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Thursday, 27 November 2014

पीपीएफ में निवेश की बढ़ाएं चमक

जो लोग अपने निवेश पर कोई जोखिम लेना पसंद नहीं करते उनके लिए लोक भविष्य निधि (पीपीएफ) एक बढ़िया विकल्प है। इस योजना के तहत छोटी-छोटी बचत करके लंबी अवधि में बड़ा फंड तैयार कर सकते हैं। रिटायरमेंट प्लानिंग और टैक्स सेविंग के लिए यह योजना काफी उपयोगी साबित होती है। इस योजना में निवेश की प्रक्रिया काफी सरल है। पीपीएफ एक सरकारी योजना है जिस पर हर वित्त वर्ष के लिए ब्याज घोषित किया जाता है। फिलहाल इस योजना में सालाना 8.7 फीसद की दर से ब्याज मिल रहा है। सरकार नया वित्त वर्ष शुरू होने से पहले ब्याज की घोषणा करती है। यदि आप अपने पीपीएफ खाते में सुनियोजित तरीके से पैसा जमा करते हैं तो ब्याज के रूप में ज्यादा कमाई कर सकते हैं।
योजना का आकर्षण पीपीएफ में निवेश की प्रक्रिया काफी आसान है। देश के डाकघरों और विभिन्न बैंकों की चुनिंदा शाखाओं में जाकर मामूली सी कागजी कार्रवाई करके पीपीएफ का खाता खुलवा सकते हैं। इस योजना की मैच्योरिटी 15 साल बाद होती है। पीपीएफ में महज 500 रपए से भी खाता खुलवा सकते हैं। इस खाते में एक वित्त वर्ष के दौरान अब अधिकतम 1.5 लाख रपए जमा कर सकते हैं। यह राशि एकमुश्त या अधिकतम 12 किस्तों में जमा कराई जा सकती है। यदि कोई व्यक्ति 25 साल की उम्र में नौकरी लगते ही पीपीएफ में हर साल 50,000 रपए जमा कराता है तो 40 साल की उम्र में उसे 15.45 लाख रपए मिलेंगे। इस रकम के जरिए कोई बड़ा लक्ष्य हासिल किया जा सका है।
कैसे करें शुरुआत मौजूदा परिदृश्य में पीपीएफ निवेश का अच्छा विकल्प है। फिर भी लोग इस योजना का फायदा नहीं उठा पाते। यदि आप अपना पीपीएफ खाता खुलवाना चाहते हैं तो नजदीकी डाकघर में जाकर संपर्क करें। सार्वजनिक क्षेत्र के एसबीआई, पीएनबी और निजी क्षेत्र के आईसीआईसीआई जैसे कई बैंकों की चुनिंदा शाखाओं में भी पीपीएफ खाता खुलवाया जा सकता है। पीपीएफ खाता खोलने के लिए आपका संबंधित बैंक शाखा में बचत खाता होना जरूरी नहीं है। इसके लिए एक साधारण फार्म भरना होगा जिसके साथ अपना पहचान पत्र, निवास प्रमाण पत्र और दो फोटो लगाने होंगे। मामूली औपचारिकताएं पूरी करके आपका पीपीएफ खाता खुल जाएगा। फिलहाल बैंकों में आनलाइन पीपीएफ खाता खुलवाया जा सकता है। इसका फायदा यह होगा कि नेट बैंकिंग के जरिए इसमें कभी भी और कहीं से भी निवेश कर सकते हैं।
ब्याज की गणना पीपीएफ योजना में फिलहाल 8.7 फीसद की दर से चक्रवृद्धि ब्याज मिल रहा है। यह ब्याज पीपीएफ खाते में बकाया राशि पर लगता है जो साल के अंत में खाते में जोड़ा जाता है। इसका महत्वपूर्ण पहलू यह है कि ब्याज की गणना हर माह की जाती है। इसकी प्रक्रिया यह है कि महीने की पांच तारीख से माह की अंतिम तारीख के बीच खाते में जमा सबसे कम राशि पर ब्याज लगाया जाता है। यदि आप ज्यादा ब्याज कमाना चाहते हैं तो इसके लिए अपने पीपीएफ खाते में जो भी रकम जमा कराएं उसे पांच तारीख से पहले ही कराएं। उदाहरण के लिए आपके खाते में पहले से एक लाख रपए जमा हैं और आपने 10 दिसम्बर को उसमें 50,000 रपए और जमा कराते हैं। इस स्थिति में दिसम्बर महीने में आपको सिर्फ एक लाख रपए रपए पर ही ब्याज मिलेगा। यदि यह रकम पांच दिसम्बर या उससे पहले जमा कराई जाती है आपको 1.5 लाख रपए पर ब्याज मिलेगा। इस एवज में मिलने वाली अतिरिक्त रकम लंबी अवधि में रिटर्न बढ़ाने में काफी उपयोगी होती है।
कंपाउंडिंग का असर पीपीएफ योजना लंबी अवधि की है जिसका लॉक इन पीरियड 15 साल है। जाहिर है इसमें से आप लंबी अवधि तक रकम नहीं निकाल सकते। हालांकि आड़े वक्त में एक निश्चित अवधि के बाद लोन का विकल्प है। इस योजना में सबसे बड़ा फायदा निवेश पर मिलने वाले ब्याज पर ब्याज से होता। ब्याज पर मिलने वाले ब्याज को ही कंपाउंडिंग (चक्रवृद्धि) कहते हैं। लंबी अवधि में कंपाउंडिंग का असर काफी प्रभावी होता है। इसीलिए निवेश पोर्टफोलियो में पीपीएफ को जरूर शामिल करना चाहिए।
सोने पर सुहागा आयकर में छूट हासिल करने के लिए पीपीएफ अन्य योजनाओं पर भारी पड़ता है। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें जीवन बीमा योजनाओं की तरह आपको हर साल बड़ी किस्त नहीं देनी। एक वित्त वर्ष में महज 500 रपए जमा कराके भी खाते को चालू रखा जा सकता है। दूसरा बड़ा फायदा यह है कि निवेश के समय कर छूट का लाभ मिलता और मैच्योरिटी के समय मिलने वाली रकम भी पूरी तरह से टैक्स फ्री होती है। यदि इस योजना में बुद्धिमानी के साथ निवेश किया जाए तो आयकर छूट और ब्याज के रूप में ज्यादा लाभ अर्जित कर सकते हैं।

