इन पारम्परिक संसाधनों के नष्ट होने का नतीजा है कि भूगर्भीय जल स्तर निरन्तर नीचे भाग रहा है।
वायु जो हमारे जीवन का आधार है, लगातार विषैली होती जा रही है। बढ़ते औद्योगीकरण और स्वचालित वाहनों से निकलने वाला धुँआ वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण है। धुएं में मुख्य तौर पर कार्बन डाई आक्साइड, वैजोपाइरीन, कार्बन मोनोआक्साइड, सल्फर ट्राई आक्साइड, अधजले पेट्रोल का वाष्प, गंधक के आक्साइड, अधजले हाइड्रोकार्बन, नाइट्रोजन के विभिन्न आक्साइड, राख आदि हैं। यह मानव स्वास्थ्य से लेकर ओजोन छतरी को भी क्षतिग्रस्त कर रहे हैं।
मौसम विज्ञानियों के अनुसार, वायुमण्डल में घुले और तैरते प्रदूषक पृथ्वी के मौसम चक्र और गर्मी-सर्दी को प्रभावित कर रहे हैं। एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि वायु के अन्दर धुएँ का सघन प्रदूषण, पी०एम०-10 नाम के काले जहर के रूप में परिणत हो रहा है। यह सांस के जरिये फेफड़े में जाता है और हृदयाघात व कैंसर जैसी बीमारियों का कारण बनने लगा है। देश की नदियों का हाल और खराब है। नदियाँ अपने तटवर्ती नगरों का मलिन जल तो ढोती ही हैं, यहाँ स्थित चमड़ा, रसायन, कागज, चीनी, इस्पात संयंत्र, उर्वरक, खाद्य प्रसंस्करण, रंगाई-छपाई आदि उद्योगों का अपशिष्ट जल भी इसमें गिराया जाता है। योजना आयोग की स्वीकृति है कि ‘उत्तर की डल झील' से लेकर दक्षिण की पेरियार और चालियार नदियों तक, पूरब में दामोदर तथा हुगली से लेकर पश्चिम की ढाणा नदी तक जल प्रदूषण की स्थिति भयावह है।' नदी जल का तापमान, क्षारीयता, कठोरता, क्लोराइड की मात्रा, पी.एच.मान., बी.ओ.डी. आदि में लगातार असंतुलन पैदा हो रहा है। अब यह न्यूनतम स्तर से बहुत आगे और जटिल हो चुका है। हुगली, दमोदर, चम्बल, तुंगभद्रा, वरुणा, सोन, कावेरी, हिंडन, गोमती, सई, तमसा जैसी कई नदियों में मत्स्य प्रजातियाँ, जलीय जीव और शैवाल सदैव के लिए समाप्त होते जा रहे हैं। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, इनमें कई नदियाँ मौत की दिशा में बढ़ रही हैं।
जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी की सबसे जटिल चुनौतियों में से एक है। इसके प्रभाव से कोई देश अछूता नहीं है। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों से कोई देश अकेले नहीं निपट सकता। जलवायु परिवर्तन का विकास, आपदा और निर्धनता से निकट का संबंध है।
हमारे पर्यावरण का ये संकट हमे सोचने पर मजबूर कर रहा है की विकाश की अंधी भागम भाग में हम अपने अस्तित्व को कहा खोते जा रहे है? हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए किस सौगात की रचना कर रहे है? सन् 1992 में रियो-डि-जानिरो में सम्पन्न ‘पृथ्वी शिखर सम्मेलन' मे पर्यावरण के संरक्षण, संवद्र्धन और संपोषण के मुद्दे को जन सामान्य के बीच जिस प्रकार की चर्चा और स्वीकृति मिली थी, वह शुभ लक्षण थे। वास्तव में पर्यावरण संरक्षा के कितने भी कानून बनाए जाएं, कैसी भी कल्याणकारी योजनाओं की उद्घोषणा हो, जन सामान्य की प्रतिबद्धता के अभाव में वह अर्थहीन ही रहेगी। किन्तु आज की तारीख में नई विश्व व्यवस्था के निर्माण और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पर्यावरण के सवाल को जैसा महत्व मिल रहा है, वह आने वाली उम्मीदों भरी नई सुबह का आगाज दिखाती है।
किंजल कुमार

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