Sunday 31 March 2013

कुछ यही सोचती होगी उनकी आत्मा....कैसे मैं गणतंत्र मनाऊँ….??? Chiragan

एक समय था जब २६ जनवरी नाम सुनते ही मन में एक अजीब सा कैतूहल, अजीब सी खुशी पैदा हो जाती है, मैं बात कर रहा हूँ, बचपन की, विधालय जीवन की।
साल मैं दो त्यौहार आते थे, जिन्हें परिवार के साथ ना मनाकर विधालय के मित्रों और गुरुजनों के साथ मनाते थे। तो खुशी तो होनी ही थी।
उनमें से एक ‘१५ अगस्त’ ज्यादातर बारिश में धुल जाता था। क्योंकि उस समय सामान्यतः श्रावण का महीना होता था। इसीलिए सारी तैयारियों पर पानी फिरने का डर बना रहता था।
तो अध्यापक बोलते थे सारी कसर २६ जनवरी पर पूरी कर लेंगे। इसलिए २६ जनवरी पर जोश दोगुना हो जाता था। बीसों दिन पहले तैयारी शुरु हो जाती, अपने से वरिष्ठ विधार्थियों,
अध्यापकों से मिलते कि कोई अच्छा गाना या कविता मिल जाये, कुछ नहीं मिलता था तो अपनी ही हिंदी की पाठ्यपुस्तक में से कोई देशभक्ति कविता तैयार करना शुरु कर देते,
आखिर शहीदों के लिये सम्मान व श्रद्दा जो थी कि हमें आजादी दिलाई उन्होंने। घरवालों को परेशान करना शुरु कर देते नई पोशाक और जूते चाहिये २६ जनवरी पर कार्यक्रम में भाग ले रहा हूँ।
उसके बाद पुरुस्कार व मिठाई की खुशी, साथ ही देशभक्ति गीत सुनकर खून उबाल मारता, और जोश आसमान को छूता, लेकिन ज्यों-ज्यों बडे होते गये, अर्थ बदलते गये।
थोडे बडे हुए तो कारण पता चला कि इस दिन हमारा संविधान लागू हुआ। आजादी के बाद २ वर्ष ११ माह १८ दिन में ये २६ नवम्बर १९४९ को बनकर तैयार हुआ।
सोचा तो २६ जनवरी को ही क्यूं लागू हुआ तो उत्तर मिला कि एक बार २६ जनवरी के ही दिन सन १९३० में नेहरु ने रावी के तट पर तिरंगा फहराया था। और बडे हुए थोडी और जानकार मिली।
कि संविधान जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा लिखित संविधान है। और दुनियां का सबसे बडा संविधान है। बडी खुशी मिलती और गर्व भी होता।
लकिन अब अर्थ व मायने बिल्कुल बदल गये, क्यूंकि सच्चाई बिल्कुल भिन्न थी। क्योंकि–
भारत का संविधान दुनियां का सबसे बडा लिखित संविधान है, बडे संविधान का मतलब ये नहीं होता कि आपने उसे लिखने में ज्यादा पन्ने इस्तेमाल किये, बडे का मतलब बडी बातों से होता है।
जो समाज जितना ही पिछड़ा हुआ, अतार्किक और अन्धाविश्वासी होता है, उसमें देव-पूजा, नायक-पूजा की प्रवृत्ति उतनी ही गहराई से जड़ें जमाये रहती है। इससे स्वार्थी व्यक्तियों का भी हित सधता है, प्रभावशाली सामाजिक वर्गों का भी और सत्ता का भी। इसके लिए कभी-कभी किसी ऐसे पुराने नायक को जीवित कर लेते हैं, जिसके साथ अतीत में पीडितों और कमजोरों का पक्षधर होने की प्रतिष्ठा जुड़ी हो, उत्पीड़ित जन यह भ्रम पाल लेते हैं कि उन्हें शासकों के प्रभुत्व से छुटकारा मिल जायेगा। जब यह भ्रम भंग भी हो जाता है और नायक/नेता द्वारा प्रस्तुत वैकल्पिक मार्ग आगे नहीं बढ़ पाता, तब भी उक्त महापुरुष-विशेष और उसके सिद्धान्तों की आलोचना वर्जित और प्रश्नेतर बनी रहती है और उसे देवता बना दिया जाता है। इससे लाभ अन्तत: शोषणकारी व्यवस्था का ही होता है।