Thursday, 23 October 2014

भारत के राष्ट्रीय प्रतीक

राष्ट्रीय ध्वज
भारत के राष्ट्रीय ध्वज में तीन रंग हैं। राष्टरीय ध्वज  में समान अनुपात में तीन आड़ी पट्टियाँ हैं, गहरा केसरिया रंग ऊपर, सफेद बीच में और गहरा हरा रंग सबसे नीचे है। ध्वज की लम्बाई-चौड़ाई का अनुपात 3:2 है। सफेद पट्टी के बीच में नीले रंग का एक चक्र है। इसका प्रारूप सारनाथ में अशोक सिंह स्तम्भ पर बने चक्र से लिया गया है। इसका व्यास लगभग सफेद पट्टी की चौड़ाई जितना है और इसमें चौबीस तीलियाँ हैं। भारत की संविधान सभा ने राष्ट्रीय-ध्वज का प्रारूप 22 जुलाई 1947 को अपनाया।
राष्ट्रीय पशु
भारत का राष्ट्रीय पशु बाघ है। इसकी आठ प्रजातियों में से भारत में पाई जाने वाली प्रजाति को रायल बंगाल टाइगर के नाम से जाना जाता है। उत्तर पश्चिमी भारत को छोड़कर बाकी सारे देश में यह प्रजाति पाई जाती है। देश के बाघों की घटती संख्या जो 1972 में घटकर 1827 तक आ गयी थी, को थामने के लिए अप्रैल 1973 में बाघ परियोजना नाम से एक वृहद संरक्षण कार्यक्रम शुरू किया गया। बाघ परियोजना के अन्तर्गत देश में अब तक 27 बाघ अभयारण्य स्थापित किए गए हैं जिनका क्षेत्रफल 33,875 वर्ग किलोमीटर है।

राष्ट्रीय पक्षी
भारत का राष्ट्रीय पक्षी मयूर  है। हंस के  आकार  के  इस  रंग-बिरंगे पक्षी की गर्दन लंबी, आँख के नीचे एक सफेद निशान और सिर पर पंखे के आकार की कलगी लगी होती है। नर मयूर,मादा मयूर की अपेक्षा अधिक सुंदर होता है। मयूर भारतीय उप-महाद्वीप में सिंधु नदी के दक्षिण और पूर्व से लेकर, जम्मू और कश्मीर, असम के पूर्व मिजोरम के दक्षिण तक पूरे भारतीय प्रायद्वीप में व्यापक रूप से पाया जाता है। मयूर को लोगों का पूरा संरक्षण मिलता है। इसे धार्मिक या भावात्मक आधार पर कभी भी परेशान नहीं किया जाता है। भारतीय वन्य प्राणी (सुरक्षा) अधिनियम, 1972 के  अंतर्गत  इसे  पूर्ण  संरक्षण प्राप्त है।

