Saturday, 27 October 2012

अभिभावकों और विद्यालय के शिक्षकों का दायित्व है कि वे बच्चे के मनोभावों को समझें।

Schoolo me atychar By: Chiragan
पिछले दिनों दिल्ली में स्कूली बच्चों के साथ यौनाचार की घटना ने समाज की उन घिनौनी परतों को उघाड़ दिया है, जिसके नीचे न जाने कितने मासूम बच्चों के घाव उनके तन-मन को क्षत-विक्षत कर रहे है। कुछ घटनाएं समाचार पत्रों में छप कर सनसनी फैला देती है और फिर समय के साथ पुरानी हो जाती हैं, लेकिन यौनाचार की घटनाओं का एक 'समाचार मात्र' बन कर रहना इस देश के मासूमों के साथ घोर अन्याय है। उनके न भरने वाले जख्म हर दिन उन्हें मानसिक पीड़ा पहुचाते है। अफसोस की बात यह है कि जिन नौनिहालों की सुरक्षा का दायित्व परिवार और समाज का है, वही उनका शोषण करते है। हाल ही में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट ने इस तथ्य का खुलासा किया है कि देश में हर चार में से एक बच्चा यौन शोषण का शिकार होता है। हर 155वें मिनट में एक बच्ची के साथ दुष्कर्म होता है।

यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 65 प्रतिशत बच्चे स्कूलो में यौन शोषण का शिकार होते है। 12 से कम आयु के 41.7 प्रतिशत बच्चे यौन उत्पीड़न से जूझ रहे है। भारत में बाल यौनाचार की बढ़ती घटनाओं का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों में देश के दस और दुनिया के 35 बड़े शहरों में दिल्ली पहले स्थान पर है। बाल शोषण आधुनिक समाज का एक विकृत और खौफनाक सच बन चुका है। आमतौर पर बाल शोषण को बच्चों के साथ शारीरिक या भावनात्मक दु‌र्व्यवहार माना जाता है लेकिन कंसलटेंसी डेवलपमेंट सेंटर के अनुसार बच्चे के माता-पिता या अभिभावक द्वारा किया गया हर ऐसा काम बाल शोषण के दायरे में आता है जिससे उस पर बुरा प्रभाव पड़ता हो या ऐसा होने की आशका हो या जिससे बच्चा मानसिक रूप से भी प्रताड़ित महसूस करे। हैरानी की बात तो यह है कि स्वयं को मानवता का पोषक मानने वाला देश 'बाल शोषण' के मुद्दे को ही खारिज कर देता है।

आमतौर पर अभिभावकों को इस तथ्य का अंदाजा ही नहीं होता है कि उनके बच्चे का यौन शोषण उनका कोई अपना ही कर रहा है। ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि करीबी रिश्तेदार और जान-पहचान के लोग ही बच्चों या बच्चियों के यौन उत्पीड़न के दोषी होते है। ऐसे में बच्चों को डरा-धमका कर या परिवार की मान-प्रतिष्ठा की दुहाई देकर मुंह बंद रखने को मजबूर किया जाता है। यौन उत्पीड़न के बहुत सारे मामले तो कानून की नजर में आ ही नहीं पाते हालाकि सरकारें और अनेक स्वयंसेवी संगठन जन-जागरण अभियान के जरिए लोगों को ऐसे मामले प्रकाश में लाने को प्रेरित-प्रोत्साहित करते रहते है, मगर उनका अपेक्षित असर नहीं हो पाया है। इसका एक प्रमुख कारण हमारा सामाजिक ढाचा है, जहा 'प्रतिष्ठा' के लिए जान की कीमत भी कम आकी जाती है और अपने झूठे सम्मान को बचाए रखने के लिए अभिभावक अपने बच्चों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों को सामने लाने से हिचकते है जो प्रत्यक्ष रूप से उन लोगों के लिए बढ़ावा है, जो नन्हे मासूमों को अपने शोषण का शिकार बनाते है।

जून माह में बच्चों के यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए विधि मंत्रालय ने एक नए कानून का मसौदा तैयार किया था। यूं तो प्रस्तावित अधिनियम के ज्यादातर प्रावधान पहले से चले आ रहे है, पर कई मायनों में यह एक नई पहल भी है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अदालती कार्यवाही को और मानवीय व त्वरित बनाने की कोशिश की गई है। ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए हर जिले में विशेष अदालत का गठन और इनके लिए अलग से सरकारी वकील नियुक्त किए जाने का प्रस्ताव अदालती कार्यवाही को बच्चों के अनुकूल बनाएगा। प्रस्तावित अधिनियम का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि ऐसे मामलों में साल भर के भीतर फैसला सुनाया जाना जरूरी होगा। बाल उत्पीड़न के विरुद्ध इडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स की गाइडलाइन में सभी चिकित्सकों को निर्देश दिए गए है कि अगर उन्होंने बाल उत्पीड़न की सूचना समय पर नहीं दी तो उन्हें दो साल की जेल भी हो सकती है, पर इन सबसे ऊपर अभिभावकों और विद्यालय के शिक्षकों का दायित्व है कि वे बच्चे के मनोभावों को समझें और उनकी सुरक्षा के लिए कदम उठाएं।
ये लेखक के निजी विचार है! लेखक का परिचय:
[डॉ. ऋतु सारस्वत: लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

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