Sunday, 11 September 2011

‘‘मछली.मछली कितना पानी’’

Sansad Bhawan By chiragan
बचपन में हम एक खेल खेला करते थे। ‘‘मछली.मछली कितना पानी’’ पानी का स्तर जैसे-जैसे कम होते जाता, मछली जल के लिए तड़फने लगती और अंत में मर जाती है। कल जो संसद के भीतर सत्तापक्ष और तमाम विपक्ष ने जो खेल खेला इससे कम से कम हमें तो यही प्रतीत होता है कि इस देश को इन चुने हुए सांसदों ने मिलकर देश को तमाशा बना दिया है। बढ़ती मंहगाई और चारों तरफ व्याप्त भ्रष्टाचार पर किस तरह काबू पाया जाए इसकी किसी को चिंता नहीं दिखी धारा 184 के तहत इस बहस को लेकर तो सत्ता पक्ष, ना ही विपक्ष गंभीर दिखाई दिया। मत विभाजन मात्र आम जनता को धोखा देने का एक नाटक बन कर रह गया संसद में। सवाल उठता है कि यदि पक्ष और विपक्ष का यही हाल हमें संसद में देखने को मिला तो संसद को बनाने और इसे चलाने के सवाल पर सीधा सा प्रश्न चिन्ह क्यों खड़ा किया जा सकता है कि फिर हमें इसे बनाने और इसे चलाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च करने की जरूरत ही क्या है? देश के चुने हुए सांसदों के बयानों से अब आम जनता को बड़ी निराशा होने लगी है। संसद के अंदर और संसद के बाहर जैसे शब्दों का प्रयोग कर सत्ता और विपक्ष ने यह प्रमाणित कर दिया कि अब संसद के अंदर जाने वाले लोग देश के हित में सोच ही नहीं सकते उनका उद्देश्य सिर्फ जनता को गुमराह करना है बल्की संसद का प्रयोग भी खुद के राजनैतिक स्वाथों की पूर्ति के लिए करना है। सबके सब इस बात पर चिंता व्यक्त करते दिखे कि अन्ना हजारे संसद के बहार खड़ा होकर संसद को चुनौती दे रहे हैं जो लोकतंत्र के लिए खतरा बन चुका है।

Sansad Bhawan2 By Chiragan

दरअसल में ये सभी मिलकर ‘‘मछली.मछली कितना पानी’’ का खेल, खेल रहें हैं। इस खेल का परिणाम इनको पहले से ही मालूम है कि क्या होने वाला है। जनता चारों तरफ से खुद को ठगी सी महसूस करने लगी। एक तरफ लोकतांत्रिक ढांचे के द्वारा चुने हुए तानाशाहों की जमात तो दूसरी तरफ आम जनता आमने-सामने हो चुकी है। कल की बहस हमने देख ली और आज समाचार पत्रों में पढ़ भी लिया होगा। कल का दिन मंहगाई के बली चढ़ गया। भाजपा के नेताओं को बोलते-बोलते भूख लग गई सो देश की जनता अपने टी.वी.सेट को ताकती रह गई। नेतागण खाने चले गये। पुनः संसद की कार्यवाही शुरू हुई तो 90प्रतिशत सांसद पक्ष-प्रतिपक्ष नेता, उपनेता सबके सब संसद से नदारत दिखे। आज लोकपाल बिल पर भी कुल इसी प्रकार की बहस की उम्मिद हम इन भूखरों से करते है जो सिर्फ संसद अंदर मुफ्त का माल गटगते हैं देश को भी भीतर ही भीतर खोखला करते जा रहें हैं।
ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि क्या जिस चुनावी ढांचे के अंर्तगत हम इन बेईमानों को चुनकर संसद में भेजते है क्यों हम इस व्यवस्था को ही मूलरूपेन बदल डालें? इसके लिए जनता को बगावत करनी होगी और यह तभी संभव हो सकेगा जब कोई छोटी सी ही सही एक इमानदार राजनैतिक दल को इस आंदोलन से जुड़कर सिर्फ सत्ता परिवर्तन की बात करनी होगी। देश की वर्तमान संसदीय प्रणाली को भी बदलने के लिए कारगार कदम उठाने के वादे जनता से करे तभी इन बेइमानों को पूर्ण रूप से बदला जा सकेगा।

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