Friday 19 April 2013

मां होती है कामयाबी का भरोसा

आम लोग समझते हैं कि आसान रास्ते जीवन में अप्रिय जगहों की ओर जाते हैं। अगर कोई जीवन में कामयाब होना चाहता है तो उसे खुद को कठिनाइयों और समय की कसौटी पर कसना चाहिए। जीवन संघर्ष का क्षेत्र है। जीवन में पूर्णता का पुरस्कार उन्हें मिलता है जो साहसिक कायरे की तलाश में रहते हैं। स्वाभाविक रूप से, साहसभरे जीवन संघर्ष ही संघर्ष होते हैं। दुनिया मानती है कि यही जीवन का चारित्रिक गुण है। मां जीवन को एक दूसरा ही आयाम देती है। प्रयास करने के दौरान दो में से एक तरह की संभावना हमारे समक्ष होती हैं- सफलता या विफलता। लंबे समय तक ऐसा प्रयास करना संघर्ष नहीं कहा जाता है क्योंकि इसमें आनंद मिलता है, ऐसा आनंद जो संघर्ष के भीतर से पैदा हुआ है। सामान्य रूप से मां, जीवन के भीतर से विफलता की गुंजाइश को ही निकाल देती है और उसकी जगह विकल्पों के रूप में कामयाबी की दो श्रेणियां प्रस्तुत करती है। वह प्रयास को कभी नहीं निकालती है बल्कि प्रयास करने के दौरान संघर्ष को निकाल बाहर करती है। विभिन्न अवसरों पर यह सच हुआ दिखता रहा है। साथ ही, एक मां विफलता को दूर नहीं करती है। एक मां बहुत कम मौकों पर विफलता की गुंजाइश छोड़ती है। वह भाग्य से भी आगे जाकर महान कामयाबी के रास्ते पर नजरें टिकाए रहती है। अगर मां के चलते विफलता संबंधी तमगा मिला, तो इसका अर्थ है कि यह बच्चे के लिए ज्यादा बड़ी कामयाबी का पासपोर्ट है। मानव के जीवन में असत्य का अंबार है। अनिवार्य रूप से असत्य मौजूद होने का तात्पर्य है कि किसी कार्य को पूरा करने के लिए संघर्ष करना ही पड़ेगा। इस दौरान हर तरफ से विफलता की संभावना बनी रहेगी ही। अब अगर एक चेतनशील मां है तो वह असत्य के मौजूद होने की कतई गुंजाइश नहीं रखेगी। ऐसे में संघर्ष का खात्मा हो जाएगा और विफलता की गुंजाइश भी समाप्त हो जाएगी। मां जीवन में योग को सामने रखकर काम करती है। वह कहती है कि भगवान के बारे में जानना सामान्य मस्तिष्क में आता ही है। सामान्य मस्तिष्क जीवन में सबसे बड़ा काम करता है। ये जीवन पर अभिन्न रूप से हावी रहता है। सामान्य मस्तिष्क के भीतर आम इंसान संघर्ष और उससे मिली विफलता के बारे में सोचता है। बल्कि उसका समूचा जीवन तो उम्मीदों, चिड़चिड़ापन, हताशा, निराशा, पीड़ा आदि के बारे से चिंता से घिरा रहता है। इससे बाहर आकर सोचने वाला उम्मीद करता है कि वह समस्त दबावों से बाहर आएगा। लेकिन एक मां सोचती है कि दबावों से बाहर आने वाला इंसान भगवान को जान लेता है। कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान प्रतीक्षा करता है कि इंसान उनकी ओर मुड़े। सामान्य लोगों के मस्तिष्क में यह सब समाया होता है बल्कि उसके स्वभाव में ही होता है।
(उपयरुक्त विचार स्वतंत्रता सेनानी और दार्शनिक अरबिंद की लेख-श्रंखला से लिये गये हैं)

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