राष्ट्रीय चिन्ह
भारत का राष्ट्रीय चिन्ह सारनाथ स्थित अशोक सिंह स्तम्भ की अनुकृति है जो सारनाथ के संग्रहालय में सुरक्षित है। मूल स्तम्भ में शीर्ष पर चार सिंह हैं जो एक-दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं। इनके नीचे घंटे के आकार के पद्म के  ऊपर एक चित्रवल्लरी में एक हाथी, चौकड़ी भरता हुआ एक घोड़ा, एक साँड़ तथा एक सिंह की उभरी हुई मूर्तियाँ हैं जिनके बीच-बीच में चक्र बने हुए हैं। एक ही पत्थर को काटकर बनाए गए इस सिंह स्तम्भ के ऊपर 'धर्मचक्र' रखा था।
भारत सरकार ने यह चिन्ह 26 जनवरी 1950 को अपनाया। इसमें केवल तीन सिंह दिखाई पड़ते हैं, चौथा दिखाई नहीं देता। पट्टी के मध्य में उभरी हुई नक्काशी में चक्र है, जिसके दाईं ओर एक साँड और बाईं ओर एक घोड़ा है। आधार का पद्म छोड़ दिया गया है। दाएं तथा बाएं छोरों पर अन्य चक्रों के किनारे हैं। फलक के नीचे मुंडकोपनिषद का सूत्र 'सत्यमेव जयते' देवनागरी लिपि में अंकित है, जिसका अर्थ है- 'सत्य की ही विजय होती है'।

राष्ट्रगान
रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा रचित और संगीतबद्ध 'जन-गण-मन' को संविधान सभा ने भारत के राष्टï्रगान के रूप में 24 जनवरी 1950 को अपनाया था। यह सर्वप्रथम 27 दिसम्बर 1911 को भारतीय राष्टरीय काँग्रेसके कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया था। पूरे गीत में पाँच पद हैं। प्रथम पद, राष्ट्रगान का पूरा पाठ है, जो इस प्रकार है :

जन-गण-मन अधिनायक,
जय हे भारत-भाग्य विधाता
पंजाब-सिंधु-गुजरात-मराठा-
द्राविड़ उत्कल बंग
विंध्य-हिमाचल-यमुना-गंगा
उच्छल-जलधि तरंग
तब शुभ नामे जागे,
तब शुभ आशिष माँगे,
गाहे तब जय-गाथा
जन-गण-मंगलदायक जय हे,
भारत-भाग्य विधाता
जय हे, जय हे, जय हे,
जय जय जय जय हे।

राष्ट्रगान के गायन की अवधि लगभग 52 सेकेण्ड है। कुछ अवसरों पर राष्ट्रगान को संक्षिप्त रूप से गाया जाता है जिसमें इसकी प्रथम और अंतिम पंक्तियाँ (गाने का समय लगभग 20 सेकेण्ड) होती हैं।

राष्ट्रगीत
बंकिमचंद्र चटर्जी का लिखा 'वन्दे मातरम्' गीत स्वतंत्रता संग्राम में जन-जन का प्रेरणा स्रोत था। यह गीत प्रथम बार 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया था। इसका प्रथम पद इस प्रकार है :

वन्दे मातरम्
सुजलाम्, सुफलाम्,
मलयज-शीतलाम्,
शस्यश्यामलाम्, मातरम् !
शुभ्रज्योत्सना,
पुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्
सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्
सुखदाम्, वरदाम्, मातरम् !


राष्ट्रभाषा
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार संघ गणराज्य भारत की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी तय की गई है। इसके अतिरिक्त संविधान द्वारा कुल 18 भाषाएँ शासकीय घोषित की गयी हैं।
भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी है। विश्व में हिन्दी तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा (45.7 करोड़ व्यक्ति) है। 

राष्ट्रीय पंचाँग (कैलेण्डर)
ग्रिगेरियन कैलेण्डर के साथ-साथ देशभर के लिए शक संवत् पर आधारित एकरूप राष्ट्रीय पंचाँग स्वीकार किया गया है, जिसका पहला महीना चैत्र है और सामान्य वर्ष 365 दिन का होता है। इसे 22 मार्च 1957 को अपनाया गया।
राष्ट्रीय पंचांग का आधार हिन्दी महीने होते हैं, महीने के दिनों की गणना तिथियों के अनुसार होती है। इनमें घट-बढ़  होने के कारण ही देश में मनाये जाने वाले त्यौहार भी आगे-पीछे होते रहते हैं।

