Tuesday 24 November 2015

हमारा समाज और आधी आबादी



हमारे भारत देश में एक छोटा सा मुहावरा बहुत ही प्रचलित है बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी जिसका आम जनजीवन में बस इतना सा अर्थ होता है की जब कोई इंसान किसी मुसीबत से बड़ी ही मुश्किल से बाहर आता है तो ये मुहावरा उसके लिए बोल दिया जाता है। वही दूसरी ओर अगर इस मुहावरे के अर्थों को अगर किसी ने समझने की कोशिश की तो वो यह पायेगा की बकरा एक न एक दिन बली जरूर होगा ओर उसकी माँ उसकी सलामती कब तक कर पायेगी। ये तो रही एक आम से बकरे की कहानी लेकिन हमारे ही समाज में यही मुहावरा हर उस माँ पर लागू हो जाता है जो की एक लड़की की माँ हो। आखिर वो कब तक ख़ैर मनाएगी सबसे पहले उस नन्ही सी बच्ची को इस दुनिया में लाने की जद्दोजहत, उसके बाद उस बच्ची को इस समाज में व्याप्त कुरीतियों बुरी नजरों से अलग रख कर उसके बेहतर भविष्य के लिए जद्दोजहत और अंत में उसका संसार किसी और के हाथों में रख कर उसके सुखी संसार की कामना करने की जद्दोजहत, और इन सबके बीच बात की जाए उस बच्ची की तो सबसे पहले यहीं कहना चाहूँगा की वो बच्ची न तो इस दुनिया में आने से पहले सुरक्षित होती है और न ही इस दुनिया में जन्म लेने के बाद।
       माँ की ममता का हक़ तो चूजे को भी होता है लेकिन हमारे समाज में आधी आबादी कही जाने वाली महिला शक्ति की जड़ तो जन्म से ही कमजोर होती है, कहने का मतलब ये है की पुरुष प्रधान वाला हमारा समाज एक नन्ही सी बच्ची को उसकी माँ की ममता की छाँव में सिर्फ इसलिए नहीं आने देता क्यूंकी उन्हें लड़की नहीं लड़का चाहिए।
       पिता के साथ का हक़ तो परिंदों को भी होता है लेकिन हमारे में लड़की को पिता का साथ न तो जन्म से पहले मिल पता है न बाद में। इस संसार में माँ के बाद पिता ही वो व्यक्तित्व होता है जिसका साथ हर बच्चा चाहता है लेकिन वो पिता अपना साथ सिर्फ बेटे को देता है बेटी को तो पिता का साथ तो दूर इस संसार में आने का हक़ भी वही पिता छीन लेता है।
       हमारे इस आधुनिक दौर में कुछ कहते हैं की पश्चिमी सभ्यता को तेजी से अपनाने के कारण और शरीर पर कम कपड़ों के होने के कारण ही लड़कियों के साथ बद्दतमीजी, छेड़छाड़ और बलात्कार जैसी घटनाएँ होती हैं लेकिन वही लोग ये क्यों नहीं देखते की पश्चिमी देशों में महिलाएं उनही कपड़ो में कितनी सुरक्षित हैं। अगर हमारे देश की लड़की पश्चिमी सभ्यता को तेजी से अपना रही है तो लड़के भी तो उतनी ही तेजी से पश्चिमी सभ्यता में ढल रहें हैं, पश्चिमी सभ्यता जैसा हाव भाव, पश्चिमी देशों में नौकरी का रुझान, पढ़ाई का रुझान और बर्गर से लेकर पिज्जा जैसे खान पान का रुझान सभी तो बढ़ा है हमारे समाज में हमारे देश के युवकों में लेकिन अगर अपनी संस्कृति और सभ्यता की मान रखने की बात की जाए तो मात्र यही याद रहता है की हमारे समाज में महिलाएं घर की इज्जत हैं उन्हें घर की दहलीज़ में रखो, धक कर रखो।
       हम कहीं न कहीं भूलते से जा रहें है की ये महिलाएं देवी का स्वरूप भी है जो क्रोध आने पर शक्ति, काली और चामुंडा का भी रूप लेती है, ममता स्नेह आने पर माँ का रूप भी ले सकती है और पति के प्राण बचाने के लिए देवी सती भी बन सकती है।
       माँ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया का पहला शब्द है जिसे बच्चा जन्म लेने के बाद और किसी शब्द से पहले बोलता है। माँ एक बच्चे के लिए वो संसार है जिसके आगे पूरी दुनिया छोटी सी दिखाई पड़ने लगती है। माँ ही इस दुनिया में एक नए जीवन का उद्गम द्वार है, और यही माँ एक स्त्री या महिला है, यही माँ किसी की बहन है तो किसी की बेटी है और किसी की जीवनसंगिनी, और यहीं माँ हमारे समाज, सभ्यता और संस्कृति में देवी का स्वरूप और हमारे इसी समाज, सभ्यता और संस्कृति का वो काला सच भी है जिसे हमारी दुनिया में आने से पहले ही ख़त्म कर दिया जाता है।
       जिसकी मूर्तियाँ बना कर ये समाज पूजता है, उनके चरणों में नमन करता है, उसी देवी के दूसरे स्वरूप को इसी समाज में जन्म लेने का अधिकार छीन लिया जाता है, जहां देवी के स्वरूप में पत्थरों के प्रति श्र्धा भाव होता हैं, वही दूसरी ओर स्त्रियों के प्रति हीन और त्रिस्कार का भाव होता है।
       हमारे समाज में जहां एक ओर स्त्रियों को देवी के स्वरूप में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है वहीं आम जीवन स्त्रियों को अपना वजूद बनाने के लिए बहुत ही मुश्किल लड़ायी लड़नी पड़ रही है।



आख़िर तेरी जिद के आगे ख़त्म हो गयी उसकी दुनिया,
आख़िर तेरे मान के आगे ख़त्म हो गया उसका स्वाभिमान,
आख़िर तेरी सोच के आगे ख़त्म हो गया उसका संसार,
एक दिन जब तू ढूँढने निकलेगा उसके निशां,
तब तेरे ही कदमों के नीचे लुप्त हो जाएंगे तेरे ही निशां।

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