Monday 13 May 2013

चींटियों की फौज में भी होता है प्रोमोशन

बचपन में मेरे छोटे भाई की किसी जिद पर गुस्से में दादी ने उसकी तुलना चींटी से कर दी थी, 'बिल्कुल चींटी है यह, जहां से हटाओ घूम-फिर कर वहीं आ जाएगा।' दादी के इस वाक्य ने मेरे मन में चींटियों के प्रति बड़ा कौतूहल पैदा किया। और मैं जब-तब चींटियों पर गौर करने लगा। हालांकि उस उम्र में ज्यादा कुछ पता नहीं कर सका। हां यह जरूर जान गया कि कभी कोई चींटी आराम करती हुई नहीं दिखती। कुछ खाती रहेगी या कहीं जा रही होगी या फिर कुछ ढो रही होगी। आते-जाते दूसरी चींटियों से टकराती भी है, लेकिन सबसे हलो-हाय नहीं करती। जो दोस्त-मित्र हुए उनसे दो बात जरूर कर लेती है, वह भी बिना रुके। बचपन में चींटियों को लेकर बनी यह राय कमोबेश आज भी वैसी ही है, पर हाल में इनके बारे में कुछ दिलचस्प रिपोर्टें पढ़ने को मिली हैं। चींटियां सिर्फ मेहनत करना ही नहीं, मेहनत करवाना भी जानती हैं। इसके लिए उनके यहां पुरस्कार और दंड की व्यवस्था भी है। साइंस नामक पत्रिका में प्रकाशित एक रिसर्च में स्विट्जरलैंड की युनिवसिर्टी ऑफ लाउसैन के शोधकर्ताओं ने चींटियों की छह अलग-अलग कॉलोनियों को शामिल किया। अध्ययन की सुविधा के लिए ये कॉलोनियां लैब में ही तैयार की गई थीं। इसके बाद इन कॉलोनियों की एक-एक चींटी की निगरानी शुरू की गई। इसके लिए सारी चींटियों को अलग-अलग टैग करके इन पर बेहद छोटे-छोटे कैमरे लगाए गए, जो मेन कंप्यूटर से जुड़े थे। ये कैमरे हर सेकंड दो तस्वीरें भेज रहे थे। इस तरह 41 दिन इन सारी चींटियों को ऑब्जर्व किया गया। प्रयोग में शोधकर्ताओं के पास 2.4 अरब रीडिंग्स जमा हुईं। इन सबके विश्लेषण में लंबा समय लगेगा, लेकिन कुछ निष्कर्ष बिल्कुल स्पष्ट सामने आए और वे खासे चौंकाने वाले हैं।

तस्वीरों के विश्लेषण से पता चला कि अपनी कॉलोनी में चींटियों के बीच काम का बड़ा व्यवस्थित विभाजन होता है। वे सिर्फ मेहनत नहीं करतीं बल्कि अलग-अलग तरह से मेहनत करती हैं और उम्र तथा अनुभव के अनुरूप उनका काम बदलता रहता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक 40 फीसदी चींटियां नर्स होती हैं जो अमूमन रानी चींटी और उसके अंडों के आसपास ही रहती हैं। अन्य 30 फीसदी चींटियां भोजन इकट्ठा करने का काम करती हैं। ये इधर-उधर घूमकर खाना लाती हैं और प्राय: कॉलोनी के प्रवेश (इंट्रेंस) के आसपास रहती हैं। बाकी बची चींटियां साफ-सफाई का काम देखती हैं। वही कॉलोनी में कूड़ों के ढेर की ओर जाती हैं और गंदगी दूर करती हैं।

इस सारे काम का विभाजन यों ही नहीं होता। इसका व्यवस्थित तरीका होता है। रिसर्च के मुताबिक चींटियां उम्र के हिसाब से जॉब बदलती हैं। सबसे कम उम्र की चींटियां नर्स का काम देखती हैं। जब उनकी थोड़ी उम्र हो जाती है तब उन्हें साफ-सफाई का काम सौंपा जाता है। बड़ी हो जाने के बाद उन्हें कॉलोनी से बाहर जाकर भोजन जुटाने का काम सौंपा जाता है। स्पष्ट है कि बाहर जाने में रिस्क है। इसलिए शरीर में ताकत आने और दुनियादारी की समझ होने के बाद ही उन्हें यह काम दिया जाता है।