Thursday, 3 July 2014

ऐसे बनाएं फायर इंजीनियरिंग में अपना करियर

अगर आपको 'आग' से खेलना पसंद है, तो फायर इंजीनियरिंग को करियर के रूप में अपना सकते हैं। इस फील्ड में जॉब ऑप्शंस भी शानदार हैं। इंटरनेशनल फायरफाइटर्स डे के मौके पर जानते हैं कैसे इस फील्ड में एंट्री की जा सकती है..
आमतौर पर गर्मी के महीनों में आग लगने की घटनाएं बढ़ जाती हैं। वैसे, ऊंची-ऊंची इमारतें, बड़े-बड़े मॉल्स आदि भी आग से पूरी तरह सुरक्षित नहींहैं। यदि आग अनियंत्रित हो जाए, तो काफी नुकसान भी उठाना पड़ता है। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए फायरफाइटर्स की जरूरत होती है। इस तरह के प्रोफेशनल्स फायर इंजीनियरिंग से जुड़े लोग होते हैं, जो जानते हैं कि आग को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है।
क्वालिफिकेशन
फायर इंजीनियरिंग से जुड़े अधिकांश कोर्स ग्रेजुएट स्तर पर उपलब्ध हैं, जिसके लिए साइंस सब्जेक्ट से बारहवीं पास होना जरूरी है। फायर इंजीनियरिंग से रिलेटेड सर्टिफिकेट और डिप्लोमा कोर्स भी कर सकते हैं। कोर्स के दौरान आग बुझाने के विभिन्न पहलुओं के बारे में जानकारी दी जाती हैं। साथ में, बिल्डिंग निर्माण के बारे में भी बताया जाता है, ताकि आग लगने की स्थिति में उसे बुझाने में ज्यादा परेशानी न हो। इसमें फिजिकल फिटनेस के मा‌र्क्स भी जोड़े जाते हैं। पुरुष के लिए 50 किलो के वजन के साथ 165 सेमी. लंबाई और आईसाइट 6/6, सीना सामान्य रूप से 81 सेमी. और फुलाने के बाद 5 सेमी. फैलाव होना जरूरी है। महिला का वजन 46 किलो और लंबाई 157 सेमी और आईसाइट 6/6 होनी चाहिए।
कोर्सेज
-बीई फायर इंजीनियरिंग।
-बीटेक फायर ऐंड सेफ्टी इंजीनियरिंग।
-सर्टिफिकेट कोर्स इन फायर ऐंड सेफ्टी इंजीनियरिंग (सीएफएसई)।
-डिप्लोमा इन फायर ऐंड इंडस्ट्रियल सेफ्टी इंजीनियरिंग।
-डिप्लोमा इन फायर ऐंड सेफ्टी इंजीनियरिंग मैनेजमेंट (डीएफएसइएम)।
-डिप्लोमा इन फायर ऐंड सेफ्टी इंजीनियरिंग 8डिप्लोमा इन फायर इंजीनियरिंग।
-डिप्लोमा इन इंडस्ट्रियल सेफ्टी इंजीनियरिंग।
-पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन फायर ऐंड सेफ्टी इंजीनियरिंग।
फायर इंजीनियर्स का वर्क।
फायर इंजीनियर्स का कार्य काफी चुनौतीपूर्ण होता है। इसके लिए साहस के साथ-साथ समाज के प्रति प्रतिबद्धता जरूरी है। फायर इंजीनियर का कार्य इंजीनियरिंग डिजाइन, ऑपरेशन और मैनेजमेंट से संबंधित होता है। फायर इंजीनियर की प्रमुख जिम्मेदारी दुर्घटना के समय आग के प्रभाव को खत्म करना या फिर सीमित करना होता है। इसके लिए वे अग्निसुरक्षा के विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। अग्निशमन के आधुनिक उपकरणों के इस्तेमाल और उसके रखरखाव की तकनीक में सुधार करना भी इनकी ही जिम्मेदारी होती है।
जॉब प्रोफाइल
इस फील्ड में आप असिस्टेंट, सेफ्टी इंस्पेक्टर, सेफ्टी इंजीनियर, सेफ्टी ऑफिसर, सेफ्टी सुपरवाइजर, फायर प्रोटेक्शन टेक्नीशियन, सेफ्टी ऑडिटर, फायर सुपरवाइजर, हेल्थ असिस्टेंट, एनवायरनमेंट ऑफिसर, फायर ऑफिसर आदि के रूप में काम कर सकते हैं।
जॉब ऑप्शन
फायर इंजीनियरिंग से जुड़े लोगों के लिए गवर्नमेंट और पब्लिक सेक्टर में काफी संभावनाएं हैं। इस फील्ड सेजुड़े प्रोफेशनल्स रेलवे, एयरफोर्ट ऑथॉरिटी ऑफ इंडिया, डिफेंस, इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड, ओएनजीसी, माइंस, रिफाइनरिज, पेट्रोकेमिकल्स कॉम्प्लेक्स आदि में जॉब की तलाश कर सकते हैं। सैलरी पैकेज
जूनियर या असिस्टेंट फायर इंजीनियर की शुरुआती सैलरी 10-25 हजार रुपये प्रतिमाह हो सकती है।
प्राइवेट सेक्टर में कुछ वर्ष का वर्क एक्सपीरियंस रखने वाले प्रोफेशनल्स को वरीयता मिलती है और सैलरी काबिलियत के अनुसार मिलती है।

