Friday 3 February 2012

लावारिस बच्चे Lavarish Bachchhe

दिल्ली के सार्वजनिक शौचालयों, कचराघरों, अस्पताल, बाजार जैसे भीड़भाड़ वाले स्थानों के एकांत कोनों में नवजात शिशुओं को लावारिस छोड़ देने की घटनाएं बढ़ती गई हैं। पुलिस का कहना है कि हर दिन औसतन तीन बच्चे जीवित या मृत अवस्था में लावारिस पाए जाते हैं। ऐसे बच्चों का संरक्षण और पालन-पोषण एक चुनौतीपूर्ण काम है। यह भी गौरतलब है कि इनमें करीब सत्तर फीसद बच्चियां होती हैं। यह तथ्य बच्चियों को अवांछित मानने की रुग्ण मानसिकता की ही पुष्टि करता है। विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि अपने नवजात शिशुओं को लावारिस छोड़ने वालों में ज्यादातर गरीब परिवारों के लोग होते हैं, जिनके लिए बच्चों के पालन-पोषण का खर्च जुटाना कठिन होता है। इसके अलावा वे महिलाएं भी ऐसा कदम उठाती हैं, जो अपने पति से अलग हो चुकी होती हैं और दूसरा विवाह करना चाहती हैं। फिर कोई-कोई अविवाहित स्त्री भी अपने अनचाहे शिशु से छुटकारा पाने की कोशिश में लोगों की नजर बचा कर उसे कहीं छोड़ देती है। हालांकि यह समस्या केवल नवजात शिशुओं को लावारिस छोड़ने तक सीमित नहीं है। कई माता-पिता अपने थोड़ी बड़ी उम्र के बच्चों को किसी भीड़भाड़ वाली जगह पर चुपके से छोड़ कर गायब हो जाते हैं। इनमें जो बच्चे कुछ समझदार होते हैं, अपने माता-पिता का नाम आदि बता पाते हैं, उनके परिवार को तलाशने में कुछ हद तक कामयाबी मिल जाती है। मगर अनेक मामलों में संरक्षण की जिम्मेदारी पुलिस पर आ जाती है। चूंकि हमारे यहां लावारिस शिशुओं और बच्चों के माता-पिता को तलाशने का कोई कारगर तंत्र नहीं है, ऐसे बच्चों के पालन-पोषण की खातिर अनाथालयों की मदद लेनी पड़ती है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि घर-परिवार से वंचित बच्चों के लिए बाल अधिकार की तमाम बातें और भविष्य का सपना क्या मायने रखता होगा!  
दिल्ली में बच्चों की चोरी, उनके अचानक लापता होने और आखिरकार मानव तस्करी करने वालों की गिरफ्त में पहुंच जाने की समस्या से पार पाना यों ही पुलिस के लिए बड़ी चुनौती है। ऐसे में लावारिस नवजात शिशुओं को खुशहाल बचपन दे पाना अलग परेशानी का विषय है। यों पांच साल तक की आयु के सभी बच्चों के पोषण और स्वास्थ्य आदि से जुड़ी समस्याओं के मद्देनजर कई योजनाएं चलाई जाती हैं। मगर हकीकत यह है कि बहुत सारे परिवार बच्चों को पर्याप्त पोषाहार दे पाना तो दूर, किसी तरह उनका पेट भर पाने में भी खुद को अक्षम महसूस करते हैं। इनमें कई परिवार अपने बच्चों को लावारिस छोड़ या चंद पैसों के लिए बेच देते हैं। गरीब परिवारों के लिए लड़कियों के शादी-ब्याह का खर्च उठा पाना एक और अतिरिक्त समस्या होती है। पर बच्चों के गायब होने की ज्यादातर घटनाओं के पीछे मानव तस्करी में लगे गिरोहों का हाथ होता है। अनेक अध्ययनों से जाहिर हो चुका है कि ये गिरोह उन्हें भीख मांगने और मजदूरी के कामों में लगा देते हैं। गायब की गई लड़कियां जिस्मफरोशी की अंधेरी दुनिया में भेज दी जाती हैं। वहां उन्हें तमाम तरह की यातनाओं से गुजरना पड़ता है। अनाथाश्रमों की बदइंतजामी को लेकर भी अक्सर शिकायतें मिलती रहती हैं। खासकर लड़कियों के साथ वहां होने वाले व्यवहार पर कई बार उंगलियां उठ चुकी हैं। बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाले कई स्वयंसेवी संगठन लोगों में जागरूकता पैदा करने की कोशिश करते रहे हैं। फिर भी समस्या बढ़ती जा रही है तो इसका कारणसमाज के संकीर्ण नजरिए के अलावा हाशिये पर जी रहे तबके के प्रति व्यवस्थागत संवेदनहीनता भी है।

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