Monday 13 May 2013

बंद करो हम पर यह अत्याचार

फिर आ गईं गर्मी की छुट्टियां। साल भर की पढ़ाई और परीक्षाओं के बाद आखिर ये कुछ दिन ही तो मौज-मस्ती के होते हैं... जून से फिर अगले साल की पढ़ाई में लग जाना है। बच्चों को इन छुट्टियों का इंतजार पूरे साल रहता है। अमूमन यह भी सोच लिया जाता है कि इस बार इन छुट्टियों में क्या करना है। ज्यादातर बच्चे और उनके परिवार घूमने का कार्यक्रम पहले से तय करके रखते हैं। कोई अपने नेटिव प्लेस जाता है, तो कोई किसी पर्यटन स्थल। किसी को कहीं जाने का मौका नहीं मिलता, तो वह अपने शहर की ही ऐसी जगहें घूम लेना चाहता है, जहां जीवन की आपाधापी में जाना न हो सका हो। इसके बाद भी छुट्टियां बची रहती हैं, तो बच्चे खेल-कूद में लग जाते हैं। 
 यही समय होता है जब बच्चों को अपने मन से कुछ करने का मौका मिलना चाहिए, लेकिन आजकल ऐसा होता नहीं। मैंने अपने पास-पड़ोस के बच्चों पर ध्यान दिया कि वे गर्मियों की छुट्टियों में क्या कर रहे हैं। मैं हैरान रह गया... वे छुट्टियों में भी स्कूली दिनों की तरह ही विभिन्न क्लासों में जूझते दिखे। दस साल का करण सुबह को स्केटिंग क्लास करता है, फिर फुटबॉल क्लास। शाम को स्विमिंग सीखने जाता है। दोपहर को उसका ग्रामर का ट्यूशन लगा है। रात को उसे अगले साल की किताबों में में से एक चैप्टर पढ़कर सोना होता है। मैंने उससे पूछा कि इतनी सारी ऐक्टिविटी करके उसे बहुत मजा आता होगा। वह रुआंसा हो गया। बोला, 'क्या मजा आएगा...? पापा को फुटबॉल में डालना था और ममी को स्केटिंग में। उन्होंने डाल दिया। पढ़ाई छुट्टियों में भी करनी पड़ रही है। हां, स्विमिंग में जरूर अच्छा लगता है। पर वह भी मेरी चॉइस नहीं है।' मैंने पूछा, 'तो बेटा, तुम क्या करना चाहते थे?' जवाब मिला, 'मुझे ड्राइंग पसंद है। ममी-पापा को नहीं। मैं स्टोरी बुक्स पढ़ना चाहता हूं। पर मुझे पढ़नी पड़ रही हैं कोर्स की बुक्स...।' 

 ऐसा ही हाल 12 साल की तन्वी का है। उसका मन था ऐक्टिंग कोर्स करने का। पर माता-पिता की इच्छा के अनुसार उसे पेंटिंग, डांस और सिंगिंग क्लास करनी पड़ रही हैं। टेबल टेनिस खेलने की उसकी इच्छा जरूर पूरी हो रही है। वह स्टोरी लिखना चाहती है, लेकिन उसे स्टोरी पढ़ने भी नहीं दी जातीं। बहुत से बच्चों के ऐसे ही अनुभव होते हैं। एक तो हमारी शिक्षा प्रणाली बच्चों को हुनरमंद नहीं बनाती, दूसरे परिवार का दबाव पारंपरिक करियर चुनने का होता है। ज्यादातर घरों में बच्चों को बनी-बनाई लीक पर चलने को विवश किया जाता है। उनके मन की खुशी को अपेक्षाओं तले रौंद दिया जाता है। हालांकि अगर बच्चों को कुछ नए काम सिखाने की कोशिश की जाए, तो वे बहुत खुशी से करते हैं। इससे उनमें आत्मविश्वास बढ़ता है और नया हुनर सीखने का मौका भी मिलता है।
मेरे एक परिचित गर्मियों में बच्चों के लिए समर कैंप चलाते हैं। हर साल गर्मियों की छुट्टियों में वे गरीब बच्चों को इकट्ठा करके उन्हें कई काम सिखाते हैं। यह काम वे अपने खर्चे से करते हैं। इस बार उन्होंने अपने कैंप में बच्चों को कहानी कहने की कला सिखाने के लिए मुझे बुलाया। मैंने परंपरागत कहानियों के बजाय अपने आसपास होने वाली घटनाओं की कहानियां बनाकर उन्हें सुनाना शुरू किया। ऐसी घटनाएं, जो खबरों के रूप में आमने चुकी हों। मेरे अचरज का ठिकाना नहीं रहा, जब 12-13 साल के बच्चों ने अपनी रोजमर्रा की जिंदगी की कहानियां सुनाईं। ये झोपड़पट्टी, गलियों, बाजारों, स्कूल, ठेले वालों, सब्जी बेचने वालों और उन बच्चों के घरों की कहानियां थीं। इनमें मुर्गियां, साइकिल, किताबें, गटर और गंदगी भी पात्र थे। ऐसा नहीं है कि इन बच्चों को जीवन के नकारात्मक पक्ष ही दिखते हों, ये अपनी कल्पना से कीचड़ में कमल भी खिलाकर दिखाते हैं। उन बच्चों के बीच अपनी छुट्टी के चार घंटे बिताकर मुझे बहुत सुकून मिला। लौटते हुए मन में यही आया कि हमें बच्चों को खिलने-खुलने का मौका देना चाहिए। इसी से उनका नैसर्गिक विकास होता है।

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