Friday 8 June 2012

क्या बेटियों के जन्म को हम सच मायने में लक्ष्मी मानते है by चिरागन

बच्चा पैदा होते ही अकसर डूबे हुए स्वर में लोगों को यह कहते हुए सुना है, लक्ष्मी आई है! हिन्दू धर्म में लक्ष्मी धन, वैभव और सम्पन्नता का प्रतीक मानी जाती हैं! क्या आपको यह बात कुछ अटपटी लगी यदि घर में लक्ष्मी आई है, तो खुशी होनी चाहिए, ना कि दुख। देश के अधिकतर लोग बेटी के पैदा होते ही उसके लिए धन एकत्र करना शुरू कर देते हैं। उसकी पढ़ाई-लिखाई, देख-रेख सभी इसलिए होती है ताकि उसकी शादी अच्छे घर में हो और वहां वह आराम से बस सके। दूसरी ओर बेटे की पढ़ाई और पालन-पोषण पूंजीनिवेश है। देखा जाए तो बेटी के पालन-पोषण को लेकर सामाजिक सोच में कहीं भी लक्ष्मी का रूप नजर नहीं आता। हर तरह से विचारधारा यही है, कि बेटी मतलब खर्च। हालांकि गर्भ में बच्चे का लिंग पता करना या बताना कानूनी जुर्म है, परन्तु वास्तव में लगभग सभी वर्ग के लोगों को यह सुविधा आसानी से उपलब्ध है। गर्भपात भी उतनी ही आसानी से करवाया जा सकता है। क्या बच्चे के पैदा होने से पहले उसका लिंग पता करना जुर्म है? सभी विकसित देशों में, गर्भ में ही बच्चे का लिंग पता करना सामान्य बात है। ऐसा जानने के बाद वे आने वाले बच्चे के स्वागत की तैयारी करने लगते हैं। लड़के के लिए नीले रंग के कपड़े, बिस्तर आदि और लड़की के लिए गुलाबी वस्त्र, कमरे की सजावट वगैरह। तो यह समझना जरूरी है कि अपने आप में गर्भ में लिंग का पता करवाना कोई गलत बात नहीं। हमारे देश में इसे जुर्म का दर्जा इसलिए मिला क्योंकि देश में लड़कों की तुलना में हर वर्ष लड़कियां कम होती ही जा रही हैं और राजस्थान जैसे राज्यों में ऐसे कई गांव हैं जहां पिछले 50 सालों से बारात नहीं आई। 2012 में भी देश में स्त्रियों की यह दयनीय दशा क्यों है, यह जानना जरूरी है। यह विषय हम सभी के दिल के बहुत पास है अथवा होना चाहिए क्योंकि हममें से ऐसा कोई भी नहीं जो इससे अछूता हो। हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता आमिर खान ने हाल ही में सामाजिक विषयों पर धारावाहिक शुरू किया है, सत्यमेव जयते। पिछले हफ्ते विषय था दहेज। प्रस्तुति भावनात्मक थी और दहेज को लेकर अपने दुखभरे किस्से, प्रोग्राम देखने वाले दर्शकों को छू रहे थे। ऐसा इसलिए क्योंकि कहीं न कहीं वे सभी इस व्यथा का हिस्सा हैं और यह उनका भी दर्द है। अंत में दहेज की प्रथा को कैसे समाज से निकाला जाए, विचार और सुझाव दिये गये। ऐसा कोई भी सुझाव नहीं था, जिससे यह समस्या पूरी तरह से हल हो सके। कानूनी रूप से लड़कियों की सुरक्षा, विकास और पुरुष से समानता के लिए बहुत से प्रयत्न किये गए हैं, परन्तु सामाजिक स्वीकृति के लिए जागरूक लोग भी रीति-रिवाजों की परंपरा को तोड़ने से डरते हैं। यह समझाना कि दहेज अपने आप में सामाजिक बुराई है, विवादास्पद है। हिन्दू धर्म की अनेक प्रथाओं की तरह दहेज की परिभाषा और प्रथा भी कई हजार सालों में विकृत हो गयी है। प्राचीन भारत में लड़के और लड़कियों के अधिकार को समान रूप से लड़की की शादी के वक्त, पिता अपनी संपित्त में से उसके उचित हिस्से को, गहनों आदि के रूप में देता था। ऐसा करने के पश्चात, लड़की का अपने भाई से संपत्ति को लेकर कोई मतभेद होने का कोई कारण नहीं होता था। आज आधुनिक कानून के अनुसार लड़की का भी पिता की संपत्ति पर उतना ही अधिकार है, जितना कि लड़के का। परन्तु जैसे अभी बताया, चाहे दहे ज के रूप में ही सही, सदियों से हिन्दू विवाह में ऐसा सामान्य था। अपने विकृत रूप में दहेज में पिता अपनी बेटी को क्या दे, यह लड़के वालों के लोभ पर निर्भर करने लगा और धीरे-धीरे सामाजिक अभिशाप बन गया। अपने मौजूदा विकृत रूप में, यह किसी भी बेटी के माता-पिता के लिए बोझ है और बेटी का पैदा होना एक दुखद समाचार है। कन्या के जन्म पर खुश होने वाले लोगों को भी यह चिंता तो रहती ही है कि एक दिन उसकी शादी करनी होगी, जिसके खर्च के लिए उसके बचपन से ही धन एकत्रित करना अनिवार्य है। शादी पर लगाये लाखों-करोड़ों रुपयों के बाद यदि लड़की यह कहते हुए घर आती है कि उसके ससुराल वाले उसे परेशान करते हैं या उसके पति से उसकी नहीं बनती तो उसके भविष्य से ज्यादा उसकी शादी पर खर्च की गयी रकम याद आती है। यदि शादी टूट गयी तो शादी पर किये प्रयत्न और पैसे पानी में मिल जायेंगे। दूसरी शादी का मतलब एक बार फिर उतना ही खर्चा। विकसित देशों की तरह हमारे समाज में भी स्त्री का स्थान वही हो सकता है, जो पुरुष का है, जहां माता-पिता को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता हो कि उनके घर लड़की पैदा हुई या लड़का। ऐसा होने के लिए अत्यंत आवश्यक है कि हमारे देश में भी विवाह की संस्था की आधार रेखा समान हो। धर्म कोई भी हो, शादी के लिए दम्पति को कोर्ट में जा कर पहले शादी को पंजीकृत करवाना अनिवार्य हो। जहां इस बात का खुलासा भी करना आवश्यक हो कि लड़की के पिता अपनी कन्या को क्या संपत्ति, धन, गहने आदि दे रहे हैं। यदि लड़की और लड़के के परिवार सादगी से शादी संपन्न करना चाहें तो कोर्ट के पास ऐसे प्रावधान भी होने चाहिये। हमारे देश में, जहां योग्य वर की कीमत बंधी हुई है, जैसे- आईएएस के कुछ करोड़, इंजीनियर के कुछ लाख। यदि सामाजिक स्वीकृति से शादी कोर्ट में ही संपन्न हो तो कन्या का होना किसी को भी बोझ नहीं लगेगा। बेटियों को भी माता-पिता प्रेमपू र्वक शिक्षित कर उतना ही अपना समझेंगे जितना कि बेटों को। जब शादी दो दिलों का मिलन होगी न कि सौदा, जब बेटी पराया धन नहीं कहलाएगी तभी होगा हमारे देश में भी लक्ष्मी का वास।
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