Thursday, 7 March 2013

सफ़ेद पर लालबत्ती का मोह

अमूमन सभी राजनीतिक दलों के अनेक नेताओं के वाहनों पर लालबत्ती लगी दिख जाती है या फिर वे पुलिसकर्मियों से घिरे दिखते हैं। इसके पीछे दलील यह होती है कि चूंकि वे अतिमहत्त्वपूर्ण श्रेणी में गिने जाते हैं, इसलिए उनके लिए सुरक्षा के खास इंतजाम जरूरी हैं। लेकिन ऐसे कई नेताओं को भी ये सुविधाएं मुहैया करा दी जाती हैं, जिन्हें इनकी जरूरत नहीं होती या जो इनके हकदार नहीं होते। नतीजा यह है कि अगर लालबत्ती लगी गाड़ियों की तादाद बढ़ते जाने से यातायात में रुकावटें बढ़ी हैं। सुरक्षाकर्मियों से घिरे होना हैसियत के आडंबर का प्रतीक हो गया है। यह स्थिति आम लोगों और शासन-प्रशासन के बीच बढ़ती दूरी को ही प्रतिबिंबित करती है और इसे कतई जनतांत्रिक राज-काज के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। लालबत्ती और वीआइपी सुरक्षा का तामझाम जहां प्रशासन के लिए बोझ साबित होता है वहीं इससे जन-सामान्य के सुरक्षा इंतजामों पर नकारात्मक असर पड़ता है। इसलिए एक याचिका की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही इस व्यवस्था पर सवाल उठाया है। अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों से कहा है कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, मुख्य न्यायाधीश आदि के लिए तो यह सुविधा जरूरी है, लेकिन अन्य बहुत-से लोगों को यह किस दलील पर मुहैया कराई जा रही है? इसके जवाब में महाधिवक्ता ने दलील दी कि यह व्यवस्था संबंधित व्यक्तियों की जान पर जोखिम और उनकी सुरक्षा पर आधारित होनी चाहिए। लेकिन उनकी यह राय सच से शायद बहुत दूर है। पिछले साल वाम दलों को छोड़ कर लगभग सभी राजनीतिक दलों के बहुतेरे सांसदों ने बाकायदा हस्ताक्षर के साथ याचिका देकर इस सुविधा की मांग करते हुए कहा था.
कि इससे सड़कों पर उनका समय जाया नहीं होगा। उनका यह भी मानना था कि लालबत्ती वाली गाड़ी के बगैर अपने निर्वाचन क्षेत्र में जाने पर उन्हें शर्मिंदगी का अहसास होता है। संसद की एक समिति ने भी लालबत्ती की सुविधा दिए जाने के मामले में सांसदों को दिए गए इक्कीसवें नंबर के दरजे पर नाराजगी जताते हुए उनके वाहनों पर लालबत्ती लगाने की इजाजत देने की सिफारिश की थी।
इस तरह की विशेष सुविधाएं जरूरत के बजाय अपनी ‘विशिष्ट’ सामाजिक हैसियत को दर्शाने का एक जरिया बनती गई हैं। अतिविशिष्ट कहे जाने वाले या खुद को ऐसा मानने वाले ज्यादातर लोग केवल रुतबे और सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में अपना प्रभाव दर्शाने के मकसद से अपनी गाड़ी पर लालबत्ती लगाना चाहते हैं। खुद को सुरक्षाकर्मियों से घिरे दिखाने के पीछे भी यही चाहत रहती है। इसी प्रवृत्ति का नतीजा है कि आज बड़ी तादाद में पुलिसकर्मी या राष्ट्रीय सुरक्षा गारद जैसे उच्चस्तर के सुरक्षाकर्मी राजनीतिक दलों के नेताओं की हिफाजत में तैनात कर दिए गए हैं। इसका सीधा असर सामान्य सुरक्षा माहौल पर पड़ता है। गौरतलब है कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे कई देशों में केवल संवैधानिक प्रमुखों को सरकारी खर्च पर सुरक्षा मुहैया कराई जाती है। लेकिन हमारे यहां कुछ राज्यों में तो हालत यह है कि मुखिया या सरपंच भी लालबत्ती लगी और काले शीशे वाली गाड़ी में बेधड़क सफर करते हैं और उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। सवाल है कि हमारे जो नेता अपने वाहनों पर लालबत्ती लगाने या आधुनिक स्वचालित हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मियों से घिरे रहने जैसे रसूख दर्शाने वाले प्रतीकों को लेकर लालायित रहते हैं, क्या उन्हें कभी उन लोगों की भी सुरक्षा की फिक्र सताती है जिनका प्रतिनिधित्व करने का वे दावा करते हैं?

