Sunday, 4 November 2012

उनके एजेंडे में भी किसान नहीं हैं. आखिर ये जाएं तो जाएं कहां?

marta kishan puur indian by chiragan
लक्ष्मी बाबू 25-30 बीघा जमीन के जोतदार थे. अच्छी पैदावार होती थी.
समाज में लोग उन्हें सम्मान की नजर से देखते थे. लक्ष्मी बाबू, अपने मजदूरों की हर आवश्यकता को अपनी आवश्यकता समझते थे. गांव के गरीब से गरीब के यहां शादी या श्राद्ध में उनकी अभिभावक सी भूमिका होती थी. उन्होंने कभी मुसहट टोला या धोबी टोला में भेदभाव नहीं किया. हर वर्ग, जाति या धर्म के लोगों की हरसंभव मदद की तन, मन धन से. समय गुजरा. लक्ष्मी बाबू परलोक सिधार गये.
कुछ जमीन उनके श्राद्ध में बिक गयी और बाकी बच्चों ने बांट ली. समय का चक्र तेजी से घूमता रहा. खाद, बीज महंगे होते गये. खेती के अलावा आमदनी का अन्य स्रेत नहीं था. भूमि उतनी ही रही, खाने वाले बढ़ते गये. ऊपर से शादी, न्यौता, दवाई का खर्च अलग. ऐसा समाज और गांव के हर परिवार चाहे वह गरीब हो या अमीर सबके साथ हो रहा था. आमदनी स्थिर थी, खर्च माल्थस के सिद्धान्त से भी तेजी से बढ़ रहा था.
पिछले 5-7 सालों से स्थिति और भयावह होती गई है. गांव में मजदूर मिलने बन्द हो गए हैं. एक-दो मजदूर मिलते भी हैं तो उनकी मजदूरी की दर लक्ष्मी बाबू के बेटे ही नहीं, बड़े से बड़े किसानों और जमींदारों के बूते से बाहर की बात है. नतीजा चार-पांच बीघे जोत वाले किसान के घर में अगर पांच-छह लोग खाने वाले हैं तो उनके किशोर बेटे को दिल्ली व पंजाब जाकर मजदूरी करना पड़ रही है.
आखिर एक अच्छी चलती वाले किसान के बेटे-पोतों को क्यों दिल्ली आकर मजदूरी करनी पड़ी? बेशक इसका सीधा कारण सीमित साधन और बढ़ती जनसंख्या हैं पर जनसंख्या वृद्धि पर नियंतण्रकिया जा सकता है, पूरी तरह अंकुश नहीं लगाया जा सकता. सवाल है कि लक्ष्मी बाबू के बेटे-पोते जैसे करोड़ो लोग, जो कुछ सालों पहले संपन्न किसान थे, इस देश के शहरी समाज का पेट भरते थे, कैसे आज मजदूर हो गये? इस यक्ष प्रश्न का जवाब देने की जिम्मेवारी समाज के हर वर्ग की है. आखिर तेजी से वि-मानचित्र पर उभरते उस भारतवर्ष का अभिजात्य वर्ग, जो 2020 तक वि-महाशक्ति बनने का दावा करता हो, इस सच्चाई से कैसे मुंह मोड़ सकता है! जवाब तो देना ही पड़ेगा.
भारत के उन्हीं गांवों का एक दूसरा पहलू भी है जो मजदूर किसान के खेतों में काम करता था, उसका मकान आज पक्का हो गया. उसके घर में बिजली के बल्ब और पंखे चलते हैं. सरकार उसे सस्ती दरों पर मुफ्त राशन देती है और तो और 100 दिन की मजदूरी बिना काम किये भी मिल सकती है जो अक्सर मिल ही जाती है. इन्दिरा आवास योजना, मनरेगा और राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना आदि में चाहे जितना भी घोटाला हुआ हो परन्तु एक हद तक समाज के वंचित, दलित और शोषितों के जीवन स्तर में सकारात्मक बदलाव लाने में यह सफल रही हैं. दो जून की रोटी जिन्हें नसीब नहीं हो पाती थी, आज वो लोग कम से कम भूखे नहीं सोते हैं. इसका श्रेय सरकार की उन लोक कल्याणकारी योजनाओं को जाता है जो गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले तथा अन्य दलित एवं शोषित समाज के लोगों के कल्याण के लिए बनी हैं.
