Friday 15 March 2013

संचार माध्यमों (मीडिया) का भ्रष्टाचार

2जी स्पेक्‍ट्रम घोटाला मामला ने देश में भ्रष्टाचार को लेकर एक नई इबादत लिख दी। इस पूरे मामले में जहां राजनीतिक माहौल भ्रष्टाचार की गिरफ्त में दिखा वहीं लोकतंत्र का प्रहरी मीडिया भी राजा के भ्रष्टाचार में फंसा दिखा। राजा व मीडिया के भ्रष्टाचार के खेल को मीडिया ने ही सामने लाय। हालांकि यह पहला मौका नहीं है कि मीडिया में घुसते भ्रष्टचार पर सवाल उठा हो! मीडिया को मिशन समझने वाले दबी जुबां से स्वीकारते हैं कि नीरा राडिया प्रकरण ने मीडिया के अंदर के उच्च स्तरीय कथित भ्रष्टाचार को सामने ला दिया है और मीडिया की पोल खोल दी है।
हालांकि, अक्सर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन छोटे स्तर पर। छोटे-बडे़ शहरों, जिलों एवं कस्बों में मीडिया की चाकरी बिना किसी अच्छे मासिक तनख्वाह पर करने वाले पत्रकारों पर हमेशा से पैसे लेकर खबर छापने या फिर खबर के नाम पर दलाली के आरोप लगते रहते हैं। खुले आम कहा जाता है कि पत्रकरों को खिलाओ-पिलाओ-कुछ थमाओं और खबर छपवाओ। मीडिया की गोष्ठियों में, मीडिया के दिग्गज गला फाड़ कर, मीडिया में दलाली करने वाले या खबर के नाम पर पैसा उगाही करने वाले पत्रकारों पर हल्ला बोलते रहते
लोकतंत्र पर नजर रखने वाला मीडिया भ्रष्टाचार के जबड़े में है। मीडिया के अंदर भ्रष्टाचार के घुसपैठ पर भले ही आज हो हल्ला हो जाये, यह कोई नयी बात नहीं है। पहले निचले स्तर पर नजर डालना होगा। जिलों/कस्बों में दिन-रात कार्य करने वाले पत्रकार इसकी चपेट में आते हैं, लेकिन सभी नहीं। अभी भी ऐसे पत्रकार हैं, जो संवाददाता सम्मेलनों में खाना क्या, गिफ्ट तक नहीं लेते हैं। संवाददाता सम्मेलन कवर किया और चल दिये। वहीं कई पत्रकार खाना और गिफ्ट के लिए हंगामा मचाते नजर आते हैं।
वहीं देखें, तो छोटे स्तर पर पत्रकारों के भ्रष्ट होने के पीछे सबसे बड़ा मुद्दा आर्थिक शोषण का आता है। छोटे और बड़े मीडिया हाउसों में 15 सौ रूपये के मासिक पर पत्रकारों से 10 से 12 घंटे काम लिया जाता है। उपर से प्रबंधन की मर्जी, जब जी चाहे नौकरी पर रखे या निकाल दे। भुगतान दिहाड़ी मजदूरों की तरह है। वेतन के मामले में कलम के सिपाहियों का हाल, सरकारी आदेशपालों से भी बुरा है। ऐसे में यह चिंतनीय विषय है कि एक जिले, कस्बा या ब्‍लॉक का पत्रकार, अपनी जिंदगी पानी और हवा पी कर तो नहीं गुजारेगा? लाजमी है कि खबर की दलाली करेगा? वहीं पर कई छोटे-मंझोले मीडिया हाउसों में कार्यरत पत्रकारों को तो कभी निश्चित तारीख पर तनख्वाह तक नहीं मिलती है। छोटे स्तर पर कथित भ्रष्ट मीडिया को तो स्वीकारने के पीछे, पत्रकारों का आर्थिक कारण, सबसे बड़ा कारण समझ में आता है, जिसे एक हद तक मजबूरी का नाम दिया जा सकता है।

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