Friday 3 February 2012

कुपोषित विकास Kuposhit Vikash

कुपोषण और शिशु मृत्युदर से संबंधित खबरों या अध्ययनों के निष्कर्ष न केवल मौजूदा नीतियों और उन पर अमल को, बल्कि अक्सर अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर को भी आईना दिखाते हैं। अब भारत के महापंजीयक की ताजा रपट ने एक बार फिर देश के विरोधाभासी विकास को रेखांकित किया है। उसके मुताबिक शिशु मृत्यु दर पर काबू पाना मुश्किल बना हुआ है। इसके मुताबिक देश भर में नवजात शिशुओं की मृत्युदर में कुछ कमी जरूर आई है, लेकिन यह मामूली राहत भी कुछ शहरी इलाकों तक सीमित है। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी हालात चिंताजनक बने हुए हैं। शहरों में जहां प्रति एक हजार में से बयालीस बच्चे जन्म लेने के बाद दम तोड़ देते हैं, वहीं गांवों में अब भी यह संख्या सड़सठ है। इनमें भी बच्चियों की तादाद ज्यादा है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि समस्या को दूर करने के लिए अमल में लाई जाने वाली नीतियों की व्यावहारिक हकीकत क्या है। स्थिति यह है कि अकेले गोवा ऐसा राज्य है, जहां प्रति एक हजार में सिर्फ दस बच्चों की मौत के आंकड़ों के साथ उल्लेखनीय सुधार का दावा किया जा सकता है। लेकिन बड़े राज्यों में शुमार मध्यप्रदेश की हालत इस मामले में बेहद शर्मनाक है। वहां आज भी एक हजार में से बासठ बच्चे जन्म लेने के तुरंत बाद दम तोड़ देते हैं।
सवाल है कि नवजात शिशुओं की मृत्यु दर को लेकर लगातार जताई जाने वाली चिंता और इस समस्या से निपटने के लिए घोषित और लागू तमाम योजनाओं के बावजूद स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आ रहा है तो इसके क्या कारण हो सकते हैं? शिशु मृत्यु दर पर काबू पाने के मकसद से गर्भवती महिलाओं की देखरेख से लेकर शिशुओं के पोषण के स्तर   में सुधार तक के लिए कई सरकारी योजनाएं लागू हैं। लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि ऐसी तमाम योजनाएं अमल तक पहुंचते-पहुंचते किस तरह भ्रष्टाचार का शिकार हो जाती हैं और जरूरतमंदों को उनका फायदा नहीं मिल पाता। यह कड़वी सच्चाई है कि कुपोषण की समस्या मुख्य रूप से गरीबी से जुड़ी है। पर्याप्त और पौष्टिक भोजन नहीं मिलने से पहले ही गरीब परिवारों के बच्चे कुपोषण, खून की कमी और हैजा जैसी परेशानियों से ग्रस्त हो जाते हैं। इसके अलावा, हमारे देश में हर तीन में से एक महिला का वजन सामान्य से काफी कम होता है और इसका सीधा असर गर्भ में पल रहे शिशु पर पड़ता है। दूसरी ओर, हमारे नीति-निर्माताओं की दिलचस्पी इस समस्या की व्यापकता को स्वीकार करने के बजाय यह दिखाने में होती है कि गरीबी लगातार घट रही है, ताकि मौजूदा आर्थिक नीतियों का औचित्य साबित किया जा सके। एक बड़ी समस्या यह भी है कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच के मामले में व्यापक भेदभाव है। संयुक्त राष्ट्र इस पर चिंता जता चुका है कि भारत में चिकित्सा सेवाओं के निजीकरण पर जोर देने के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली लगातार कमजोर होती गई है, जबकि ज्यादातर गरीब लोगों के लिए सरकारी अस्पताल ही इलाज का एकमात्र आसरा होते हैं। जाहिर है, समस्या की व्यापकता को देखते हुए एक साथ कई स्तरों पर ईमानदारी से काम करने की जरूरत है। देश में यह तस्वीर सालों से लगभग ज्यों की त्यों बनी हुई है, लेकिन लगता है कि सरकारों का ध्यान केवल आर्थिक विकास दर के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने पर केंद्रित है।

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