Virendra Kushwaha
जनसत्ता से प्रेरित साभार

Wednesday, 6 March 2013

उफ़ ये मरता किशान

सवाल उठता है कि राज्य के किसान आखिर क्या करें? सरकार की मदद और अपनी मेहनत के बल पर किसानों ने धान के रूप में खेतों से सोना पैदा किया। अब उसी सोने को वे माटी के मोल बेचने को परेशान हैं। सरकार दावा कर रही है कि किसानों से वाजिब दाम पर धान की खरीद हो रही है। राज्य का खाद्य एवं उपभोक्ता संरक्षण मंत्रालय दो-चार दिन के अंतराल पर रिकार्ड खरीद का दावा कर देता है। अभी दो दिन पहले ही विभागीय मंत्री ने दावा किया कि फरवरी के अंतिम दिन तक करीब 10 लाख मीट्रिक टन धान की खरीद हो चुकी है। कुछ देर के लिए मंत्री के दावे को सही मान लें तब भी मामला अधिक उत्साहजनक नहीं लगता। इसलिए कि धान खरीद का कुल लक्ष्य 30 लाख मीट्रिक टन से अधिक है और करीब डेढ़ महीने से खरीद हो रही है। इसी गति से खरीद जारी भी रही तो लक्ष्य पूरा करने में कम से कम तीन महीने और लगेंगे। इसी दौर में गेहूं की फसल भी तैयार होकर आ जाएगी। धान की खरीद में फिसड्डी महकमा गेहूं की खरीद में कितनी तेजी दिखा पाएगा, इसे आसानी से समझा जाएगा। असल में राजधानी में बैठे विभाग के जिम्मेवार लोग कागज-पत्तर और लिखा-पढ़ी पर अधिक भरोसा कर रहे हैं। स्थानीय इकाइयां कागज पर लिखकर फैक्स कर देती हैं कि धान की खरीद हो गई। हाकिम भी भरोसा कर लेते हैं। मगर जमीन पर हकीकत जानने या किसानों की शिकायतों पर गंभीर रुख अपनाने की कोशिश नहीं होती है। आप देखें कि किसानों की शिकायतें किस स्तर की हैं। पहली शिकायत यह कि धान बेचने के लिए उन्हें मिन्नतें करनी पड़ती हैं। संबंधित लोगों को खुश करना पड़ता है। वे खुश तो होते हैं, पर बाद में अधिक खुश होना चाहते हैं। उनकी इस खुशी के लिए किसानों को समर्थन मूल्य से समझौता करना पड़ता है। यह समर्थन मूल्य साढ़े बारह सौ रुपया प्रति कुंतल निर्धारित है।
किसान बताते हैं उदारवादी साहब कुछ कम कीमत पर धान बेच देने पर खुश हो जाते हैं। जबकि बड़े पेट वाले की खुशी और अधिक कम कीमत पर धान बेचने पर आती है। इतनी मशक्कत के बाद उन्हें चेक दिया जाता है। चेक का भुगतान लेना भी आसान नहीं है। पिछले 28 फरवरी को ही विधानसभा में सत्तारूढ़ दल के एक सदस्य ने कहा कि किसानों को दिए गए चेक बाउंस हो रहे हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खेती-किसानी पर बहुत जोर दे रहे हैं। कृषि रोड मैप भी बना है। मगर बिचौलिए सरकार के किए पर पानी फेरने का मौका हाथ से नहीं जाने दे रहे हैं। वैसे इन बिचौलियों की भूमिका को खत्म करना मुश्किल नहीं है।