 मगर, शोधकर्ताओं ने पाया कि अलग-अलग कार्य समूहों में उम्र का ऐसा सख्त विभाजन नहीं था। अगर नर्सों में थोड़ी ज्यादा उम्र की चींटियां थीं तो सफाई के काम में कम उम्र की चींटियां भी लगी दिखीं। ऐसे ही भोजन जुटाने वाले समूह में अपेक्षाकृत कम उम्र की कुछ चींटियां भी दिख रही थीं। इसका मतलब संभवत: यह है कि प्रमोशन की व्यवस्था में उम्र एक पैमाना जरूर होता है, मगर यही एकमात्र पैमाना नहीं होता। काम को देखते हुए समय से पहले प्रमोशन मिल सकता है और काम अच्छा न हो तो उम्र हो जाने के बाद भी पुराने कैडर में ही रहना हो सकता है। इस अध्ययन के नतीजों को देख कर एक तरह का सुखद आश्चर्य भी हुआ, क्योंकि मधुमक्खियों के बारे में यह पहले से मालूम था। मगर चींटियों के यहां भी ऐसा होता है, इसकी जानकारी नहीं थी। इस अध्ययन के पहले कोई आधिकारिक जानकारी तो कतई नहीं थी।
 मगर, चींटियों की दुनिया में होने वाले श्रम के शोषण और इसके खिलाफ उनके यहां पनपने वाले गुस्से के नतीजों पर कुछ बेहद दिलचस्प जानकारी देने वाली एक और रिसर्च रिपोर्ट चार-पांच साल पहले आ चुकी है। इसकी जानकारी जर्मनी के जोहानेस गुटनबर्ग विश्वविद्यालय के प्रफेसर डॉ. सूसान फोइट्जिक ने 2009 में अपनी एक रिपोर्ट में दी थी। इसे उन्होंने 'गुलामी से विद्रोह की प्रवृत्ति' (स्लेव रिबेलियन फिनॉमनन) कहा था। बाद की कुछ और स्टडीज में उनकी इन बातों की न केवल पुष्टि हुई, बल्कि यह भी मालूम हुआ कि यह प्रवृत्ति उनके बताए इलाके या प्रजाति तक सीमित नहीं है बल्कि अन्य इलाकों और प्रजातियों की चींटियों में भी यह पाई जाती है।
 रिपोर्ट में चींटियों की दो प्रजातियों का जिक्र किया गया है। टेमनोथोरैक्स लॉन्जिस्पिनोसस चींटियां छोटे आकार की होती हैं। इनसे थोड़े ही बड़े आकार और ताकत वाली होती हैं प्रोटोमैगनैथस चींटियां। बड़ी चींटियों के समूह छोटी चींटियों की कॉलोनी पर बाकायदा धावा बोलते हैं, वहां छोटी चींटियों को मार डालते है और उनके अंडों को अपनी कॉलोनी में ले आते हैं। अंडों से निकलने वाली इन चींटियों को गुलाम बना लिया जाता है। इन्हें न केवल भोजन जुटाना पड़ता है बल्कि कॉलोनी (जो अमूमन कोई बड़ा बीज या पेड़ की सूखी टहनी का कोई हिस्सा होता है) की साफ-सफाई के साथ-साथ अंडों की देखभाल का भी काम करना होता है।
 इन चींटियों को अंडों की ही अवस्था में यहां लाया गया होता है, इसलिए वे अपनी प्रजाति के साथ तो रहे नहीं होते हैं। मगर, फिर भी इन बड़ी चींटियों के व्यवहार से इनमें गुस्सा पनपने लगता है। डॉ. सूसान फोइट्जिक और उनकी टीम के मुताबिक अंडों की देखभाल ये चींटियां शुरू में करती हैं, क्योंकि तब वे उन्हें पहचान नहीं पातीं। मगर, बाद में जब यह साफ हो जाता है कि ये तो गुलाम बनाने वाली प्रजाति की चींटियां हैं तो वे बाकायदा सामूहिक हमला करके बच्चों को मार डालती हैं। कुछ मामलों मे बच्चे इन चींटियों की लापरवाही से भी मरते हैं। लेकिन, इसका नतीजा यह होता है कि गुलाम बनाने वाली चींटियों की आबादी बढ़ने की रफ्तार बहुत कम होती है। 
रिसर्च के मुताबिक जहां गुलाम चींटियां नहीं होतीं, वहां भ्रूण से बच्चे विकसित होने का प्रतिशत 80-85 तक होता है, लेकिन जहां ये होती हैं वहां यह 35 फीसदी तक गिर जाता है। इसका सीधा फायदा गुलाम चींटियों को तो नहीं मिलता, मगर आसपास की कॉलोनियों में रह रही इनकी रिश्तेदार चींटियों को जरूर मिलता है, जो गुलाम बनाने वाली चींटियों की आबादी के कम होने की वजह से ज्यादा समय तक सुरक्षित रहती हैं।

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