इन नीतियों-योजनाओं का असर गांवों में दिख रहा है. गांव बदल रहा है. यहां के लोगों का जीवन स्तर बदल रहा है. जो कल तक मजदूर थे, उन्हें इतनी सरकारी सहायता मिल जाती है कि उन्हें बड़े किसानों के यहां मजदूरी की जरूरत नहीं रह जाती है. इस बदलाव के चक्र में लक्ष्मी बाबू के बेटे सरीखे करोड़ों और लोग इनको मिल रही सुविधाओं की ओर टकटकी लगाये देख रहे हैं. कल तक जो उनके मजदूर थे, आज ऐशो-आराम से जी रहे हैं. बल्ब की रोशनी, पंखे की हवा, पक्का मकान, बारिश या बाढ़ में भी सूखा बदन, सूखे कपड़े, सूखे जलावन. इन ऐशो-आराम के साधनों के वे केवल ख्वाब देख सकते हैं, जिसके लिए कोई पैसा नहीं देना पड़ता है.
देश का वही किसान आज सोचने लगा है कि आखिर उससे क्या गलती हुई? क्या उसने खेतों में मेहनत करनी कम कर दी? वह बार-बार दिमाग पर जोर डालता है, परन्तु एक ही जवाब मिलता है. मेहनत ज्यादा की है, अधिक पैदावार भी हुई परन्तु लागत बढ़ गयी और उस अनुपात में फसल के दाम नहीं मिल रहे. हमारे खून और पसीने की कीमत इतनी मामूली है कि न्यूनतम आवश्यकताएं भी पूरी न हो सकें. भले ही मजदूरों की जगह उसने हाथों में खुरपी और हंसिया ले लिया हो पर वह पहले की तरह परिवार का पेट नहीं भर पा रहा है. किसानों या कहिए किसान से बने इस मजदूर वर्ग में व्यवस्था के प्रति आक्रोश पनप रहा है. वह कहता है कि उसका क्या कसूर है और इस दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है?
सरकार का तर्क है कि वह गरीबों (बीपीएल), दलितों व वंचितों के उत्थान के लिए लोक-कल्याणकारी योजना बना रही है, उस पर अमल कर रही है और इससे गरीबी मिटाने में मदद मिल रही है. समाज में हो रहे बदलाव भी सरकार के इस तर्क का समर्थन करते हैं परन्तु किसान सरकार से पूछना चाहता है कि इस लोक-कल्याणकारी शब्द में लोक में उसकी भी तो भागीदारी है. तो क्या सरकार उसे अपनी योजनाओं में तब शामिल करेगी जब वह एपीएल और बीपीएल के बीच की पतली रेखा पार कर लेगा! संभवत: सरकार इसी का इन्तजार कर रही है. क्या नित नये बनते ये गरीब देश के नागरिक नहीं है? क्या राष्ट्र के विकास में इनका योगदान नहीं है? तो क्यों राष्ट्रीय योजनाओं में इनके लिए जगह नहीं है? वंचितों, दलितों, शोषिती को मिल रही सुविधाओं से इनकी कोई शिकायत नहीं है. उनको उनका हक मिलना चाहिए. किसान तो यही पूछ रहा है कि उसकी बारी कब आयेगी?
ऐसा इसी देश में हो सकता है कि जो तबका पूरे देश का पेट पालता हो, उसकी सुध लेने की कोई चिंता नहीं है? न सरकार जिम्मेदारी से उनका कल्याण चाह रही है और न विपक्ष इस मुद्दे पर संजीदा है. दुख तब होता है जब इसी पृष्ठभूमि से आये वे लोग जो राजनीति में अपना मुकाम बना लेते हैं, अपने वर्ग की सुध लेने की फुर्सत में नहीं होते हैं. केन्द्र या राज्यों में किसी भी पार्टी की सरकार हो, इन नये गरीबों के उद्धार के लिए न कोई नीति है और न नीयत. हां पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में स्थिति थोड़ी ठीक-ठाक है. वैसे भी आज के नेता और नौकरशाही से समाज के किसी भी तबके को उम्मीद नहीं है तो इन किसानों को ही क्या होगी? परन्तु जो व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं, भ्रष्टाचार युक्त और कालाधन मुक्त समाज की स्थापना की बात करते हैं, उनके एजेंडे में भी किसान नहीं हैं. आखिर ये जाएं तो जाएं कहां?
ये लेखक के निजी विचार है! लेखक का परिचय:
Virendra Kushwaha,
Chiragan

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