Virendra Kushwaha

Sunday, 4 November 2012

उनके एजेंडे में भी किसान नहीं हैं. आखिर ये जाएं तो जाएं कहां?

marta kishan puur indian by chiragan
लक्ष्मी बाबू 25-30 बीघा जमीन के जोतदार थे. अच्छी पैदावार होती थी.
समाज में लोग उन्हें सम्मान की नजर से देखते थे. लक्ष्मी बाबू, अपने मजदूरों की हर आवश्यकता को अपनी आवश्यकता समझते थे. गांव के गरीब से गरीब के यहां शादी या श्राद्ध में उनकी अभिभावक सी भूमिका होती थी. उन्होंने कभी मुसहट टोला या धोबी टोला में भेदभाव नहीं किया. हर वर्ग, जाति या धर्म के लोगों की हरसंभव मदद की तन, मन धन से. समय गुजरा. लक्ष्मी बाबू परलोक सिधार गये.
कुछ जमीन उनके श्राद्ध में बिक गयी और बाकी बच्चों ने बांट ली. समय का चक्र तेजी से घूमता रहा. खाद, बीज महंगे होते गये. खेती के अलावा आमदनी का अन्य स्रेत नहीं था. भूमि उतनी ही रही, खाने वाले बढ़ते गये. ऊपर से शादी, न्यौता, दवाई का खर्च अलग. ऐसा समाज और गांव के हर परिवार चाहे वह गरीब हो या अमीर सबके साथ हो रहा था. आमदनी स्थिर थी, खर्च माल्थस के सिद्धान्त से भी तेजी से बढ़ रहा था.
पिछले 5-7 सालों से स्थिति और भयावह होती गई है. गांव में मजदूर मिलने बन्द हो गए हैं. एक-दो मजदूर मिलते भी हैं तो उनकी मजदूरी की दर लक्ष्मी बाबू के बेटे ही नहीं, बड़े से बड़े किसानों और जमींदारों के बूते से बाहर की बात है. नतीजा चार-पांच बीघे जोत वाले किसान के घर में अगर पांच-छह लोग खाने वाले हैं तो उनके किशोर बेटे को दिल्ली व पंजाब जाकर मजदूरी करना पड़ रही है.
आखिर एक अच्छी चलती वाले किसान के बेटे-पोतों को क्यों दिल्ली आकर मजदूरी करनी पड़ी? बेशक इसका सीधा कारण सीमित साधन और बढ़ती जनसंख्या हैं पर जनसंख्या वृद्धि पर नियंतण्रकिया जा सकता है, पूरी तरह अंकुश नहीं लगाया जा सकता. सवाल है कि लक्ष्मी बाबू के बेटे-पोते जैसे करोड़ो लोग, जो कुछ सालों पहले संपन्न किसान थे, इस देश के शहरी समाज का पेट भरते थे, कैसे आज मजदूर हो गये? इस यक्ष प्रश्न का जवाब देने की जिम्मेवारी समाज के हर वर्ग की है. आखिर तेजी से वि-मानचित्र पर उभरते उस भारतवर्ष का अभिजात्य वर्ग, जो 2020 तक वि-महाशक्ति बनने का दावा करता हो, इस सच्चाई से कैसे मुंह मोड़ सकता है! जवाब तो देना ही पड़ेगा.
भारत के उन्हीं गांवों का एक दूसरा पहलू भी है जो मजदूर किसान के खेतों में काम करता था, उसका मकान आज पक्का हो गया. उसके घर में बिजली के बल्ब और पंखे चलते हैं. सरकार उसे सस्ती दरों पर मुफ्त राशन देती है और तो और 100 दिन की मजदूरी बिना काम किये भी मिल सकती है जो अक्सर मिल ही जाती है. इन्दिरा आवास योजना, मनरेगा और राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना आदि में चाहे जितना भी घोटाला हुआ हो परन्तु एक हद तक समाज के वंचित, दलित और शोषितों के जीवन स्तर में सकारात्मक बदलाव लाने में यह सफल रही हैं. दो जून की रोटी जिन्हें नसीब नहीं हो पाती थी, आज वो लोग कम से कम भूखे नहीं सोते हैं. इसका श्रेय सरकार की उन लोक कल्याणकारी योजनाओं को जाता है जो गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले तथा अन्य दलित एवं शोषित समाज के लोगों के कल्याण के लिए बनी हैं.