डॉ॰ अम्बेडकर को लेकर भारत में प्राय: ऐसा ही रुख़ अपनाया जाता रहा है। अम्बेडकर की किसी स्थापना पर सवाल उठाते ही दलितवादी बुद्धिजीवी तर्कपूर्ण बहस के बजाय ”सवर्णवादी” का लेबल चस्पाँ कर देते हैं, निहायत अनालोचनात्मक श्रद्धा का रुख़ अपनाते हैं तथा सस्ती फ़तवेबाज़ी के द्वारा आलोचनाओं को ख़ारिज कर देते हैं। इससे सबसे अधिक नुक़सान दलित जातियों के आम जनों का ही हुआ है। इस पर ढंग से कोई बात-बहस ही नहीं हो पाती है कि दलित-मुक्ति के लिए अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत परियोजना वैज्ञानिक-ऐतिहासिक तर्क की दृष्टि से कितनी सुसंगत है और व्यावहारिक कसौटी पर कितनी खरी है?
इस बात का बहुत अधिक प्रचार किया जाता है कि डॉ. अम्बेडकर ही भारतीय संविधान के ‘निर्माता’ या ”प्रमुख वास्तुकार” हैं। यह कहाँ तक सच है? संविधान सभा में ‘आर्थिक शोषण से मुक्ति’ के लिए प्रस्तुत अम्बेडकर का प्रस्ताव क्या था और कितना व्यावहारिक था और इस प्रस्ताव के ख़ारिज किये जाने के बाद भी अम्बेडकर संविधान सभा में और नेहरू के मन्त्रालय में क्यों बने रहे? अनुसूचित जातियों के कल्याण के जिस उद्देश्य से अम्बेडकर सरकार और संविधान सभा में गये थे, क्या उसकी कोई सम्भावना शुरू से ही वहाँ मौजूद थी?
संविधान-निर्माण का कार्य सम्पन्न होने पर तो अपने लम्बे भाषण में अम्बेडकर ने परम सन्तोष प्रकट किया था और कांग्रेस की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी,
फिर कुछ ही वर्षों बाद वे सरकार से बाहर आकर ‘संविधान जलाने’ की बात क्यों करने लगे थे? बावजूद उनके इस मोहभंग के, आज के दलित नेता उन्हें ‘भारतीय संविधान का निर्माता’ कहकर गौरवान्वित क्यों होते हैं और संविधान में किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ का विरोध क्यों करते हैं? — इन सभी बातों पर तार्किक और तथ्यपरक ढंग से सोच-विचार किया जाना चाहिए। अतर्क-कुतर्क और अन्धभक्ति से किसी का भला नहीं हो सकता।
अपने भाषण में अम्बेडकर ग़रीबों को वे बार-बार यही उपदेश देते हैं कि वे संविधान और क़ानून के ख़िलाफ़ कदापि न जायें। अम्बेडकर के भाषण के बाद कांग्रेसी और अन्य सदस्यों ने उनकी प्रशंसा की झड़ी लगा दी और उन्हें ”आधुनिक मनु” की संज्ञा दी। कांग्रेस के प्रति आत्मसमर्पण का दृश्य पूरा हो चुका था। इसके बाद चार वर्षों तक अम्बेडकर इन्तज़ार करते रहे। उन्हें न तो मनचाहा मन्त्रालय मिला, न ही उन्हें किसी अन्य नयी गठित कमेटी में ही लिया गया। 1952 में वे राज्यसभा के सदस्य बने। 1953 में राज्यसभा में ‘आन्‍ध्र राज्य के बिल’ पर बोलते हुए उन्होंने कहा : ”सब लोग मुझे संविधान का निर्माता कहते हैं। वास्तव में मुझे बहुत सी बातें अपनी इच्छाओं के विरुद्ध लिखनी पड़ी थीं। अब मैं उस संविधान से सन्तुष्ट नहीं हूँ जिसे मैंने स्वयं लिखा। मैं पहला व्यक्ति होऊँगा जो इसे जलाने के लिए आगे आयेगा। यह संविधान किसी के लिए भी उपयोगी नहीं है।” (रंगनायकम्मा : उपरोद्धृत पुस्तक, पृ. 452-453)।

संविधान की प्रस्तावना देखो….
”हम, भारत के लोग भारत को एक सम्प्रभुता-सम्पन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष जनवादी गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म
और उपासना की स्वतन्त्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सबमें
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और
अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता
बढ़ाने के लिए
दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख़ 26 नवम्बर 1949 ई. को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”
यह लोक-लुभावन छलावे के साथ रचा गया प्रपंच था। भारत के संविधान की शुरुआत ही बडबोली घोषणा के साथ होती है। जैसे कोई पार्टी चुनाव से पहले जनता के सामने बडे ही लुभावने वायदे करती है। आपको याद दिला दूँ 26 नवम्बर 1949 को संविधान की मूल प्रस्तावना में सिर्फ ‘सम्प्रभुता सम्पन्न जनवादी गणराज्य’ ही था, “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्द 1976 में आपातकाल के दौरान बयालीसवें संशोधन द्वारा जोड़े गये थे। इस संशोधन का विडम्बनापूर्ण समय भी उल्लेखनीय है। उस समय इन्दिरा गाँधी की सरकार ने देश में आपातकाल लागू करके रही-सही नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों को भी समाप्त कर दिया था। नेहरूवादी “समाजवाद” की नीतियों को फासिस्ट निरंकुशता की इस विडम्बनापूर्ण परिणति तक पहुँचना ही था। उस आपातकाल की समाप्ति के बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जो पहली गैर-कांग्रेसी सरकार केन्द्र में अस्तित्व में आयी, जनता पार्टी सरकार की उस सरकार में सबसे बड़ा और संगठित धड़ा आर.एस.एस. समर्थित जनसंघ था जो ”समाजवाद” ही नहीं, जो तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का भी धुर-विरोधी था। बयालीसवें संविधान संशोधन द्वारा ही ‘राष्ट्र की एकता’ के स्थान पर “राष्ट्र की एकता और अखण्डता’ शब्दावली रख दी गयी थी। यह बदलाव भी तत्कालीन इन्दिरा निरंकुशशाही के अतिकेन्द्रीकृत सत्ता और एकता-अखण्डता की रक्षा के नाम पर हर विरोध को कुचल देने की इच्छा और ज़रूरत को ही रेखांकित करता था।
“हम भारत के लोग” प्रस्तावना का शुरुआती जुमला वही था जिससे अमेरिकी संविधान की शुरुआत हुई थी। “हम संयुक्त राज्य के लोग’। अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना की यह शब्दावली भी एक धोखाधड़ी थी। वह न तो अमेरिका में अश्वेत दासों का प्रतिनिधित्‍व करता था, न ही अमेरिकी संविधान ने दासता का उन्मूलन किया था।
भारतीय संविधान सभा भी बहुसंख्य जनसमुदाय का प्रतिनिधित्‍व नहीं करती थी और आगे चलकर भी उस संविधान को भारत के लोगों के चुने हुए प्रतिनिधियों के किसी निकाय द्वारा पारित नहीं किया गया। यह भी कहा गया कि भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता का उन्मूलन करके सामाजिक समावेशन और दलित जातियों की प्रगति की राह खोल दी। ग़ौरतलब है कि इस मामले में भारतीय संविधान और लोकतन्त्र की विफलता को तो पाँच-छह वर्ष बीतते-बीतते डॉ. अम्बेडकर भी स्वीकार कर चुके थे। आरक्षण जैसे प्रावधानों ने भी बहुसंख्यक दलितों को समाज के सबसे निचले पायदान से और उजरती ग़ुलामों की सबसे अपमानित पाँत से ऊपर उठाने के बजाय उनके बीच से सिर्फ एक छोटी-सी जमात या मात्र कुछ ही लोगों को आर्थिक रूप से बेहतर जीवन दे दिया है, बाकी आज तक वैसे ही हैं। जबकि सामाजिक अपमान और भेदभाव का सामना उन्हें आज भी करना पडता है।
अब बात आती है संप्रभुता की, अर्थात् राजाशाही की निरंकुश्ता की जगह चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता को सत्ता का केंद्र बनाना और जनता को संप्रभु बनाने से था। आज जनता मात्र मतदान की ताकत है उसके बाद सत्ता निरंकुश।
बात ‘लोकतन्‍त्रात्मक गणराज्य’ की करें तो, जो अमली रूप सामने आया है उसने जनता के साथ हुई धोखाधड़ी को एकदम नंगा कर दिया है। इस बात का प्राय: बहुत अधिक डंका पीटा जाता है कि भारत का बहुदलीय संसदीय जनवाद तिरसठ वर्षों से सुचारु रूप से चल रहा है। बेशक शासक वर्गों की इस हुनरमन्‍दी को मानना पड़ेगा कि इतने वर्षों से यह धोखाधड़ी जारी है, बहुदलीय संसदीय जनवाद का मतलब सिर्फ इतना ही रहा है कि हर पाँच वर्षों बाद जनता ठप्पा मारकर सिर्फ यह चुनाव करे कि शासक वर्ग की कौन सी पार्टी अगले पाँच वर्षों तक उसपर शासन करे। सरकारें चाहे जिस पार्टी की हों, वे शासन वर्गों की मैनेजिंग कमेटी का काम करती रही हैं। जो सरकार योग्यतापूर्वक इस काम को नहीं कर पाती, उस सरकार को गिरते देर नहीं लगती। चुनाव पूँजीपति घरानों की थैलियों के बिना कोई लड़ ही नहीं सकता। संसद की भूमिका केवल बहसबाज़ी के अड्डे की होती है। नीतियों को लागू करने का असली काम नौकरशाही करती है। मन्त्रिमण्डल बस पूँजीपतियों के इशारे पर नीतियाँ बनाता है। जनता के हर सम्भावित प्रतिरोध को कुचलने के लिए पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों और सेना का एक दैत्याकार तन्‍त्र है।

संकलन कर्ता आभार के साथ...!
Pinki Devi
 

No comments:

Post a Comment