इन नीतियों-योजनाओं का असर गांवों में दिख रहा है. गांव बदल रहा है. यहां के लोगों का जीवन स्तर बदल रहा है. जो कल तक मजदूर थे, उन्हें इतनी सरकारी सहायता मिल जाती है कि उन्हें बड़े किसानों के यहां मजदूरी की जरूरत नहीं रह जाती है. इस बदलाव के चक्र में लक्ष्मी बाबू के बेटे सरीखे करोड़ों और लोग इनको मिल रही सुविधाओं की ओर टकटकी लगाये देख रहे हैं. कल तक जो उनके मजदूर थे, आज ऐशो-आराम से जी रहे हैं. बल्ब की रोशनी, पंखे की हवा, पक्का मकान, बारिश या बाढ़ में भी सूखा बदन, सूखे कपड़े, सूखे जलावन. इन ऐशो-आराम के साधनों के वे केवल ख्वाब देख सकते हैं, जिसके लिए कोई पैसा नहीं देना पड़ता है.
देश का वही किसान आज सोचने लगा है कि आखिर उससे क्या गलती हुई? क्या उसने खेतों में मेहनत करनी कम कर दी? वह बार-बार दिमाग पर जोर डालता है, परन्तु एक ही जवाब मिलता है. मेहनत ज्यादा की है, अधिक पैदावार भी हुई परन्तु लागत बढ़ गयी और उस अनुपात में फसल के दाम नहीं मिल रहे. हमारे खून और पसीने की कीमत इतनी मामूली है कि न्यूनतम आवश्यकताएं भी पूरी न हो सकें. भले ही मजदूरों की जगह उसने हाथों में खुरपी और हंसिया ले लिया हो पर वह पहले की तरह परिवार का पेट नहीं भर पा रहा है. किसानों या कहिए किसान से बने इस मजदूर वर्ग में व्यवस्था के प्रति आक्रोश पनप रहा है. वह कहता है कि उसका क्या कसूर है और इस दुर्दशा का जिम्मेदार कौन है?
सरकार का तर्क है कि वह गरीबों (बीपीएल), दलितों व वंचितों के उत्थान के लिए लोक-कल्याणकारी योजना बना रही है, उस पर अमल कर रही है और इससे गरीबी मिटाने में मदद मिल रही है. समाज में हो रहे बदलाव भी सरकार के इस तर्क का समर्थन करते हैं परन्तु किसान सरकार से पूछना चाहता है कि इस लोक-कल्याणकारी शब्द में लोक में उसकी भी तो भागीदारी है. तो क्या सरकार उसे अपनी योजनाओं में तब शामिल करेगी जब वह एपीएल और बीपीएल के बीच की पतली रेखा पार कर लेगा! संभवत: सरकार इसी का इन्तजार कर रही है. क्या नित नये बनते ये गरीब देश के नागरिक नहीं है? क्या राष्ट्र के विकास में इनका योगदान नहीं है? तो क्यों राष्ट्रीय योजनाओं में इनके लिए जगह नहीं है? वंचितों, दलितों, शोषिती को मिल रही सुविधाओं से इनकी कोई शिकायत नहीं है. उनको उनका हक मिलना चाहिए. किसान तो यही पूछ रहा है कि उसकी बारी कब आयेगी?
ऐसा इसी देश में हो सकता है कि जो तबका पूरे देश का पेट पालता हो, उसकी सुध लेने की कोई चिंता नहीं है? न सरकार जिम्मेदारी से उनका कल्याण चाह रही है और न विपक्ष इस मुद्दे पर संजीदा है. दुख तब होता है जब इसी पृष्ठभूमि से आये वे लोग जो राजनीति में अपना मुकाम बना लेते हैं, अपने वर्ग की सुध लेने की फुर्सत में नहीं होते हैं. केन्द्र या राज्यों में किसी भी पार्टी की सरकार हो, इन नये गरीबों के उद्धार के लिए न कोई नीति है और न नीयत. हां पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में स्थिति थोड़ी ठीक-ठाक है. वैसे भी आज के नेता और नौकरशाही से समाज के किसी भी तबके को उम्मीद नहीं है तो इन किसानों को ही क्या होगी? परन्तु जो व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं, भ्रष्टाचार युक्त और कालाधन मुक्त समाज की स्थापना की बात करते हैं, उनके एजेंडे में भी किसान नहीं हैं. आखिर ये जाएं तो जाएं कहां?
ये लेखक के निजी विचार है! लेखक का परिचय:
Virendra Kushwaha,
Chiragan